Thursday, January 31, 2013

राष्ट्र के प्रतीकों को तोड़ कर आसान किश्तों में हमने राष्ट्र को तोड़ा है

"पुराने नायकों की प्रतीक प्रतिमा हमने तोड़ दी और नए नायक हम पर हैं नहीं अब युवा प्रेरणा किससे ले ? ...शाहरुख खान या सचिन से ? ...नायक समाज का कुतुबनुमा होता है ...नायकों की प्रतिमा /छवि टूटने के साथ ही हमारा कुतुबनुमा भी टूट गया ...आज हम दिशाहीन से खड़े हैं ...वास्तविक नायक सदैव राजनीति से आते हैं ...शंकर, राम, कृष्ण, मुहम्मद , ईसा ...भारत गुलाम था संघर्ष की राजनीतिक प्रक्रिया में नायकों का उदय हुआ लक्ष्मी बाई ,तात्याँ टोपे, नाना फडनवीस, मंगल पाण्डेय, ऊधम सिंह, भगत सिंह ,सुभाष, चन्द्र शेखर आज़ाद, दादा भाई नौरोजी, वर्दोलाई जैसे नायकों का उदय हुआ ...इनमें एक महानायक उदित हुआ महात्मा गांधी तो हम ने ही उसकी ह्त्या कर दी ...गांधी की ह्त्या आज़ाद भारत की पहली आतंकवादी घटना थी और जो तर्क गाँधी जी की ह्त्या के दिए गए उनके अनुसार अगर मारना था तो मारते जिन्ना को ...पर जिन्ना नहीं गाँधी को को मार कर देश का उस समय का सबसे बड़ा प्रतीक तोड़ दिया गया, वह भी स्वदेशी का नारा देने वाले को विदेशी पिस्तौल से मार कर ...अहिंसा के नारे को हिंसा से बुझा कर ...गाँधी मरने के बाद भी प्रतीक प्रतिमा के रूप में समाज और राजनीति को दिशा देता रहा तो वामपंथियों ने उसकी तश्वीर पर भगत सिंह की तश्वीर दे मारी ...अभी भी गाँधी की तश्वीर पूरी तरह हमारे जहन में टूटी नहीं थी तो आंबेडकर की तश्वीर दे मारी ...शेष बची तश्वीर की किरचों पर सुभाष की तश्वीर दे मारी ...हमने सभी की प्रतिमाएं तोड़ डालीं ...सारे कुतुबनुमा तोड़ दिए ...इस्लाम मूर्तियाँ तोड़ कर संस्कृति तोड़ता है इसी लिए बुतशिकन यानी मूर्ती भंजक है ...भारत को पहले मुगलों ने गुलाम बनाया और मूर्ति  भंजन का दौर चला … चुन-चुन कर प्रतीक तोड़े गए ...मुगलों को अंग्रेजों ने गुलाम बनाया तो मुगलों का अतीत बनाम अंग्रेजों के प्रतीक का दुआर चला ...जब आज़ाद हुए तो हमको फिर से गुलाम बनाने की चुनौती मुगलों और अंग्रेजों के सामने थी और हम उनके इस षड्यंत्र में जाने अनजाने शामिल हो गए ...आज हमारे पास कोई राष्ट्र नायक प्रतीक प्रतिमा (व्यक्तित्व ) नहीं है ....राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का ध्रुवीकरण होना बहुत जरूरी है ...प्रतीक प्रतिमा के अभाव में देश का युवा टूटा कुतुबनुमा लिए दिशाहीन सा भटक रहा है ...उसे कभी अन्ना ,कभी केजरीवाल ,कभी राम देव के हाथों गांधी की टिमटिमाती लौ जल कर फिर मसाल बनती दिखती तो है पर बनती नहीं है ....असली प्रतीकों के अभाव में फर्जी प्रतीक गढ़े और मढ़े जा रहे हैं ...किसी भी राष्ट्र को तोड़ने के लिए आवश्यक है उसके प्रतीकों को तोड़ना ...भारत में मूर्ति भंजक मुसलमानों ने यह किया तो गांधी की ह्त्या कर अति हिंदूवादी संगठनों ने भी वही किया .....आज इस राष्ट्र पर कोई प्रतीक प्रतिमा नहीं है ...राष्ट्र के प्रतीकों को तोड़ कर आसान किश्तों में हमने राष्ट्र को तोड़ा है ....इसके पहले हम फिर से गुलाम बने हमको अपने प्रतीकों पर ध्रुवीकरण करना होगा . भारत में प्रतीकों  अभाव  नहीं है प्रतीकों से प्रेरणा लेने के प्रयासों का अभाव है। " -----राजीव चतुर्वेदी

