Monday, April 30, 2012

यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?



" यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं
आओ... चली आओ ह्रदय के पास, सुन लो धड़कने मेरी
सुर्ख से कुछ शब्द हैं मेरे पास तुम्हारी मांग में भरता हूँ मैं सिन्दूर सा
हर आचरण का व्याकरण है इन शब्दों की चादर में,... ओढ़ लो तुम भी
तुम्हारे माथे का जो चुम्बन लिया था कभी मैंने, उसे बिंदी समझ लेना
यहीं से यात्रा प्रारंभ होती है, चलो विश्राम कर लें
यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे, ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं ." -----राजीव चतुर्वेदी


आफताब की आफत आ गयी यार !!

"आफताब की आफत आ गयी यार !!
जेनरेटर की मार्केटिंग में लालटेन यह कहती है
सुन कर व्यवहार का सच बाजार के सच पर तरस खाता है
शब्दकोशों में कैद सच को रिहा करो यारो 
पूछ लो अब तितलियों से तथ्य फूलों का
सतह पर जो फतह कर लौटता है ज्ञान के गूलर का भुनगा
कोलंबस की भूल सभी पर भारी है क्यों ?
सत्य तथ्य से उपजेंगे जब सार्वभौमिक होकर समाचार का सूत्र बनेगे
षड्यंत्रों से जब तुम उनको बुन डालोगे
तो विचार के अवशेषों पर खडी प्रचार की प्राचीरें होंगी
और वहां फिर कंदीलों को सूरज कोई कह डालेगा
सच की महक नहीं बदली है मानक मत बदलो तुम." ----- राजीव चतुर्वेदी 

Sunday, April 29, 2012

अपने मुस्तकबिल के बावत सोचने दो अब मुझे

"अपने मुस्तकबिल के बावत सोचने दो अब मुझे ,
गुजरती शाम का सूरज मुडेरों पर खडा है.

वहां जिस डाल पर एक चिड़िया का घोंसला है ,
वहां तक एक अजगर जा चढ़ा है .

इबादत और अब मैं क्यों करूं तेरी,
तू उतनी दूर ही मुझसे अब भी खडा है .

ये कहते हैं कि पूरी रात रोया है रहमगर भी,
यजीदी काफिले का रुख अब फिर से मुड़ा है."
-- राजीव चतुर्वेदी

( मुस्तकबिल = भविष्य , इबादत = अर्चना/ पूजा , रहमगर = दयानिधान / भगवान् / अल्लाह ,
यजीदी काफिला = कर्बला में यजीद के काफिले ने ही मुहम्मद साहब के वंश नाश का प्रयास किया था./ कातिल खलनायक की सेना.)

Saturday, April 28, 2012

स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह


"स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह. एक-एक कर व्यवस्था के खम्बे गिर रहे हैं. वह विधायिका बाँझ है जो आज तक देश को देसी क़ानून भी न दे सकी. न्यायपालिका नपुंसक तो थी ही बेईमान भी है. उच्च न्यायालयों के जज कैसे बनते थे यह अभी तक अन्दर की बात थी पर अभिषेक मनु सिंघवी की सीडी के बाद सभी को पता चल गया है उच्च न्यायालयों के जजों का विस्तार विस्तर के जुगाड़ से होता है.सिघवी के पहले एक महेश्वरी जी भी उच्च न्यायालय के दर्जनों जज बिस्तरों के विस्तार और देह दर्शन पर बना चुके हैं.  कार्यपालिका यानी नौकरशाहीकर्महीन (कमीन) है यह सभी जानते है.... कहाँ रोयें ? मीडिया में ? मीडिया अब...मंडी बन चुकी है.उठो नया सृजन करो ! यह देश इन घोटालेबाजों के बाप का नहीं आप का भी है.शब्द युद्ध करो, शस्त्र युद्ध करो !!"  ----राजीव चतुर्वेदी



वरना अफ़सोस के अफ़साने सुने हैं मैंने भी बहुत

"तू मेरी तकदीर की तश्वीर होती तो बेहतर होता
वरना अफ़सोस के अफ़साने सुने हैं मैंने भी बहुत ." --- राजीव चतुर्वेदी

दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें

"सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया
रात में दहशत अँधेरा ओढ़ कर बैठी रही 
शब्द लाशें बन के सुबह बिखरे थे अखबार में
दिन के सूरज की उंगली पकड़ कर मैं निकला था घर से
शाम होते मैं कहीं गुम हो गया था 
जिन्दगी की इस तश्वीर को तहरीर मत समझो
आज मेरे खून से तर दिख रहे हैं उन्हीं काँटों पर
दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें."          -----राजीव चतुर्वेदी

यह वैश्वीकरण किसका है ?

