Saturday, August 15, 2015

भारत बोल रहा है ...पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा



"भारत बोल रहा है ...
भारत आज़ादी से अब तक बोल रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा . रोशनी, रास्ते, राशन और रोजगार पर इण्डिया का कब्ज़ा है और ग्रामीण भारत असहाय अँधेरे में चीख रहा है ...ग्रामीण भारत में अँधेरा है और शहरी इण्डिया सोडियम लाईट में सुनहरा दिख रहा है . भारत बोल रहा है ...चीख रहा है ...कराह रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ...भारत हिन्दी /तमिल /तेलगू /मलयालयी /असमिया /बांग्ला / गुजराती /उड़िया /मणिपुरी में बोल रहा है और इण्डिया अंगरेजी में सुन रहा है ...भारत का जन -गण-मन
अपनी भाषाओं में न्याय की गुहार करता है तो इण्डिया के वकील उसे अंगरेजी में लिखते , इण्डिया के जज उसे अंगरेजी में समझते और फैसला देते हैं ...भारत में न्याय की भाषा इण्डिया की अंगरेजी है ... भारत में अर्थ शास्त्र /बजट की भाषा इण्डिया की अंगरेजी है ...भारत के जन -गण-मन से वोट माँगा जाता है देसी भाषाओं में और फिर इंडिया राज्य चलाता है अंगरेजी भाषा में ... भारत के बच्चे गाँव देहात के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और इंडिया के बच्चे अभिजात्य अंगरेजी स्कूलों में ...भारत बोल रहा है कि सामान शिक्षा दो पर इण्डिया की चुप्पी है ...भारत के लोग सरकारी अस्पताल में इलाज करवाते हैं और इण्डिया के लोग नर्सिंग होम में ...भारत के लोग सेना में भारती होते है और पाकिस्तान से युद्ध लड़ते हैं और इण्डिया के लोग IPL से जुड़ते हैं और भारत -पाकिस्तान क्रिकेट का मजा लेते हैं ... भारत बोल रहा है कि बेरोजगारी बड़ी समस्या है ...जन चिकित्सा स्तरहीन है ...न्याय सस्ता और समय पर उपलब्ध नहीं है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ...इण्डिया की संसद में गत 67 सालों में बेरोजगारी पर अब तक कुल मिला कर 2 घंटे 48 मिनट ही बहस हुयी है , जन चिकित्सा पर 18 घंटे , सामान शिक्षा पर 3 घंटे 16 मिनट और सस्ते सुलभ न्याय पर 16 घंटे 24 मिनट ही चर्चा हुयी है ( श्रोत -- लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा की रिपोर्ट रिवाइज्ड )...बहरहाल भारत आज़ादी से अब तक बोल रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, August 2, 2015

मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?

"विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?


समुद्र मंथनों का मेहनताना मैंने सुरा और सुन्दरी माँगी नहीं थी
सुख तेरे थे, शहर तेरा था, जज्वात मेरे ,जहर मेरा था
बिजलियों की चौंध में जो अँधेरा था वह घर मेरा था
लक्ष्मी की हूक तेरी थी, भूख मेरी थी
एक बंटवारा था न्यारा जिसमें हर सुख तेरा दुःख मेरा था


तुम्हारी कोशिशों के बाद भी मैं शव नहीं था इस लिए शिव कहा तुमने
समय के साथ बढ़ता वंश तेरा साँप सा हर दंश मेरा था


जब भी तुम कभी मेरे मंदिर को आते हो
जानता हूँ तुम जहर भर भर के लाते हो
मैं नहीं मंदिर के अन्दर, जी रहा हूँ तेरे अन्दर घुट घुट के
सोचता हूँ इस शहर में मैं कब तक जी सकूंगा ?
इस जहर को कब तलक मैं पी सकूंगा ?


चलो जाओ यहाँ से जहर फैला के फिर कभी मंदिर के अन्दर नहीं आना
मरीचिका से मोहब्बत है तुम्हें तो सत्य से फिर वास्ता कैसा ?
जहर ले कर चले हो तो मंदिरों का रास्ता कैसा ?


विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?
"
----- राजीव चतुर्वेदी