धर्म नैतिकता का व्याकरण बनने के उद्देश्य से भटक कर राजनीति का उपकरण बन चुका है

"धर्म सत्ता स्थापित करने का गैर राजनीति उपकरण जब -जब और जहां-जहां बना संस्कृत विकृति हो ही गयी ...संस्कृति छद्म और पाखण्ड से परे एक सात्विक परम्परा होती है ...वैदिक युग के बाद त्रेता में राम के नेतृत्व में धर्म और राजनीति का घाल मेल हुआ परिणाम सामने आया ...जर (आधिपत्य ), जोरू (पत्नी ) और जमीन के विवादों का वहिरुत्पाद "आध्यात्म " कहा जाने लगा ...यही द्वापर में दोहराया गया और जर /जोरू /जमीन के विवाद में महाभारत हुआ एक बार फिर भौतिक वस्तुओं के कब्जे के विवाद का बहिरुत्पाद अध्यात्म ही बना ...मोहम्मद साहब और मोबीन का धार्मिक बनाम राजनीतिक वर्चस्व का विवाद कर्बला से गुजर कर बिन लादेन और तालिबान तक जारी है ...सूली पर टंगे ईसा के अनुयायीयों ने तो पूरी दुनिया को ही सूली पर टांग दिया जिस पर गैलीलियो की ह्त्या का कलंक और कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है . राजनीतिक शासकों ने धर्म को अपना उपकरण बनाया और युद्ध का जोखिम कम से कम कर उन्होंने धर्म की आड़ में अपना शासन स्थापित रखा ...राजनीति ने धर्म को अपने मंतव्यों में इस्तेमाल करना जान लिया ...धर्म को अपना उपकरण बनाना सीख लिया ...धर्म का काम था जन कल्याण फिर इसमें द्वंद्व कैसा ? ...जन कल्याण करने की मंशा में जंग कैसी ? ...और जब जंग नहीं ...युद्ध नहीं तो हार जीत कैसी ? ...किन्तु अब "धर्म" राजनीति की गोट बन चुका था और गोट की नियति है पिटना ...राजनीति की गोट बना धर्म पिटने लगा ...मुग़ल आये और भारतीय राजाओं की मूंछ उखाड़ कर ले गए फिर ईसाई आए तो उन्होंने मुग़ल बादशाहों की दाढी उखाड़ ली ...ईसाईयों के हाथों एशिया के तमाम देशों में मुगलों की दाढी उखाड़ी गयी जिससे छुब्ध मुगलों ने नयी मजहबी सेना का गठन किया यह मजहबी तालीम लेने वाले तालिबानों (विद्यार्थीयों ) की सेना थी ...चाहे न चाहे धर्म राजनीति की गोट बन चुका था और धार्मिक विद्यालय /मदरसे /स्कूल नए राजनीतिक कार्यकर्ता ढालने के कारखाने बन चुके थे ...अंग्रेजों या यों कहें कि ईसाईयों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई भी वही लोग लड़ पाए जो ऑक्सफ़ोर्ड /कैम्ब्रिज के पढ़े थे गांधी ,सुभाष,नेहरू, जिन्ना, सावरकर आदि और उसके बाद की पीढी में राजीव गांधी और बेनजीर भुट्टो की परम्परा ...इस बात को मदन मोहन मालवीय ने पहचाना तो काशी हिन्दू विश्व विद्यालय आया, सर सयीयद ने पहचाना तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय आया ...आर्य समाज विद्यालय आये तो इस्लामिया भी आये ,सरस्वती शिशु मंदिर भी खुले ...खालसा स्कूल भी खुले पर अब तक विश्व में ईसाई राजनीति धर्म का इस्तेमाल करने में कुशल हो चुकी थी ...उन्होंने हिन्दूओं को मुसलमानों से ऐसा लड़ाया कि ईसाईयों से लड़ने की उनको फुर्सत ही नहीं रही ...ईसाईयों ने राजनीती के माध्यम से स्कूल स्थापित किये और चर्च के माध्यम से चलाये ...इन स्कूलों को उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्य संस्कृति को स्थापित करने के लिए बखूबी इस्तेमाल किया ...और आज हम सभी इनके गुलाम हैं . क्या कभी आपने सोचा है कि ऋग वेद के दर्शन के बाद भारतीय हिदू समाज क्यों पतनोन्मुख हो गया ? ...त्रेता में और पतन हुआ ...द्वापर में और अधिक पतन हुआ ...नेहरू -वीपी सिंह, अटल, लालू -मुलायम-मायाबती के दौर के कलयुग में और अधिक पतन हुआ ...श्रेष्ठ जनों का सृजन ही बंद हो गया --क्यों ? ...कुरआन के अस्तित्व में आने के बाद फिर दूसरा मुहम्मद नहीं पैदा हो सका और बाइबिल बांचते लोग दूसरा ईसा मसीह नहीं पैदा कर सके --क्यों ? दरअसल धर्म नैतिकता का व्याकरण बनने के उद्देश्य से भटक कर राजनीति का उपकरण बन चुका है जहां कार्यकर्ता /गुलाम ढालने के कारगर कारखाने स्कूल/गुरुकुल/मदरसों/मंदिर /मस्जिद /चर्चों के स्वरुप में चल रहे थे और यही कारण हैं कि आज सभी "धर्म" बाँझ हो चुके हैं अब इन धर्मों की सांस्कृतिक कोख से राम -कृष्ण नहीं पैदा होंगे ...मुहम्मद नहीं पैदा होंगे ...ईसा मसीह नहीं पैदा होंगे ...अब पैदा होंगे बिन लादेन और तोगडिया जैसे लोग ...अंकल सैम जैसे चरित्र."----राजीव चतुर्वेदी

Monday, January 28, 2013

कविता उसके पार खडी है लुप्तप्राय सी

"प्यार के माने
हमारे और ...तेरे और हैं
इसलिए प्यार मेरे यार मैं लिखता नहीं
स्नेह यदि स्वीकार हो सत्कार कर लेना
स्नेह के उस पार देह की दहलीज पर प्यार के दीपक जो जलते हैं वहां
उस शहर से दूर
चलती हैं जो मध्यम सी हवाएँ हांफती सी
फुसफुसाती हैं स्नेह के सात्विक से संस्कारों को
प्यार वह कहते हैं यहाँ देह दर्शन के नए अविष्कारों को
चला जाता हूँ तेरे प्यार की दुनिया से अपने स्नेह की शरहद पर
प्यार की नदिया में तैरी नाव तेरी है
प्यार की कशमकश में डूबीती हर कश्ती भी तुम्हारी है
शब्दकोशों से बोझल सा तुम्हारा ज्ञान
और मैं तो आत्मा की अनुभूति का पर्याय लिखता हूँ
प्यार मेरे यार भावना की भौतिकी है
और मेरा स्नेह आत्मा का शेष सा सारांश लिखता है
शब्द सीमित हैं असीमित भावना विस्तार लेती है
कविता वह नहीं होती जो लिखी जाती है शब्दों से
कविता दूर होती है
शब्द संकेत करते हैं जहां उस ओर देखो  
अंतर्मन के कोलाहल के आर्तनाद सी
मन की पगडंडी पर शब्दों की शातिर झाड़ी से दूर 
धरा की धूल ...धुएं की लय पर शब्देतर सा आभाष जहाँ होता है
कविता उसके पार खडी है लुप्तप्राय सी ." -----राजीव चतुर्वेदी 

Monday, January 21, 2013

यदि सच न बोलने की और सच न स्वीकारने की गीता /कुरआन /बाइबिल या संविधान की कसम खा रखी है तो दीगर बात है ...