Wednesday, April 25, 2012

आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है


" जो शब्दों से लिखी जाती है वह दरअसल कविता नहीं होती कविता जैसी एक चीज होती है ...कविता महसूस की जाने वाली एक अनुभूति है ...बेटी को गौर से देखो कविता दिखेगी ...बहन को गौर से देखो कविता लगेगी ...माँ को गौर से देखो कविता महसूस होगी ...एक मुजस्सम सी दीर्घायु कविता ...यों तो प्रेमिका या पत्नी भी कविता जैसी कोई चीज होती है कविता का चुलबुला सा बुलबुला जिसमें दिखता है इन्द्रधनुष पर फूट जाता है ...कविता स्त्रेण्य अभिव्यक्ति है और उसके तत्व आत्मा, भावना,कल्पना,करुणा भी स्त्रेण्य अभिव्यक्ति है." ----राजीव चतुर्वेदी
"यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है
भाषा के पहले शब्दों के नाद हुए अनुवाद जहां
कविता उसके पहले भी आई थी
वह दस्तक दर्ज हुयी है दस्तावेजों में
कुछ अपने आंसू
कुछ खुशियाँ , कुछ खून की बूँदें
शब्दों की नज़रों से ओझल प्यार तुम्हारा
लिख पाओ तो मुझे बताना
कह पाओ तो मुझे सुनाना
जीवन की इस पृष्ठ भूमि पर कविता और लिखी जानी है
यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है ." -----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, April 19, 2012

ऐ उड़ते हुए फरिश्तो,--- मेरी फेहरिस्त देख लो

" ऐ उड़ते हुए फरिश्तो,--- मेरी फेहरिस्त देख लो
हैं नाम इसमें दर्ज वही लोग हैं यहाँ
जिनका ज़मीर जिंदा है जज़्वात हैं वहां
अभी ऐतबार बाकी है मुझे कुछ और दिन रहना है
अभी प्यार बाकी है कुछ लोगों को उसे देना है
वो मोहब्बत, वो इमारत, वो इबारत डूबती है आँख में मेरी
मैं और रहना चाहता था, जिन्दगी से प्यार मेरे यार मुझको भी था
मैं जाता हूँ ,...सफ़र है यह, ...गुजरता हूँ गुजारिश से
मैं नहीं रहूँगा फिर भी कर सको तो मेरी वफाओं पे ऐतबार कर लेना
ऐ उड़ते हुए फरिश्तो मेरी फेहरिस्त देख लो
सफ़र लंबा है,...मुझे जाना है ,...चल रहा हूँ मैं ..."    -----राजीव चतुर्वेदी (20 April'12)

भावना तेरी यहाँ पर भाप सी उड़ जायेगी



"अर्ध्य देती आस्था से सूर्य बोला चीख कर,
भावना तेरी यहाँ पर भाप सी उड़ जायेगी."
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, April 18, 2012

क़त्ल हो चुके तेरे कारीगरों ने भी मुहब्बत की थी



"ऐ ताज !! शहंशाहों की मोहब्बत में बरक्कत न मांग,
क़त्ल हो चुके तेरे कारीगरों ने भी मुहब्बत की थी. "
                        ---- राजीव चतुर्वेदी

(सन्दर्भ -- ताज महल बनाने वाले कारीगर के हाथ ताज महल बनवाने बाले शाहजहाँ ने कटवा दिए थे ताकि वह दुबारा ऐसी कोई इमारत न बनवा सके )

"मैं दस्तकार था तो उसने हाथ कटवा लिए मेरे दोनों ,
मैंने ताज महल बनाया था यह गुनाह था मेरा
वो ताज महल उसके इश
्क की इमारत है
वो ताज महल मेरी हक़तलफी की इबारत है
मेरे हाथ कट गए थे मैं दुआ को उठाता तो उठता कैसे ?
खुदा ने खुद कभी मुझको देखा ही नहीं
खुदा खुदगर्ज था रहमत की जहमत उठाता तो उठाता कैसे ?
मेरी फ़रियाद उसके फसानो में फंसी थी बेवश
इश्क की इमारत तेरे जुल्म की इबारत भी है
गुजरते लोगों ने इस गुजारिश से कभी देखा ही नहीं
ताज तुझपे नाज़ करती हो तो मुमताज़ करे
मेरी बीबी की मायूस निगाहों की मोहब्बत को समझ
ये खुदा !!
किसी शहंशाह के इश्क के उनवान समझ
तो कारीगर की ग़ुरबत भी समझ
मेरे हाथ कट गए थे मैं दुआ को उठाता तो उठता कैसे ?
खुदा ने खुद कभी मुझको देखा ही नहीं
मैं दस्तकार था तो उसने हाथ कटवा लिए मेरे दोनों ,
मैंने ताज महल बनाया था यह गुनाह था मेरा
."
----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, April 17, 2012

