Sunday, October 18, 2015

एक अहसास चीख कर चुप होता है

" एक अहसास चीख कर चुप होता है
एक उपहास दिल के दालानों में पसर कर बैठा
मैं जानता हूँ
जिन्दगी की इस धूप में पेड़ की परछाईं सी जो छाया है
वह तुम्हारी हमशक्ल सी लगती है मुझे

शायद तुम्हीं हो
ओस से गिरते हमारे अहसास दिन में सूख जाते हैं
चांदनी क्यों चीखती थी रात को ?
सूरज सबेरे ही सवालों से घिरा यह पूछता है
सुना है वेदना अखबार में बिकने लगी है
मैं अकेला और तुम तनहा से तारों में कहीं अब दूर बैठे हो
हो सके तो दीवाली मनाने को मेरे पास चले आना
मैं तारों में खोज लेता हूँ तुम्हें पर बात बाकी है
इन हवाओं की गुजारिश प्यार करती सी गुजरती है
मैं अभी ठहरा नहीं हूँ
इस सफ़र में जब कभी ठहरूंगा तो बता दूंगा
प्यार, मौसम, यह हवाएं, चांदनी, वह धूप सूरज की,
पेड़ की छाया, काया हमारी और यह माया यहाँ रुकती नहीं है
रास्ते में तुम यहाँ अब कब मिलोगे ? -- प्रश्न यह पूछो नहीं
आभाष को अहसास कर लेना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, October 4, 2015

गाय तथा सूअर की चर्बी पर 1857 की क्रान्ति ही नहीं हुयी थी 2017 की भी क्रान्ति होगी


"मुसलमान गऊ मांस न खाएं पर गाय क्या खाये यह हिन्दू बताएं ?... क्या "गाय क्या खाये" इसकी कोई धार्मिक सामाजिक व्यवस्था है ?.... सुपोषित गायें गऊ वंश में अल्पसंख्यक हैं और कुपोषित बहुसंख्यक । जम्मू कश्मीर में या अन्य किसी मुस्लिम बहुल इलाके में अगर हिन्दूओं का कोई वर्ग सुअर का मांस खाये तो मुसलामानों को कैसा लगेगा ?...क्या इसे मुसलमान बर्दाश्त कर सकेंगे ?... तो फिर अमन की कोशिश में मुसलमान क्या मात्र इतना भी नहीं कर सकते कि गऊ मांस न खाएं ? यह अमन और सहअस्तित्व की सार्थक पहल होगी । क्या मुसलमान यह करेंगे ?... अगर "हाँ" तो सहअस्तित्व की संभावना है और अगर "नहीं " तो सहअस्तित्व अकेले हिंदुओं की ही राष्ट्रीय जिम्मेदारी नहीं । याद रहे; अघुलनशील अस्मिता राष्ट्र की एकता में बाधा है और गाय तथा सूअर की चर्बी पर 1857 की क्रान्ति ही नहीं हुयी थी 2017 की भी क्रान्ति होगी ।"
---- राजीव चतुर्वेदी