"यदि सच न बोलने की और सच न स्वीकारने की गीता /कुरआन /बाइबिल या संविधान की कसम खा रखी है तो दीगर बात है ...अगर साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखने की कसम खा राखी है तो दीगर बात है ... वरना क्या यह गलत है कि बाबरी मस्जिद ढहाई जाने से पहले औरंगजेब ने 6000 से भी अधिक हिन्दू मंदिर नहीं तोड़े ?...क्या यह गलत है कि इस्लाम कबूल करने से मना करने पर कई सिख हिन्दुओं के सर कलम करवाए गए ? क्या यह गलत है कि अकेले जम्मू-कश्मीर में गुजरे सालों में 210 से भी अधिक मंदिर तोड़े गए ? ...क्या यह गलत है कि जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को अपनी औरते छोड़ कर पलायन कर जाने के धमकी भरे पोस्टर हिन्दुओं के घर पर मुसलमान आतंकवादीयों ने नहीं लगाए ? ...क्या यह गलत है कि लाखों कश्मीरी हिन्दू मुसलमान आतंकियों की वजह से जम्मू -कश्मीर से बेघर होकर देश के अन्य प्रान्तों में शरणार्थी है ?...क्या यह गलत है कि जम्मू -कश्मीर में सामान्य दिन तो छोड़ दो स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी मुसलमान आतंकवादी तिरंगा नहीं फहराने देते ?... क्या यह गलत है कि हिन्दुओं को अपने ही देश में अपने आस्था के तीर्थ अमरनाथ दर्शन करने के लिए मुसलमान आतंकियों के हाथो बड़ी संख्या में सामूहिक क़त्ल-ए-आम का शिकार नहीं होना पड़ता ? ...क्या यह गलत है कि हिन्दुओं को अमरनाथ और वैष्णव देवी के दर्शन के लिए जज़िया नहीं देना पड़ता ? ...क्या यह गलत है कि मुसलमानों को हज यात्रा के लिए जो सब्सिडी दी जाती है उसके लिए भी धन जुटाने के लिए हिन्दुओं से भी टैक्स की उगाही होती है ? ...क्या यह गलत है कि गुजरात के चर्चित दंगों की शुरुआत गोधरा में रेल से यात्रा कर रहे 65 हिन्दू तीर्थ यात्रियों को मुसलमानों द्वारा ज़िंदा जला देने पर हुयी थी ? ...क्या यह गलत है कि मुहम्मद साहब के द्वारा स्थापित मस्जिद चरार-ए-शरीफ को एक मुसलमान आतंकी मस्तगुल ने जला कर राख कर दिया तो मुसलमान चुप रहे ? ...क्या यह गलत है कि राम जन्मभूमि (अयोध्या ) और कृष्ण जन्मभूमि (मथुरा ) पर मस्जिद नहीं बनाईं गईं ? ...क्या यह गलत है कि इस विराट भू-भाग और क्षेत्रफल वाले इस देश में मस्जिद बनाने के लिए जगह की कमी तो थी नहीं ? ...क्या यह गलत है कि कभी हिन्दुओं ने किसी मस्जिद को तोड़ कर कहीं मंदिरनहीं बनाया ? ...क्या यह गलत है कि ईसाईयों ने भी कभी कोई मंदिर या मस्जिद तोड़ कर चर्च नहीं बनाया ? ...क्या यह गलत है कि इस देश में जब और जहां-जहां मुसलमानों का राज्य था वहाँ हजारों मन्दिर तोड़े गए ...आज़ादी के बाद इस देश में जम्मू -कश्मीर में 200 से भी अधिक मंदिर तोड़े गए जबकि गुजरात में गोधरा काण्ड के बाद भड़की प्रति हिंसा में भी एक भी मस्जिद नहीं तोडी गयी ? ...क्या यह गलत है कि गुजरात में गोधरा में हिन्दू तीर्थ यात्रियों को ज़िंदा जलाने के बाद भड़की प्रति हिंसा में भी कोई मस्जिद नहीं तोड़ी गयी ?...क्या यह गलत है कि हिन्दुओं द्वारा बाबरी मस्जिद तोड़े जाने से पहले देश के विभिन्न हिस्सों में मुसलमान हजारों मंदिर तोड़ चुके थे ? ...क्या यह गलत है कि एक बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना हजारों मन्दिरों के तोड़े जाने से उत्पन्न प्रति हिंसा थी ? ...क्या यह गलत है कि गुजरात के दंगे गोधरा काण्ड से शुरू हुए थे और वह गोधरा में ज़िंदा गए 65 हिन्दुओं की घटना से उत्पन्न प्रति हिंसा थी ? ...अगर मुसलमानों का आतंकवाद यों ही जारी रहा और वोट बैंक की लालच में राजनीति ने साम्प्रदायिकता को कानी आँख से देखा तो प्रति हिंसा और प्रति आतंकवाद होना तय है ...जब सह अस्तित्व के सारे प्रयास असफल हो जाएँगे तो लोग सरकार से शिकायत करेंगे और जब सरकार भी असहिष्णु होगी तो प्रति हिंसा होगी ... मुसलमान आतंकवाद की हिंसा से घायल राष्ट्र चीख रहा है ...यह चीख ...यह न्याय की गुहार ...यह शान्ति की अपील ...यह सर्व धर्म समभाव की अपेक्षा अगर सरकार ने अब नहीं सुनी तो "प्रति हिंसा/ प्रति आतंकवाद" के अलावा और कोई उपाय नहीं है " ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, January 18, 2013

मशाल के विरुद्ध बीड़ी ने आरक्षण की मांग की है

"मशाल के विरुद्ध बीड़ी और अगरबत्ती ने आरक्षण की मांग की है। कोयल की कुलीनता पर संदेह व्यक्त करते हुए कुछ कौओं ने गायन में आरक्षण की फरमाइश की है। डिस्टिल वाटर हो या ग्लूकोज उसमें नाले के पानी को आरक्षण देते हुए मिलाना होगा। बारूद में भूसे को आरक्षण दे कर देश की रक्षा के लिए बम बनाया जायेगा। एक बहन जी बतख ने कहा है कि वह हंस का कांसीराम संस्करण है ...हंसिये नहीं -- यह भारतीय राजनीति का व्याकरण है।. " ---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, January 16, 2013