आओ कुछ अच्छा लिखें


"आओ कुछ अच्छा लिखें
राष्ट्रपति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
कभी इंद्रा गांधी की रसोइया का राष्ट्रपति बन जाना उनके लिए गर्व की बात है
कभी किसी अम्बानी की मेहरबानी से कोई राष्ट्रपति बन जाता है
राष्ट्र के लिए किसी उल्लेखनीय कुर्बानी से तो कोई राष्ट्रपति बना ही नहीं
नरसिम्हाराव,देवगोडा, गुजराल , मनमोहन जैसे  प्रधानमंत्रीयों पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
  प्रधानमंत्री के पालने में नरेंद्र मोदी अभी नवजात पूत हैं
यह तो वक्त बताएगा कि वह सपूत हैं या मनमोहन जैसे ही कपूत हैं
सोनिया पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि वह देश राजनीति से नहीं देह राजनीति के रास्ते यहाँ तक पहुँची हैं
जिस योग्यता से कोंग्रेस में अम्बिका सोनी थी
उसी योग्यता की दम पर भाजपा में स्मृति ईरानी हैं
इनकी योग्यत अभी शोध का विषय है शेष तो वही कहानी है
राहुल गांधी हों या महाजन पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
अर्थ नीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि नरेंद्र मोदी के अच्छे दिन आ चुके है हमारे अभी तक तो नहीं आये हैं
आम आदमी की अर्थ व्यवस्था में मनमोहन और मोदी काल में अभी तक तो कोई अंतर नहीं दिखा
हमारी अर्थ व्यवस्था की अर्थी ही निकल गयी है
राजनीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि राजनीति हो ही नहीं रही है बस दुकाने चल रही हैं और गिरोह पल रहे हैं
खेल नीति पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि वंशवाद के चलते उधर राहुल इधर वरुण हमारे बच्चे करुण
खेल हो, रेल हो या तेल हो मनमोहन तो गया पर अब लोग कह रहे हैं---" मोदी तुम अब तक तो फेल हो" 
क़ानून व्यवस्था पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
क्योंकि घूस तो पेशकार लेता है, पहुँचती कहाँ तक है क्या बताएं
पुलिस पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
मायाबती/ मुलायम/ करूणानिधि/ यदुरप्पा /कल्माणी / कनीमोझी पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
"शीला" कहो तो "शीला की जवानी" याद आती है
नहीं याद आता कि शीला नाम की शख्सियत पंद्रह साल दिल्ली की मुख्यमंत्री थी
रोबर्ट्स बढेरा हों या चटवाल सभी हैं मालामाल पर देश हो गया है कंगाल
उस पर अच्छा नहीं लिखा जा सकता
कोंग्रेस /भाजपा /माकपा/आप पर अच्छा लिखा नहीं जा सकता
कोंग्रेस के लिए भ्रष्टाचार अन्तरंग है और भाजपा के लिए जल तरंग
दिल्ली में कुछ मोमबत्ती मार्का क्रांतिकारी आम आदमी थे
क्योंकि वह वुडलैंड के जूते बिना मोज़े के पहनते थे और वोदका पी कर बुर्जुआ के प्रति बेचैन थे
फोर्ड फाउंडेशन से फण्ड खाने वाले चंदाखोर आप नेताओं को अम्बानी /टाटा से बड़ा परहेज था
हालांकि केजरीवाल टाटा के नौकर थे
लोकतंत्र की अभूतपूर्व लड़ाई भूतपूर्व नौकर -चाकरों में सिमटी है
टाटा का भूतपूर्व नौकर , वर्ल्ड बैंक का भूतपूर्व नौकर और रिलाइंस का चाकर
सेक्यूलर कुछ -कुछ सूअर का हमशक्ल शब्द है यह सर्व भोजन समभाव लेते हैं
अपने और पराये काले धन का अनुलोम विलोम करते
स्वामी रामदेव पर भी अब अच्छा लिखने का मन नहीं करता
अपने गुरु की रहस्यमय ह्त्या का राज्याभिषेक रामदेवनुमा राजनीति को रोमांचित करता है
जनता यानी कि हमारे आपके चितकबरे चरित्र पर भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
NGO के टेस्ट ट्यूब बेबी अग्निवेश,संदीप पाण्डेय,तीस्ता सीतलवाद,किरण बेदी,
केजरीवाल, शबाना आजमी , महेश भट्ट
अनुदानों के कीचड़ में किलोलें कर रहे हैं, इन पर भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
अन्ना का पन्ना अभी लिखा जाना शेष है
अन्ना गांधी बनने चले थे
पर गांधी तो चालीस साल तक एक आन्दोलन को अंजाम तक पहुंचाता है
यह तो एक साल में हांफने लगे 
आतंकवाद में शामिल मौलवियों के बारे में भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
और यौनशोषण के आरोपों में लिप्त महंतों और पादरियों के बारे में भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता
क्रिकेट पर दाउद की दया है, उसका हर मैच फिक्स है
बाकी खेल दयनीय से हैं उनकी दशा पर अच्छा नहीं लिखा जा सकता
इसीलिए आज छुट्टी
आज कुछ नहीं लिखूंगा. " -- राजीव चतुर्वेदी



"गिरे हुए लोग उठते हैं बड़ी खूबी से ,
और हम भी हैं कि चुनते हैं उन्हें बेवकूफी से."

---राजीव चतुर्वेदी

हम गवाही देते हैं

यहाँ प्रस्तुत कविता 1997 "इंडिया टुडे" साहित्यिक वार्षिकी में प्रकशित "संजय चतुर्वेदी" की कविता है जो आज भी प्रासंगिक है.

" ई उन्नीस सौ छियानवे में
मतपेटियों से जिन्न निकला
जिसने हुक्म आने से पहले ही
एक -एक के कपड़े उतारने शुरू कर दिए
लफंगों से नहीं हम ऋषियों के नाम से शुरू करते हैं

सीपीएम के सर्वोच्च नेता ने

सारे देश के सामने दूरदर्शन को बताया
कि उनकी साठ से ज्यादा कोंग्रेसीयों से
गुप्त बातचीत चल रही है
समय आने पर इसका पता चल जाएगा

जो भी भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ हो

उसे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील माना जाता था
और सामाजिक न्याय के नाम पर
चालू कमुनिस्ट
जबरदस्त जातियों और मौकापरस्त लोगों के
मध्यस्थ बन कर रह गए थे
वैचारिक समय इतना पेचीदा
और प्रगतिशील होना इतना आसान
शायद इससे पहले कभी नहीं था

