Monday, February 17, 2014

निःशब्द से संवाद शब्दों का

"मैं शब्द की चादर ओढ़ कर सच में सोया था
कुछ शब्द उस पर आ गिरे थे फूल के जैसे,--- रखे थे तुमने क्या ?
कुछ शब्द दिल को छू गए थे पर क्या करूँ
महसूस होने के लिए ज़िंदा होना जरूरी था
और मैं शब्द की चादर ओढ़ कर सच में सोया था
निःशब्द से संवाद शब्दों का
सुनो अब आत्मा अंगड़ाई लेती है
और तुम आत्मीय यदि हो तो
शब्द की सच में जरूरत है भी क्या ?
" --- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, February 15, 2014

साहित्य में जब वेदना के वोट बैंक की तलाश हुयी तो ...

" शोक से श्लोक बना ...संवेदना से साहित्य ...साहित्य में जब वेदना के वोट बैंक की तलाश हुयी तो साहित्य के तम्बू उग आये ...वामपंथी साहित्य के तम्बू में निंदा और नारे पाले-पोसे गए तो दक्षिणपंथी साहित्य स्तुति की प्रस्तुति में तल्लीन था ... जिसके पास जो नहीं होता है उसे वह पसन्द होता है ...जिसका अभाव होता है उसीका प्रभाव होता है ...अभाव भी एक तरह का प्रभाव है सो कायर समाज में वीर रस का साहित्य पसन्द किया गया ...जो लोग दैहिक रोमान्स करने की उम्र गँवा चुके थे वह वैचारिक रोमान्स में लग गए इसी लिए अधेड़ों / प्रौढ़ों को रोमांटिक साहित्य ने गुदगुदाया ...यही सामाजिक मनोविज्ञान की खेमेबंदी ....यही साहित्यिक कोष्ठकों के निरंतर बढ़ते प्राचीर ...यही शिक्षा, संस्कारों, अनुभूतियों की असमानताए ...यही मानवीय वेदनाओं का विभाजित होना वह कारण हैं कि आज तक साहित्य का सर्वमान्य मानकीकरण नहीं हो सका है ...साहित्य सदैव एक पक्षीय होता है फिर भला निष्पक्ष कैसे हो सकता है ? ...गूलर के भुनगे और कोलम्बस के बीच शास्त्रार्थ जैसे इस परिदृश्य में हम सभी अपनी -अपनी सुविधानुसार कभी कोलम्बस का गुटका  संस्करण बन और कभी गूलर के भुनगे का गुटका संस्करण बन समाज का नहीं केवल अपना प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और अपनी ही पक्षधरता की बहसों को साहित्य मानने और मनवाने पर तुले हैं ...मूर्ख जन्मजात आत्मविश्वास से ओतप्रोत होता है और विद्वान् को उस दर्जे का आत्मविश्वास पाने के लिए बड़ी लम्बी साधना करनी पड़ती है . "
"आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन ,
गूलर के भुनगों की दुनियाँ
कोलम्बस की भूल के आगे नतमस्तक है
."---- राजीव चतुर्वेदी   
(कोलम्बस की भूल = अमेरिका)