शब्द सहम के सो जाते हैं सन्नाटे में

"शब्द सहम के सो जाते हैं सन्नाटे में ,
पदचाप सुनायी देती हैं कातिल सी
कुछ अंगारे जो सूरज से छलके थे
कुछ कहते थे
और अगरबत्ती कुछ सहमी सी जलती थी मेरे आँगन में
मैं निकला था उन दरवाजों से ...फिर वापस गया नहीं
माथे पर तिलक, मांग के सिंदूरों का सच समझो
जीवन के लम्बे से रस्तों पर सप्तपदी का सच है कैसे हांफ रहा
परिभाषा की तेज हवा में सच का दीपक काँप रहा
परिभाषा की परिधि,... प्यार की अवधि
,
संकल्पों की सांकल लिए विकल्पों के दरवाजे
रस्तों पर दो कदम चले, फिर सहम गए वह रिश्ते सारे
खो गए कहीं अब ख़्वाबों में
जब श्रद्धा भी शेष नहीं तो श्राद्ध हमारा मत करना
उन तारों में खो जाऊंगा
तुम देर रात को छत पर आकर
मुझसे बात किया करना
." ----- राजीव चतुर्वेदी

कुछ ने समझा शब्दों का पथराव करो तो संस्कृति बनती है

"कुछ ने समझा शब्दों का पथराव करो तो संस्कृति बनती है
मैं भी फिर गुम्मेबाजी शामिल था
कुछ शब्द गिरे तो सर फूटा
कुछ शब्द गिरे तो दिल टूटा
कुछ शब्द गिरे अरमानो पर
कुछ शब्द गिरे वीरानो पर
कुछ धर्मों पर भी गिरे यहाँ
कुछ कर्मों पर भी गिरे यहाँ
कुछ शब्द हवा में उछले थे जा टकराए वह सिद्धांतों से
कुछ शब्द बहस में भटके तो जा टकराए वह वेदान्तों से
कुछ पुराण से टकराए
कुछ कुरआन से टकराए
कुछ समाज के प्रावधान से टकराए
कुछ संविधान से टकराए
कुछ मनुवादी थे ...कुछ अवसरवादी
कुछ प्रगतिशील ...कुछ पूंजीवादी
अवसरवादी के हाथ चले यह सब गुम्मे
चलते -चलते पूरी आबादी से टकराए
अब संस्कृतियों के कायल हम घायल से बैठे हैं
संस्कृतियों के संघर्षों में ...परिभाषाओं के बलवे में,... शब्दों के मलवे में
हम घायल से बैठे हैं, ---कोई दवा करो
पर शब्द हमारे मत मलना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, January 15, 2013

अँधेरे में माचिश की तरह तुम ढाढस बंधाते ही रहे

"अँधेरे में माचिश की तरह तुम ढाढस बंधाते ही रहे ,
मौत को साथ लिए हम गुजर जायेंगे जिन्दगी की तरह .
तुम नयी पीढी के थे परिंदों से उड़े, दरिंदों से जिए
जिन्दगी की शाम फिर पेड़ों पे तुम लौट आये
मैं खडा हूँ तब तलक महफूज़ है यह घोंसला और हौसला तेरा
वक्त में गहरी हैं जड़ें मेरी और खडा हूँ एक बरगद की तरह .
ख्वाब सोने पे आते हैं ,खबर अब तैरती हैं खून में, ख्वाहिशें खैरात की तरह .
ये अजीब लोग हैं, अजीब भीड़ है, आन्दोलनो में भी आये हैं बरात की तरह .
अस्त होते सूर्य का भी तस्करा अब रात में है
बहती हवाओं में यों तो पतंगे उड़ रही हैं
कब बदल देंगी दिशाएँ हवा के हालात में है
ख्वाब सोने पे आते हैं ,खबर अब तैरती हैं खून में, ख्वाहिशें खैरात की तरह .
ये अजीब लोग हैं, अजीब भीड़ है, आन्दोलनो में भी आये हैं बरात की तरह .
अँधेरे में माचिश की तरह तुम ढाढस बंधाते ही रहे ,
मौत को साथ लिए हम गुजर जायेंगे जिन्दगी की तरह .
तुम नयी पीढी के थे परिंदों से उड़े, दरिंदों से जिए
जिन्दगी की शाम फिर पेड़ों पे तुम लौट आये
मैं खडा हूँ तब तलक महफूज़ है यह घोंसला और हौसला तेरा
वक्त में गहरी हैं जड़ें मेरी और खडा हूँ एक बरगद की तरह .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, January 13, 2013

कभी अभिमन्यु ...कभी हुसैन की तरह

"मेरे शब्दों का क़त्ल
इसी मजहबी झाडी की आड़ से किया था तुमने
मेरे शब्द तड़फते रहे थे
मेरे शब्दों की गोद में एक छोटे बच्चे सा दुबका हुआ
मासूम सा सच भी था
कभी अभिमन्यु कभी हुसैन की तरह
कभी दुर्योधन कभी यजीद नामजद भी हुए थे
पर भगवान् के भी खेमे थे ...अल्लाह की भी सरहदें थीं
और दर्द की आवाजें अनहदें थीं
हम कातर लोग जब क़त्ल होते हुए अंतिम समय में तड़फते हैं
तो अल्लाह की भाषा में वह हलाल होता है
क़ानून की नज़र में वह हराम होता है
यह दीगर बात है कि
अल्लाह के लिए हर हलाल पर मानवता को मलाल होता है 
गाँधारी की ही तरह आयशा भी अय्यास की अय्यासी पर रोई होगी
हर सच से मजहब का सीमित सा सरोकार होता है
कातिलों का एक खेमा हर मजहब के शामियाने में सोता है
फर्क क्या पड़ता है
कि क़त्ल हो चुके अभिमन्यु की लाश पर कोई उत्तरा जैसा रोता है
या किसी वक्त की किसी कर्बला में
हुसैन की शहादत पर फातिमा का क्या होता है   
यह मजहब है शंखनाद से शुरू और सूफियान पर ख़त्म होता है
आयशा की बेटियों में फाहिशा कहाँ से आयीं ये भी बतलाओ
देवदासी की उदासी का भी सबब मुझे समझाओ
कबीलों के क़ानून और खुदगर्जी के खुदा से सच की शिनाख्त मत करना
मर चुके हो तुम बार -बार अबकी बार मत मरना
बात जब सच की हो तो खुदा कौन ?..भगवान्  कैसा ??
भगवान् हों मेरे या तेरा खुदा
इनकी सनद का मोहताज सच है कैसे बता ?
सच का  चश्मा लगाओ फिर शिनाख्त करो
मजहबी झाड़ी की आड़ में बैठे हुए गिरोहों में
कुछ कातिल तो तेरे हैं ...कुछ कातिल तो मेरे हैं
मेरे शब्दों का क़त्ल
इसी मजहबी झाडी की आड़ से किया था तुमने
मेरे शब्द तड़फते रहे थे
मेरे शब्दों की गोद में एक छोटे बच्चे सा दुबका हुआ
मासूम सा सच भी था
कभी अभिमन्यु कभी हुसैन की तरह .
" ------ राजीव चतुर्वेदी