कम्युनिस्टों वाले मंत्रिमंडल में

वित्तमंत्री क्लिंटन वाला था
और यह बताया जा रहा था
कि साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए
आर्थिक नीतियाँ अमेरिका की ही उचित हैं
और यह भी बताया जा रहा था
कि संसदीय राजनीति एक बड़ी करवट ले रही है
और बिना अमेरिका की मदद के
मार्क्सवाद को प्रासंगिक रख पाना मुश्किल होगा
बिजनेस स्कूलों से निकल अपवर्ल्डली मोबाइल लड़के
कम्युनिस्टों के अस्तबल में घुस चुके थे
बूढ़े तो पहले से ही तैयार थे
सो शानदार वरयात्रा शुरू हुई
यह कोई लॉन्ग मार्च नहीं था , न कोई जनादेश

दिल्ली में कोंग्रेस अध्यक्ष ने बताया कि यह सरकार चलेगी

क्योंकि हमारा बिना शर्त समर्थन का वादा है
लेकिन उनके पार्टी अध्यक्ष ने बंगलूर में बताया
कि सरकार जल्दी ही गिर जायेगी
क्योंकि वर्तान प्रधानमंत्री संसद नहीं है
और चुनाव लड़ते ही हम उसे हरा देंगे

सत्तरूढ़ दल का अध्यक्ष जो अपने को लोहिया का शिष्य बताता था

टीवी पर भी भद्दी जवान में बात करता था
और इस फूहड़पन को
ऊंचे स्टार का फिनोमिनन बताया जा रहा था
एक सफल राजनैतिक दलाल ने
जो अपने को धाकड़ सांसद और रिकोर्ड तोड़ मसीहा मानता था
हमें बताया कि फूलनदेवी अपराधी नहीं है
जैसे कि बेहमई में जो लोग मारे गए
वे सभी पुरुष प्रधान समाज के घृणित प्रतिनिध थे
और गावों में
अचानक मर्दों को इकट्ठा करके गोली मर देना
एक क्रांतिकारी काम होगा
और सामाजिक न्याय का कोई बड़ा अनुयाई
अगर गृह मंत्री बन गया
तो यह काम सरकारी स्टार पर चलाया जाएगा
और एक दिन हमें अचानक पता चला
कि बिहार में अपनी पत्नी को छोड़ कर
दिल्ली मैं दूसरी शादी करके
सारे देश के सामने मौज मस्ती करते एक दढ़ियल को
कैसी पिस्तौल सुन्दरी ने गोली मार दी

सामाजिक न्याय के नाम पर

हम सभी मूल्यों को नष्ट करने की राह पर चल पड़े थे
और मानवसुलभ सुन्दरता और संस्कृत की बात करने को
बिना बहस के सवर्ण मानसिकता का मान लिया जाता था

रक्षा मंत्री गृह मंत्री को अफ़सोसनाक

और गृह मंत्री रक्षा मंत्री को शर्मनाक बताता था
और अगर कोई कहता कि यह देश के लिए ठीक नहीं है
तो कहा जता था कि यह तो ठीक है
लेकिन इस पर ज्यादा सोचना
साम्प्रदायिक संतुलन के लिए ठीक नही है
धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रधानमंत्री ने झूठ बोला
तो गृह मंत्री ने माफी मांगी
और गृह मंत्री ने सच बोला
तो प्रधान मंत्री ने मांफी मांगी
एक दिन रक्षा मंत्री ने झूठ बोला
लेकिन प्रधानमंत्री ने माफी मांगने से इनकार कर दिया
अगले दिन पता चला
कि सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष ने
दस साल के लिए
प्रधानमंत्री को पार्टी से निकाल बाहर किया

सरकार में तेरह घटक थे

मंत्रिमंडल में पच्चीस
केंद्र में चार घटक खिसकाने से

राज्य में बारह घटक मजबूत होते थे

और राज्यों के घटकों को जोड़ने पर
केंद्र में पांच नये घटक पैदा होने की संभावना थी
विचारों में जो घटक थे
उन्हें सिद्धांतों में रखते थे
तो लटक पैदा होती थी
और आचारों को मिलाते थे
तो अचार बनता था
लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा को सभी प्रतिबद्ध थे
लेकिन लोकतांत्रिक तरीकों से अगर बीजेपी सत्ता में आई
तो सभी फ़ौजी हुकूमत की बकालत करेंगे
ऐसा भी एक प्रस्ताव था

हम घटिया रास्तों से अच्छा उद्देश्य चाहते थे

केन्द्रीय समिति मुझे क्षमा करे
और अगर यह काम संसदीय परम्पराओं के विरुद्ध न हो
तो कुछ रोज मैं ऋत्विक घटक के बारे मैं सोचना चाहूंगा."
---संजय चतुर्वेदी

Monday, April 16, 2012

दिमाग में इबारत और दिल में इमारत जितनी भी थीं ढह गयीं

"जख्म उसने दिए थे मगर सलीके से,
आंसू मेरी आँख में इबादत की तरह महके थे
दिमाग में इबारत और दिल में इमारत जितनी भी थीं ढह गयीं
लडखडाते पाँव मेरे रास्तों पर बहके थे
रात लम्बी थी ग़मों की चांदनी ओढ़े हुए
हर सुबह हम याद तेरी करके फिर से चहके थे. " ------राजीव चतुर्वेदी

बड़ी उदास है यह रात, सर्द हैं रिश्ते

"बड़ी उदास है यह रात, सर्द हैं रिश्ते,
हवाएं हांफती है, खिड़कियाँ भी खौफ में हैं,
सर्द होते जा रहे रिश्तों के रास्ते लम्बे हैं यहाँ,
सत्य का साहस लिए, संताप से सहमा हुआ गुजरता हूँ गुजारिश सा
घटनाएं भी गुजरती हैं घटाओं की तरह जैसे अनुभव हो मरुथर में भी बारिस का,
यादों के अलावों में सुलगती थी जो याद तेरी अब बुझती जा रही है, --ताप लूं .
कल सुबह हर याद को फिर राख बनना है
दौर ऐसा है दिया दयनीय है हर याद का
सो भी जाने दो मुझे, दरवाजों पर अब दस्तक न दो
आस आंसू से बही थी, ओस पंखुड़ियों पे न देख
अब तो दीपक बुझ रहा है जल चुके विश्वास का." ----राजीव चतुर्वेदी     

प्यार की पैमाइश के कब पैमाने मिलेंगे ?

" हो सके तो देख लेना चाँद तुमभी आज छलनी से छलकता 
चांदनी की चादर जब हटाना ख्वाब मेरे छत पे ही बैठे मिलेंगे
अगरबत्ती सी सुलगती है जहन में आत्मा मेरी पुकारा तुमने क्या ?
देह की पैमाइश की नुमाइश हो चुकी अब
प्यार की पैमाइश के कब पैमाने मिलेंगे ?"
----राजीव चतुर्वेदी

प्यार की परिभाषा पानी ने पूछी पत्थरों से

"प्यार की परिभाषा पानी ने पूछी पत्थरों से,
रेत चीखी और यह कहने लगी
तू तो बहता जा रहा था एक रवानी की तरह
मैं टूटती ही रह गयी जिंदगानी की तरह." ----राजीव चतुर्वेदी 

Saturday, April 14, 2012

और हम अफ़सोस का तकिया लगा कर सो गए


सच के सूचकांक पर अखबार औंधे मुंह गिरा

शब्द सहमे से बयानों में कहीं गुम हो गए


जुबां को रूमाल सा तह कर दिया तहजीब से

ख्वाहिशों को दिल में दफ़न करके हम रो गए


फासले पर फैसला था और संसद मौन थी

और हम अफ़सोस का तकिया लगा कर सो गए." -- राजीव  चतुर्वेदी 

Wednesday, April 11, 2012

चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है

" चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है
और वैश्यायों की बस्ती में हनीमून करनेवालों से हनुमान की बात न करना
युग के साथ थिरकते देखो मानदंड भी
आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगों की दुनिया कोलंबस की भूल के आगे नतमस्तक है
हर जुगनू की देखो ख्वाहिश सूरज की पैमाइश ही है.
और शब्द संकेतों को तुम पढ़ पाओतो मुझे बताना
गिद्ध -बौद्ध में अंतर क्या है ?
सोमनाथ के दरवाजे हमने खोले थे
दयानंद को जहर खिला कर हमने मारा
गांधी के हत्यारे हम हैं
षड्यंत्रों को शौर्य न समझो
शातिर के हाथों में मोटा शब्दकोष है
हर कातिल के खंजर पर लोकतंत्र की ख्वाहिश देखो
बल्बों के बलबूते देखो हर सूरज को अपमानित करना आम बात है
युग के साथ थिरकते देखो मानदंड भी
चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है
और वैश्यायों की बस्ती में हनीमून करनेवालों से हनुमान की बात न करना." -- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, April 10, 2012

संस्कृति के नाम पर विकृति का यशोगान ---मेरा भारत महान

"राम और मरा में अंतर क्या है ?
पहला जीवन की शर्तों का आगमन है और दूसरा बहिर्गमन
अल्लाह और मल्लाह के बीच जो जिस्मानी दरिया बहता है
जमीन पर नूर और जन्नत में हूर पर फातिमा के लिए क्या फतवा है ?
स्वामी विवेकानंद की संस्कृति और पीटर इंग्लॅण्ड की शर्ट का समीकरण समझो
इनके बीच फंसा बाजार का सेंसेक्स और व्यवहार का फेयर सेक्स धराशाही है
मंदिर में काली और बाज़ार में फेयर एण्ड लवली  का बोलबाला है
इस बीच दसवीं भी न पास कर सका एक बल्लेबाज शतकों के शतक पर अटका
फिर उसने एक भुखमरे देश में शतको का शतक बनाया
उस दिन देश तो हार गया था पर वह जीत गया था
फिर उसने ली उस पेप्सी की डकार जो उसे देख कर हमारे नौजवान और ज्यादा पीते हैं
सुना है सचिन अपने बच्चों को पेप्सी नहीं पिलाता
भगवानो में महेश जो युगों को अमृत और पापियों को दारू पीने की व्यवस्था करते थे
यहाँ तो अब क्रिकेट का धोनी है जो नौजवानों में कर रहा है दारू का प्रचार
सुना है भारत में सर्वाधिक बोर्नविटा पी जाती है तभी तो खेल में हम फिसड्डी हैं
और चालीस फीसदी बच्चे हैं कुपोषण का शिकार
कातिल थे वह जिन्होंने ईसा मसीह के क़त्ल के लिए सलीब बनाई थी और उसे टांगा था
हम साल दर साल नई नई सलीबें बना रहे हैं और  ईसा को सलीब पर टांग रहे हैं
माल्थूजियन थ्योरी ऑफ़ पोपूलेसन बारह बच्चों के बाप कलीम मियाँ के आगे नतमस्तक है
4 बीबी और महज 16 बच्चों के बाप कलीम मियाँ को वेलेंटाइन को जानने की जरूरत भी क्या है ?
शिव की पूजा पद्धति मुझे विकृति लगती है आपको संस्कृति लगे तो बताना
और अपनी माँ बहनों को एक बार फिर किसी के लिंग उपासना के लिए लेजाना
मैं तो चला शिव का चरित्र पूजने
तुम्हें चरित्र नही पूजना था तो पूजते चित्र
तुम जिसे पूजते हो वह न चरित्र है न चित्र
न चरित्र ,न चित्र यह है विचित्र
संस्कृति के नाम पर विकृति का यशोगान ---मेरा भारत महान ."
---- राजीव चतुर्वेदी