अतीत टकराता है आईने से... टूट जाता है

"अतीत टकराता है आईने से
टूट जाता है ,
यह दौर ऐसा है यहाँ प्यार भी एक प्रश्न है
पीछे छूट जाता है
वर्तमान नया सामान है
उस पर सलवटें कहाँ होंगी ?
ये भोगवादी पीढी है
भूख से करवटें कहाँ होंगी ?
भविष्य के सपने लिए शहर में गुमनाम हुए
अपनी दुनिया में व्यक्ति नहीं सामान हुए
याद की हिचकी तो कलेजे से मुंह तक आती है
पर बीच में अटकी है टाई की गाँठ
फ़्लैट किश्तों में खरीदा और किश्तों में ही कार
यहाँ प्यार भी किश्तों में खरिद जाता है
किश्तों से अभिशिप्त हमारी यह पीढी रिश्तों का रास्ता भूल गयी
किश्तों की कश्ती पर बैठ कर इस दरिया से हम पार हुए
यह दरिया शहर का नज़रिया है
यहाँ गाँव बहुत पीछे छूट जाता है
पुरखों का प्यार तो समंदर है
याद का सैलाब चला
किनारे तक आ के लौट जाता है
शहर शातिर है यहाँ बेटे को खो-खो कर
सो चुके सपनो को
खो चुके अपनों को
गाँव याद आता है
जिन्दगी की शाम सुबकती स्मृतियों का
यही शेष बचा नाता है ."
-----राजीव चतुर्वेदी

Saturday, January 12, 2013

चीख लेने दो मुझे इस रात

"चीख लेने दो मुझे इस रात
फिर मर जाऊंगा
चरागों का धुंआ कुछ लिख गया
लाचार मौसम की सहम कर बह रही
बहकी सी हवाओं पर
बादल की रजाई ओढ़ ली है रात ने
सुबह सूरज छत से उतर कर आँगन में जब आ जाए
गेंदे जल उठेंगे
रातरानी बुझ रही होगी  
तुलसी का पत्ता तोड़ कर तुम ओढ़ लेना धूप को 
पलकों में दफ़न जब याद मेरी छलक जायेगी
तो वह रिश्ता बह उठेगा जो कभी ठहरा नहीं था तेरे जीवन में
जो मैं कह नहीं पाया कभी वह रिश्ता बह गया है तेरी आँखों से
नमी तस्दीक करती है
गमी तायीद करती है
मैं मर कर जी गया
तुम जी कर मर गये
सफ़र में साथ देता है कौन ?
बादलों की छाँव जैसे साथ में
हमसफ़र किसको कहूँ ?
चीख लेने दो मुझे इस रात
फिर मर जाऊंगा
चरागों का धुंआ कुछ लिख गया
लाचार मौसम की सहम कर बह रही
बहकी सी हवाओं पर .
"    ---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, January 11, 2013

वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है

"वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है ,
और रिश्ते मर गए हैं सच के सदमें से  
बोझिल सी रातों में सर्द से हालात सा मेरा वजूद
छल चुके अहसास को ओढ़े है इक रजाई सा
और वह दस्तावेज़ जिसके जर्द से पन्ने जरूरत बन चुके हैं
उस पर दर्ज वह दस्तखत गुजरे जमाने की लिखी भाषा है
कौन पढता है उसे ?
जिन्दगी यदि लेखपालों की बही का खसरा है
जिन्दगी यदि दर्द बेंचते शायर का मिसरा है
जिन्दगी यदि पोस्ट मार्टम में दर्ज मेरा बिसरा है
जिन्दगी तेरी है ...तू रख ले इसे
वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है
आज इसमें दर्ज कर दे मेरी भी शहादत
रूह भी रुखसत हो रही है रवानगी की रस्म पूरी कर 
ये दुनिया तेरी है तो मेरी हो नहीं सकती
मैं जाता हूँ
वो चमचे और होंगे
जो जिन्दगी के लिए करते थे तेरी बंदगी
वो कायर ...वो शायर ...वो पण्डे मौलवी कितने
ये दुनिया गर तेरी जमींदारी है तो चला जाता हूँ मैं
तू खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ
तू ईश्वर  है तो आकार मैं भी हूँ
तुझे दंभ है इतना तो दमदार मैं भी हूँ   
मैं जाता हूँ ...तह कर के रख ले अपना आसमान ऊपर वाले
जमीन तेरी है तो तू अपने पास रखले
जिन्दगी मेरी गर समझता है कि तेरी ही अमानत है तो रख ले तू यहाँ 
मैं खाली हाथ आया था
मैं खाली हाथ जाता हूँ
जिया था हनक के साथ
मरूँगा खनक के साथ
खनक के साथ एक खामियाजा छोड़ जाऊंगा
पर याद रख
इसलिए जीने का हक़ है मुझे
क्योंकि मैं मरना जानता हूँ
वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

सर कटी वह लाश ज़िंदा है ...वो तेरी है ...वो मेरी है...

"संसदीय सूरमाई का सबूत अब है यही
ताबूत में लेटा सर कटा शव एक सैनिक का ,
देश का अपमान जो ये झेल सकते हैं
दुश्मनों के साथ क्रिकेट खेल सकते हैं
सब जानते हैं किसी नेता, किसी अभिनेता
किसी घूसखोर अफसर का बेटा सेना में नहीं होता
जो मरता है वतन के नाम उसका बड़ा वेतन भी नहीं होता
किसानो के ये बेटे तो निशानों पर ही रहते हैं
इन्हीं की दम से हम देश में खाते और रहते हैं
आज सर काटा शव एक सैनिक का सन्देश है इस दे
श को
या तो पाकिस्तान को कब्रिस्तान बना डालो
और देश में घुस आये दहशतगर्द साँपों के फन को कुचल डालो
वरना इस सरकार को अधिकार क्या है राज्य करने का
और जो देश के अन्दर छिपे गद्दार बैठे हैं
साथ में सरकार के सरदार बैठे हैं
इन्ही का सर हर एक नागरिक के निशाने पर यहाँ होगा
यही श्रद्धांजली होगी शहीदों को
वतन पे मरने वालों को अब हमको देना अपना इम्तहान होगा
पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्तों को अब ये पैगाम भी दे दो
कुछ सर इनके भी काटो कब्रिस्तान में जगह दे दो
जो रोती है आज शव पर सैनिक की वो माँ अपनी भी तो माँ ही है
उसके आंसुओं में अक्स देखो ...आईना देखो तुम्हारे सर नहीं है
सर कटी वह लाश ज़िंदा है ...वो तेरी है ...वो मेरी है
पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्तों को अब ये पैगाम भी दे दो
कुछ सर इनके भी काटो कब्रिस्तान में जगह दे दो .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, January 8, 2013

न अल्लाह का है न राम का है जो भी बना है हमारे काम का है

"हम अगर अरब जायेंगे
तो अल्लाह का एहतराम करेंगे
तुम भारत में रहो तो हमसे राम -राम कहना
बाकी न अल्लाह का है न राम का है
यहाँ जो भी बना है हमारे काम का है
यह सड़क
यह स्कूल , यह इमारत , यह इबारत
यह संसद , यह पुल ,यह अदालत
यह दूर तलक उड़ते जहाज
बैंक, दफ्तर, अस्पताल ,  
यहाँ जो भी बना है हमारे काम का है
न अल्लाह का है न राम का है
यह तो इस देश के आवाम का है
मजहब से कहो अपनी हदों में रहे
अगर किसी और देश में बसती है तेरी बेचैनी
तो उससे कह दो कि अपनी सरहद में रहे
हम अगर अरब जायेंगे
तो अल्लाह का एहतराम करेंगे
तुम भारत में रहो तो हमसे राम -राम कहना
बाकी न अल्लाह का है न राम का है
यह तो इस देश के आवाम का है .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

Monday, January 7, 2013

कौन परिवार के बुजुर्ग और कौन आवारा लड़के की तरह









"कौन परिवार के बुजुर्ग की तरह नसीहत दे रहा है और कौन आवारा लड़के की तरह बिना बात आतंकवाद की धमकी दे रहा है देखिये ---
वरिष्ठ कवि गोपाल दास 'नीरज ' आतंकवादियों को बड़े बुजुर्ग की तरह समझाते हुए कहते हैं --
"आग ले कर हाथ में पगले डराता है किसे ?
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जाएगा ?
" ---नीरज

शायर राहत इन्दौरी मुसलमान आतंकवादीयों को भड़काते हुए मुसलमानों की तरफ से देश को धमकी देते हुए कहते हैं ---
  "अगर यह पांच वक्तों के नवाजी है
सचमुच में दहशतगर्द हो जाएँ तब क्या होगा ?
" ---राहत इन्दौरी
दहशतगर्दी की मुखर और मूक पक्षधरता और अघुलनशील चरित्र इस देश में सभी नागरिकों के घुल मिल कर रहने में बड़ी बाधा है . मैं पहले दौड़ -दौड़ कर ईद मिलता था पर अब सोचता हूँ मुझसे होली मिलने , दीपावली मिलने कितने मुसलमान साथी आते हैं तो पाता कि कोई नहीं --क्यों ? मैं कई अपने बड़े बुजुर्गों से आदाब करते करते बड़ा हो गया पर आज तक मुझसे किसी मुसलमान ने "जय राम जी की " या "जय श्री कृष्ण" नहीं कहा . जिस धरती पर पैदा हुए और जहां सुपुर्द-ए -ख़ाक होगे उस धरती के शुक्रगुजार हो कर किसी ने "वन्दे मातरम" कभी कहा हो तो बताओ ...वरना चुप हो जाओ ." ---- राजीव चतुर्वेदी

आपकी नज़र का नज़रिया क्या है ?

" यह तो बताईये कि आपकी नज़र का नज़रिया क्या है ?
और यह भी बताते तो कुछ बेहतर होता कि --
आपके ज्ञान का जरिया क्या है ?
आपकी सिद्धि किस विधा में है और उसका अंत कहाँ होता है ?
सिद्धि के अंत को सिद्धांत कहा जाता है
इससे आपका किस तरह का नाता है ?
सार्वभौमिक हो संबोधन और लोक का मानक हो
लोकप्रिय उसको कहा जाता है
"मैं " का उद्बोधन अहंकार की टंकार है क्या ?
या क़ि आत्मा के अक्षांश से अंगार बढ़ा आता है .
" ----राजीव चतुर्वेदी 

Public of the Republic of Rapistaan



                        " !! Public of the Republic of Rapistaan !! "
"आखिर क्या है अश्लीलता की आचार संहिता ? भूखो के मोहल्ले में चाट का ठेला लगाओगे तो लुट भी सकता है. काम आकांक्षा से कुंठित समाज (Sexually starved Society) में मुन्नी बदनाम हुई ..झंडू बाम हुई;...शीला की जवानी .., तो फिर जिगर से ले कर कमर तक पीया बीड़ी जलाएंगे ही. कपड़ों पर गौर करें अधिक से अधिक कपड़े का इस्तेमाल करके अधिक से अधिक अंग प्रदर्शन क्यों किया जा रहा है. "sexy" ,"hot" विशेषण होगे तो यह भुगतने को भी तैयार रहो. देहात और कस्बों में भेंस गाय और शहर में कुतिया को जब कहा जाता है कि "गर्म " है तो संकेत है कि उसके प्रणय आकांक्षा है शहर मै जब कोई युवती "हॉट " कहलाना चाहती है तो आनंद भी ले और भुगते भी वही ---इसमें समाज का क्या दोष ?."रति" अगर नाम होगा तो उसकी अभिव्यक्ति भी होगी ही, उसका कार्यक्रम भी होगा. महान दार्शनिक राखी सावंत ने कहा है --"Rape is surprised sex" और एक अन्य विदुषी रीना जैन ने कहा है --"Virginity is not dignity, Its just lack of opportunity". अपराध दोनों और से हो रहा है. उधर से सक्रीय active और इधर से सांकेतिक passive. पुलिस की भूमिका अपराध होने के बाद अधिक है और समाज की अपराध होने के पहले. " -- राजीव चतुर्वेदी


छिनरफंद की आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़िये सामाजिक मूल्यों को मजबूत कीजिये