Monday, April 9, 2012

रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर, ---आवाज़ मत दो

"रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर, ---आवाज़ मत दो.
रिश्ते कलेंडर से टंगे हैं मेरे जेहन में
तकदीर में जो दर्ज थीं तारीख अब तहरीर में तपती हुई हैं 
बदलते मौसमों का रंग ...रंग में राग शामिल है
हवन  की अग्नि साक्षी है की जिसकी आग शामिल है
दुआएं दूसरों की और अपना दहकता सा दंभ
घृणा की बारूद से सुलगे प्यार के थे वही जुमले
वह गमले में रोपा था जिसे तुलसी का वह पौधा 
वह इमारत जिसमें लिखी थी प्यार की कितनी इबारत, ---छोड़ आया हूँ
हौसले अब लौटने के हासिये पर हैं अदालत की मिसिल में
अब चलूँ मैं गलती अगर मेरी थी तो गलतियां तेरी भी थी
राहगीरों को हम सफ़र समझो तो तेरी भूल है
अब छलकते छल के रिश्ते हैं यहाँ हर मोड़ पर
कुछ आह, कुछ आशा बटोरे मैं चला उस ओर सूरज डूबता है अब जहां
और चन्दा उग रहा है अब पराजित सा
रास्ते ले कर चल पड़े हैं मुझको रिश्तों से बहुत दूर, ---आवाज़ मत दो.
मैं जानता हूँ ...मानता हूँ --- क्षितिज का छल मुझे निश्छल बना देगा." ---- राजीव चतुर्वेदी (9March'12)   

Saturday, April 7, 2012

हिन्दी क्यों क्रमशः मर रही है ?



"हिन्दी क्यों क्रमशः मर रही है ? उर्दूभाषी समाज हो या अंगरेजी भाषी समाज सभी अपनी भाषा के आचरण और व्याकरण के प्रति सतर्क है पर हिन्दी जगह जगह गलत लिखी जा रही है, न भाषाई आचरण सही है न व्याकरण और न ही कोई मानकीकरण. परिणाम कि आप कहना कुछ चाहते हैं कहते कुछ हैं. कई बार यह किसी व्यक्ति के लिए अनापेक्षित रूप से अतिक्रमण होता है और प्रायः संक्रमण. हिन्दी हमारे राष्ट्रीय गौरव और संस्कृति की प्रतीक पताका है. इसे अपने ज्ञान की उत्ताल हवाओं में निर्बाध फहराइए पर भाषा के संस्कार, आचरण और व्याकरण को ध्यान में रख कर.---- सादर !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

"पेड न्यूज"

 
"आज़ादी के दौर में पत्रकारिता परवान चढी थी."उद्दंड मार्तंड" और "सरस्वती" के दौर में एक विज्ञापन निकलता है --"आवश्यकता है सम्पादक की, वेतन /भत्ता - दो समय की रोटी -दाल, अंग्रेजों की जेल और मुकदमें" लाहौर का एक युवक आवेदन करता है और प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उसको सम्पादक नियुक्त करते हैं. सरदार भगत सिंह इस प्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करते हैं. तब पत्रकारिता प्रवृत्ति थी अब आज़ादी के बाद 'वृत्ति' यानी आजीविका का साधन हो गयी. पहले पत्रकारिता मिशन थी अब कमीनो का कमीसन हो गयी. भगत सिंह ने जब असेम्बली बम काण्ड किया तो अंग्रेजों को उनके विरुद्ध कोई  भारतीय गवाह नहीं मिल रहा था. तब दिल्ली के कनाटप्लेस पर फलों के जूस की धकेल लगाने वाले सरदार सोभा सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में भगत सिंह के विरुद्ध झूटी गवाही देकर भगत सिंह को फांसी दिलवाई और इस गद्दारी के बदले सरदार शोभा सिंह को अंग्रेजों ने पुरुष्कृत करके " सर" की टाइटिल दी और कनाट प्लेस के बहुत बड़े भाग का पत्ता भी उसके हक़ में कर दिया. मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह इसी सरदार शोभा सिंह के पुत्र हैं. अब पत्रकारों को तय ही करना होगा कई वह पुरुष्कृतों के प्रवक्ता हैं या तिरष्कृतों के. यानी पत्रकारों की दो बिरादरी साफ़ हैं एक -- गणेश शंकर विद्यार्थी /भगत सिंह के विचार वंशज और दूसरे सरदार शोभा सिंह के विचार बीज. 2G की कुख्याति में हमने बरखा दत्त, वीर सिंघवी, प्रभु चावला और इनके तमाम विचार वंशज पत्रकारों को "दलाल" के आरोप से हलाल किया फिर भी पत्रकारिता के तमाम गुप चुप पाण्डेय अभी बचे हैं. विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मंडी की फ्राडिया राडिया रंडीयाँ और दलाल अभी भी सच से हलाल होना शेष हैं. "पेड न्यूज" और "मीडिया मेनेजमेंट" जैसे शब्द संबोधन वर्तमान मीडिया का चरित्र साफ़ कर देते हैं कि मीडिया का सच अब बिकाऊ है टिकाऊ नहीं. क्या है कोई संस्था जो पत्रकारों पर आय की ज्ञात श्रोतों से अधिक धन होने की विवेचना करे ? पहले सच मीडिया बताती थी और न्याय न्याय पालिका करती थी. मीडिया और न्याय पालिका ही दो हाथ थे जो रोते हुए जन -गन -मन के आंसू पोंछते थे. अब ये दोनों हाथ जनता के चीर हरण में लगे हैं. पत्रकारों से प्रश्न है --"सच" में तो सामर्थ्य है पर क्या वर्तमान में मीडिया सच की सारथी है या इतनी स्वार्थी है कि सच की अर्थी निकाल रही है."
                                                                    