"बलात्कार एक जघन्यतम अपराध है ...इसकी सजा कठोरतम होनी चाहिए ...नाबालिग अगर बलात्कार का मुलजिम है तो फिर किस बात का नाबालिग ?...इस देश में बलात्कार की घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोतरी बताती है कि क़ानून ही नहीं समाज भी अपना दायित्व निभाने में असफल रहा है ...जब हम बलात्कार की बात करते हैं तो वेश्यालयों की बात क्यों नहीं करते जहां पैसे से देह और सहमती खरीदी जाती है स्वतः स्फूर्त नहीं होती ? मेरा मानना है क़ि बलात्कार क़ानून से नहीं सामाजिक नियंत्रण से ही कम किया जा सकता है ...बलात्कार के लिए कठोर क़ानून तभी कारगर होगा जब उसका Substantial Law जिसे दण्ड सहिंता ,Procedural Law यानी प्रक्रिया संहिता के साथ Code of Conduct आचार संहिता भी हो यही नहीं फर्जी फंसाने की अवस्था में उस झूठे आरोप लगाने वाली स्त्री के लिए भी उतना ही कठोर नियम हो ....बॉय फ्रेंड के साथ देर रात पिक्चर देख कर लौटने की आज़ादी ...उल -जलूल कपडे पहनना ...पब्लिक प्लेस पर दारू /बीयर पीना ..."मैं चाहे ये करूँ मैं चाहे वो करूँ मेरी मर्जी " के अंदाज़ में जीना सामाजिक मूल्यों को धता बताना है ...सामाजिक मूल्य हमारी सामूहिक सुरक्षा के लिए ही बने हैं और अगर हम व्यक्तिगत आज़ादी की दरकार में इनकी अनदेखी करेंगे तो कभी समाज से छिप कर व्यक्तिगत आनन्द भी लेंगे और दुर्घटना ग्रस्त भी होंगे ...तब समाज को क्यों कोसते हो ? ---अब इस प्रकाश में बात अभी हाल ही में दिल्ली में दुष्कर्म की शिकार दामिनी के बॉय फ्रेंड की हो जाय ... अवीन्द्र पाण्डेय उस लडकी दामिनी के बॉय फ्रेंड थे ...अपने -अपने घरवालों (समाज ) की चोरी से दोनों पिक्चर गए ...रात को घर वापसी की राह ली और जघन्य अपराध के शिकार बने तो अब उसी समाज को धिक्कार रहे हैं जिसकी सामाजिकता का उलंघन (गर्ल/बॉय फ्रेंड का घर की चोरी से पढाई के नाम से पिक्चर देखना ) अवीन्द्र और दामिनी भी तो कर रहे थे ...अवीन्द्र आज समाज को धिक्कार रहे हैं यह तब कहाँ खड़े थे जब औरों से इसी प्रकार की घटनाएं हो रही थी ?...निठारी काण्ड में यह कहाँ थे ? निश्चय ही सामाजिक मूल्यों का अनुपालन करते हुए जीने वाली लडकियां भी आज भयभीत हैं यह राष्ट्र के पौरुष पर कलंक है पर जो लोग व्यक्तिगत मजे लेने के लिए सामाजिक मर्यादाओं की अवहेलना और उपहास उड़ा रहे हैं वह किस मुंह से अब समाज को धिक्कार रहे हैं ? "मैं चाहे ये पहनूँ ,मैं चाहे वो पहनूँ मेरी मर्जी " या "मैं चाहे ये करूँ मैं चाहे वो करूँ मेरी मर्जी " मार्का लोग फिर समाज से तब अपेक्षा क्यों करते हैं जब कोई रईशजादा या हरामजादा लफंगा उनसे कहता है --"...आ मेरी गाड़ी में बैठ जा ...". ---- छिनरफंद की आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़िये सामाजिक मूल्यों और आचार संहिताओं को मजबूत कीजिये अपने -अपने घरों और परिवेश को संस्कारित कीजिये देश की दशा सुधरेगी . क़ानून तो तब अपना काम करेगा जब बलात्कार जैसी घटना घट जायेगी समाज अगर सशक्त होगा तो बलात्कार /छेड़छाड़ जैसी घटनाओं में निश्चित ही कमी आयेगी ." ------राजीव चतुर्वेदी

शब्दों में भावना डाल कर मैंने फेंटा


"शब्दों में भावना डाल कर मैंने फेंटा
अनुप्राश का दिया लपेटा
कुछ ऐसा कह डाला जिसकी गुंजाइश गुमनाम यहाँ थी
जीवन दर्शन में वह हरकत वैसे तो बदनाम यहाँ थी
मैंने बांटा
तुमने चाटा
लडकी ने कविता लिख डाली
लड़कों ने फिर करी जुगाली
वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद
होगयी कविता
कविता अब डेटिंग करती है
मित्रों की सैटिंग करती है
साहित्यों की बात करो मत
फेसबुक का पन्ना है यह
यहाँ उल्हाना और लुभाना दो ही काम किये जाते हैं
प्यार की संभावना संकोच करती है
तो कविता के नीचे ईलू -ईलू पैगाम दिए जाते हैं
लिखा हुआ है --सुन्दर -सुन्दर
सोच रहा हूँ ताक झाँक कर कौन है सुन्दर ?
कविता या वह बबिता कविता लिखने वाली
कविता पढ़ ली ख़ास नहीं है
कविता से सुन्दर तो वह है फर्जी प्रोफाइल का फोटो
वह ही सुन्दर दीख रहा है
कविता से सुन्दर है बबिता
कविता डेटिंग पर आयी है
पाठक सैटिंग पर आया है
सुन्दर -सुन्दर ,वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद

शब्दों में भावना डाल कर मैंने फेंटा
अनुप्राश का दिया लपेटा
कुछ ऐसा कह डाला जिसकी गुंजाइश गुमनाम यहाँ थी
जीवन दर्शन में वह हरकत वैसे तो बदनाम यहाँ थी
मैंने बांटा
तुमने चाटा
लडकी ने कविता लिख डाली
लड़कों ने फिर करी जुगाली
वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

स्याही तो मेरे दिल में दफ़न थी यारो

"स्याही तो मेरे दिल में दफ़न थी यारो ,
कलम ने आंसू से कलाम लिख डाला .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

संदेशों को संकेतों से समझो यारो

"धूल उड़ाती जाती यादें
धन्यवाद मुझको देती हैं
और तुम्हारे दिल की धड़कन
खामोशी से कुछ कहती है
संदेशों को संकेतों से समझो यारो
एक चहकती चिड़िया
संगीतों के मानक गढ़ती बियाबान में
कर्णप्रिय कहने को हमसे
जंगल में मंगल करने को जाने क्या-क्या सहती है
."
----- राजीव चतुर्वेदी

समझ सकते हो तो उसे कविता समझ लेना

"शब्द जो जेब में रखे थे कहीं खो गए हैं
जहन में गूंजता है जो
समझ सकते हो तो उसे कविता समझ लेना
चाहता था बोलना
कुछ राज अपना खोलना
पर मेरी जुबाँ पर तह करी तहजीब रखी थी
और उस तहजीब में तुम्हारी मर्यादा भी शामिल थी
अब कोई जूनून नहीं, ... बस खून है मेरा
जो दस्तक दे रहा है दिल पर मेरे
तस्दीक करता है क़ि अभी ज़िंदा हूँ मैं
तुम्हारे स्नेह का सारांश रखा था हिफाजत से जहन में
खो गया ख़्वाबों के साथ
अब हकीकत हांफती है
हौसला कोई नहीं
अब कोई जूनून नहीं, ... बस खून है मेरा
जो दस्तक दे रहा है दिल पर मेरे
तस्दीक करता है क़ि अभी ज़िंदा हूँ मैं
शब्द जो जेब में रखे थे कहीं खो गए हैं
जहन में गूंजता है जो
समझ सकते हो तो उसे कविता समझ लेना ." -----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, January 2, 2013

चीख लेने दो मुझे

"चीख लेने दो मुझे
रात लम्बी है
और सर्द बेहद
सबेरा होगा --लोग कहते हैं
यकीन नहीं होता
यूं भी दिनमान पर कोहरे का कहर जारी है
ओस खामोश है फूलों के रुखसारों पर
खून की बूँद नज़र आती हैं कुछ खारों पर
और तारों ने भी तहजीब की चुप्पी साधी
रात को देर गए दहशत दस्तक दे रही दरवाजों पर
सबेरा होगा --लोग कहते हैं
यकीन नहीं होता
रात लम्बी है
चीख लेने दो मुझे .
" ----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, January 1, 2013

ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा

"ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा
काँप जाता है ज़िंदा आदमी
तुम सूली पर चढ़ा सकते हो तो चढ़ा दो उसे
ठोक दो कीलें उसके दिल दिमाग हाथ और पैरों पर
क़त्ल कर दो उसे सरेआम
उसकी मौत तुम पर भारी पड़ेगी एक दिन
खंडित हो जाएगा काल
और फिर वह "काल-खंड" कहलाएगा
टांगा था ईसा को तो देखलो यह सच लटकता हुआ ...खंडित काल खंड
युग बाँट गया "ईसा पूर्व" और "ईसा बाद" में .
पर याद रखो
ईसा मसीह के अनुयायी
साल दर साल सलीब सजाते हैं
लाखों नयी सलीब बनाते हैं
और उसपर ईसा को टांग कर जश्न मनाते हैं
सलीबें तोड़ते नहीं देखे
याद रहे
ईसा के अनुयाईयों ने ही टांगा था गैलीलियो को मौत के सलीब पर
गैलीलियो सच था और फिर ब्रम्हांड बाँट गया
सलीब पर टंगे लोगों की आह से
दुनिया बाँट गयी पहली दूसरी और तीसरी दुनिया में
सलीब पर टंगा असहाय दिखता सच
काल खंड को बाँट देता है
क्योंकि सच के लिए मर चुका आदमी दोबारा मर नहीं सकता
इसलिए निर्भीक होता है ...पूरी तरह एक मुर्दा मृतुन्जय
सच के लिए सचमुच मर चुके लोगो
अब तुम्हारे ज़िंदा होने का समय आ गया है
पहले से भी ज्यादा ज़िंदा और धड़कते हुए
ईसा पूर्व ...ईसा बाद ...शताब्दी ...साल महीने ..सप्ताह ..दिन में धड़कते हुए
बता दो उन्हें क़ि तुम जिन्हें वक्त की सूली पर टंगा मरा हुआ सा असहाय समझते थे
वह सभी सत्य ज़िंदा होगये हैं
तारीख बदले गी तो तवारीख भी बदलेगी ...तश्दीक कर लेना
बदल दो नए साल का केलेंडर" ----राजीव चतुर्वेदी

प्रणाम !

" प्रणाम !
इस प्रभात को
दूब की ओस को
सूरज के जोश को
सुबह की धूप को
सच के स्वरुप को
माँ- बहनों के रूप को
बड़ों की आस को
गमलों की प्यास को
बच्चों के हौसले को
चिडियों के घोंसले को
पत्नी के उलाहने को
पतियों के बहाने को
प्रेमिका की प्रतीक्षा को
सच की समीक्षा को
प्रणाम !!
खेतों को ... क्यारी को
माँ की लाचारी को
पिता के प्रयासों को
बहन के अहसासों को
गुजरी हर याद को
खारिज फ़रियाद को
सहमे से सपने को
याद में अपने को
सीमा के जवान को
खिसियाये किसान को
बुजुर्गों के आशीष को
फूलों को ...कलियों को ...
याद में भी ओझल हो चुकीं उन गलियों को
स्मृतिओं के झरोखे को
मित्रों के धोखे को
गाँव की उस गाय को
होस्टल की चाय को
गुमशुदा यादों को
गमजदा फरियादों को
तुमसे मुलाक़ात को
हर सार्थक बात को
एकाकी से कमरे में चहकती गौरैया को
प्रणाम !!
"
----- राजीव चतुर्वेदी

समय की बहती नदी के के किनारे बैठ कर

" समय की बहती नदी के
के किनारे बैठ कर
मैंने लिखी शुभ कामना तुमको
पानी में उंगलीयों से कई बार,
दिए भी तैराए थे मेने
भाग्यवश भागीरथी मिल जाएँ तुमको पूछ लेना,
मैं विकल्पों की विवशता का वास्ता क्या दूं ?
मैं तो संकल्पों का सिपाही,
समय की बहती नदी के किनारे बैठ कर
मैंने लिखी शुभ कामना तुमको --
सूर्य सा दहके तुम्हारा साल,
शौर्य से दहके तुम्हारा भाल,
चिड़ियों सा चहके तुम्हारा घोंसला,
फूल सा महके तुम्हारा प्यार,
और बढ़ता जाए तेरा हौसला . "
-- राजीव चतुर्वेदी