---- राजीव चतुर्वेदी
"सवाल यह नहीं कि आप पत्रकार है ...सवाल यह नहीं कि आप बुद्धिजीवी है ...सवाल यह है कि आप तिरष्कृतों के प्रवक्ता हैं या पुरष्कृतों के ? ....आप बुद्धिजीवी है या बुद्धिखोर ? ...आप अगर बुद्धिजीवी हैं तो यह भी बताइये कि आप वृहष्पति की परम्परा के हैं या शुक्राचार्य की ?...और यह भी तो बताइये कि सत्य बोलना आपका संस्कार है या इसकी शर्तें हैं ...सत्य के ...सूचना के ...संवेदना के ...समाचार के आढ़तिये को क्या पत्रकार कहा जा सकता है ? ...इस दौर में व्यथा वाचक से ज्यादा कमाते हैं कथा वाचक ...सत्य ...सूचना ...समाचार ...संवेदना यदि आढ़त पर ...दुकान पर बिकने बाली चीज हो गयी तो जिसकी क्रय क्षमता होगी वही खरीदेगा सत्य /सूचना /समाचार और संवेदना ...और जिसकी क्रय क्षमता नहीं होगी वह क्या करेगा ? फिर क्यों कहते हो Mass Media यानी जन संचार , क्यों नहीं कहते अपने आपको Class Media यानी 'प्रतिष्ठितों का प्रचार' ...ऐसे बाजारू परिदृश्य में दूरदर्शन की सामाचार सुंदरियां समाचार कोठे पर बैठी हैं बस अंतर यह है कि गुजरे जमाने की वैश्या मुजरा सुनाती थी और यह समाचार का शिजरा सुनाती हैं ....जब समाचार का सरोकार सत्य से नहीं इष्ट साधना से होगा तो उस इष्ट साधना का अभीष्ट कोई समाचार भवन यानी News House नामक कोठा होगा ...बाजार का आचरण और बाजार का व्याकरण लागू होगा ....सत्य की प्रतिबद्धता के संस्कार की बात यहाँ ठीक वैसी है जैसे कोई रण्डी के कोठे पर हनुमान चालीसा पढने लगे ... इन समाचार कोठों पर समाचार के साथ सुन्दर देहयष्टि बेचती समाचार सुंदरियां हैं ....कुछ गजरा सा बेचते, कुछ मुजरा सा बेचते किसी हूर के नूर पर गुरूर करने वाले किसी 'शब्द भडुए' को हम पत्रकार कहने लगते हैं जो नूर ,हूर .शराब के सुरूर , और किसी नेता या नौकरशाह से परिचय होने के गुरूर में इन शब्द कोठों पर शब्द सारंगी, सूचना कब्बाली गाता है , कजरा ,गजरा ,मुजरा सब कुछ सुनाता है बस समाचार नहीं सुनाता क्योंकि 'समाचार' यानी कि 'सम' + 'आचार " (आचरण ) यानी कि Equitable Attitude की जरूरत होती है . आत्ममुग्धता से उबरो हे पत्रकार और बताओ कि तुम बुद्धिजीवी हो या बुद्धिखोर ? ...यह भी बताओ कि तुम तिरष्कृतों के प्रवक्ता हो या पुरष्कृतों के ?...आम आदमी के प्रवक्ता हो या ख़ास आदमी के ? ...यह भी तो बताइये कि सत्य बोलना आपका संस्कार है या इसकी शर्तें हैं ...और अगर सत्य बोलने की शर्तें हैं तो क्या ?" ------ राजीव चतुर्वेदी

योद्धा नक्षत्र के मोहताज़ नहीं होते

"धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी,
पंचांग के पन्नो को पढ़ता ज्योतिषी बांचता हो एक ठहरी सी इबारत,
असमर्थता की ओस मैं नहाते नक्षत्र नज़रें जब चुराते हों,
तो ऐसे मैं तुझे कैसे बताऊँ कि योद्धा नक्षत्र के मोहताज़ नहीं होते,
सरताज और मोहताज़ के बीच सड़क तो दौड़ती है भाग्य रेखा सी
सफलता की सूचकांक को देखो तो, पराक्रमी पंचांग नहीं पढ़ते
छत्र पाने को उठे हैं पैर जिनके नक्षत्र पर होती नहीं उनकी निगाहें,
धरती की हथेली पर सड़क जब दौड़ती हो भाग्यरेखा सी." -------राजीव चतुर्वेदी

Friday, April 6, 2012

आओ फरिश्तों से कुछ बात करें बहुत उदास है ये रात


"आओ फरिश्तों से कुछ बात करें
बहुत उदास है ये रात
कोहरे के लिहाफ ओढ़ कर शायद तुम हो जो झांकती हो मुंडेरों से अभी

चाँद की बिंदी लगा लो अपने माथे पर
समझलो तुम सुहागिन हो

तुम्हारी मांग में शफक सिन्दूर भर कर खोगई है भोर में
मैं लौट के आऊँगा देख लेना

तन्हाईयों में गूंजती रुबाईयों जैसा
धूप में सूखती रजाईयों जैसा
मैं लौट के आऊँगा देख लेना

हादसे में हाँफते सुबह के अखबार में सिमटा
देख लो तुम्हारी गोद में सर रखे सूरज सा लेटा हूँ मैं

एक रोशन सच चरागों से चुरा लाया हूँ मैं
तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का

मैं खो जाऊंगा तह किये कपड़ों में रखे स्नेह के सुराग सा
मैं याद आऊँगा सूनी मांग से सिन्दूर के संवाद सा 

तुम्हारी आँख में काजल लगा दूं रात का
मैं जाता हूँ सितारों ने बुलाया है दूर से मुझको

ओढ़ लो कोहरे की चादर
बहुत सर्द है रात.
"    ----राजीव चतुर्वेदी






Thursday, April 5, 2012

वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए


"वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए,
पेड़ के पीले से पत्तों की तरह
झाड़ कर दालान से बाहर भी तुमने कर दिया
अब क्या कोपल उगेंगी फिर नए विश्वास की ?
वक्त की आंधी से जो अब गिर रहे हैं सूखे पत्ते से
वह रिश्ते हमारे
सुना है मिट्टी में मिल कर खाद बन जाते यहाँ हैं
इस खाद में फिर ख्वाब का पौधा उगेगा
पत्तीयाँ उसमें भी होंगी
सभ्यता के इस सफ़र में सहमते लोगो सुनो तुम
वह जो रिश्ते सूख कर थे गिर गए,
पेड़ के पीले से पत्तों की तरह
झाड़ कर दालान से बाहर भी तुमने कर दिया
अब क्या कोपल उगेंगी फिर नए विश्वास की ?" ----राजीव चतुर्वेदी

हर मेहनतकश को गधा कह रहे शातिर सुन


"यह सौन्दर्य असीम प्रभु की यह भी कृति है,
यह खोट नज़र की मेरी ही है जो विकृत है.
हर मेहनतकश को गधा कह रहे शातिर सुन
घूसखोर को सत्यापित करती यह संस्कृति है."
                                 ---- राजीव चतुर्वेदी 

Wednesday, April 4, 2012

आहत है वह

"मैं नहीं हूँ अब वहां
हो सके तो अक्स को अहसास दो
  आहत है वह."

-----राजीव चतुर्वेदी 

हर हरामखोर के चेहरे पे नूर था

"सब जानते हैं वह गटर थी,
गंगा में क्या मिली कि उसको गुरूर था. 
वह लड़खड़ा गया था किसी हादसे को सुन,
लोगों की राय में उसको सुरूर था.
वह घूसखोर जिसके लिए पेशकार ले रहा था घूस,
वकीलों की अब निगाह में वह भी हुजूर था.
मेहनतकशों के मुकद्दरों में थीं मायूसियां लिखी,
 हर हरामखोर के चेहरे पे नूर था. "                ----राजीव चतुर्वेदी   

Tuesday, April 3, 2012

तह करके रख ले अपना आसमान ऊपर वाले

"मुझे फक्र है मेरे पाँव ज़मीन पर हैं,
तह करके रख ले अपना आसमान ऊपर वाले."

                                                          ----राजीव चतुर्वेदी

Monday, April 2, 2012

प्यार के छल की नमी क्यों नापते हो

"मेरी आवाज़ खो जाने दो अंधेरों में,
अनंतों की अवधि क्यों नापते हो .
आसमानों का अहसास तो है हमको
असमानों से आस तो है ओस जैसी
सत्य का सूरज जब हो निगाह में तेरी
प्यार के छल की नमी क्यों नापते हो." -- राजीव चतुर्वेदी 

Sunday, April 1, 2012

ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको

" यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे ,
अमावस को तारे भी अवकाश में हैं
मुसाफिर सो गए हैं सोचते सुनसान से सच को
यह सच है कि सूरज डूबा था महज हमारी ही निगाहों में
 चीखती चिड़िया का चेहरा और गिद्धों का चरित्र
फूल की पत्ती पे वह जो ओस है अक्स आंसू का
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे
सहेजोगे तो कविता कागजों पर शब्द बन कर वेदना का विस्तार नापेगी
वह जो घर पर आज सहमी सी खड़ी है छोटी बहन सी भावना मेरी
आसमान को देखती है एक चिड़िया सी
उसकी निगाहों में सिमटा आसमान शब्दों में समेटो तो नदी की मछलियाँ भी मुस्कुरायेंगी
पीढियां भी संवेदना की साक्षी बन कर तेरी कविता गुनगुनायेंगी
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे.
ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे." ----राजीव चतुर्वेदी

सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया

"सहमती शाम का सूरज संकोची सा नज़र आया
रात में दहशत अँधेरा ओढ़ के बैठी रही 
शब्द लाशें बन के सुबह बिखरे थे अखबार में
दिन के सूरज की उंगली पकड़ के मैं निकला था घर से
शाम होते मैं कहीं गुम हो गया था 
जिन्दगी की इस तश्वीर को तहरीर मत समझो
आज मेरे खून से तर दिख रहे हैं उन्हीं काँटों पर
दर्ज होना चाहती हैं खूबसूरत सी खरासें."          -----राजीव चतुर्वेदी