Monday, December 30, 2013

आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है

"आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा
शैतान ईसा को और समय कलेंडर को सूली पर टांग देता है
और देखता है तवारीख और तारीख लहूलुहान
कलेंडर में दर्ज हैं कितने ही निशान जरूरत और जख्मों के
रगड़ते समय की खराशें ख्वाहिश और खलिश सारी
दूध का हिसाब , अखबार , त्यौहार ,
परीक्षा, प्रतीक्षा शादी जन्मदिन की तिथियें सारी

बहता हुया समय दिन सप्ताह महीना
गुजरते हुए लोग ठहरा हुआ सपना
दर्ज करते हैं कलेंडर पर
और फिर बदल देते हैं हर साल एक नए कलेंडर से

बिलकुल वैसे ही
जैसे पीढियां बदल जाती हैं खूबसूरत खामोशी से

सीढियां और पीढियां समय के सफ़र के सूचकांक हैं
दर्ज हैं इन्हीं कलेंडरों में
इन कलेंडरों में तारीखे गुनगुनाती हैं ...कराहती हैं कभी
नदियाँ और सदियाँ बहती हैं कलेंडर में
आशा के साथ टंगता है हर कलेंडर खूंटी पर
और आशीर्वाद देता गुज़र जाता है

इन कलेंडरों में दर्ज हैं सीमित साधन और सपने सारे
इन कलेंडरों में दर्ज हैं गुजर गए वह अपने सारे
इन कलेंडरों में दर्ज हैं सैकड़ों बार अस्त हो कर उगते सूरज
वर्ष भर फैला उजाला, बिखरी चांदनी,
कुछ बादल, आशा का आकाश बड़ा सा

थोड़ा चन्दा ...जोश पर गिरती ओस वक्त की
कुछ अपने, कुछ सपने जो सो गए समय का कफ़न ओढ़ कर
आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा
एक दिन मैं भी कुछ कलेंडर याद में लेकर गुज़र ही जाऊंगा
मेरी तरह यह भी ...इसकी तरह मैं भी
आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा ." ------- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 26, 2013

ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा


"ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा
काँप जाता है ज़िंदा आदमी
तुम अहिंसक गांधी को पराक्रम से नहीं, पैर छू कर गोली से मार सकते हो
तुम ईसा को सूली पर चढ़ा सकते हो ...तो चढ़ा दो उसे
ठोक दो कीलें उसके दिल दिमाग हाथ और पैरों पर
क़त्ल कर दो उसे सरेआम
उसकी मौत तुम पर भारी पड़ेगी एक दिन
वातावरण में व्याप्त हो जाएगा कातिलों को कफ़न उढाता उसका नाम
मंडेला से मिश्र तक क्यूबा से कुवैत तक हर क्रान्ति पर दर्ज होगा उसका नाम
राजनीतिक भूगोल में क़त्ल कर दिए गए लोग कातिल से अधिक कामयाब हैं
तुमने गांधी को मारा था
और चुनाव लड़ते में तुम्हारी जुबान पर गांधी का दिया ही नारा था
स्वदेशी हो रामराज्य या स्वराज्य गांधी का दिया नारा था
जो आज भी तुम्हारा सहारा था
गांधी की ह्त्या करनेके के बाद तुम एक नारा भी नहीं गढ़ सके ?
जब कातिलों ने सूली पर टांगा था ईसा को तो उन्हें नहीं पता था
खंडित हो जाएगा काल
और फिर वह "काल-खंड" कहलाएगा
टांगा था ईसा को तो देखलो यह सच लटकता हुआ ...खंडित काल खंड
युग बाँट गया "ईसा पूर्व" और "ईसा बाद" में .
पर याद रखो
ईसा मसीह के अनुयायी
साल दर साल सलीब सजाते हैं
लाखों नयी सलीब बनाते हैं
और उसपर ईसा को टांग कर जश्न मनाते हैं
सलीबें तोड़ते नहीं देखे
याद रहे
ईसा के अनुयाईयों ने ही टांगा था गैलीलियो को मौत के सलीब पर
गैलीलियो सच था और फिर ब्रम्हांड बाँट गया
सलीब पर टंगे लोगों की आह से
दुनिया बाँट गयी पहली दूसरी और तीसरी दुनिया में
सलीब पर टंगा असहाय दिखता सच
काल खंड को बाँट देता है
क्योंकि सच के लिए मर चुका आदमी दोबारा मर नहीं सकता
इसलिए निर्भीक होता है ...पूरी तरह एक मुर्दा मृतुन्जय
सच के लिए सचमुच मर चुके लोगो
अब तुम्हारे ज़िंदा होने का समय आ गया है
पहले से भी ज्यादा ज़िंदा और धड़कते हुए
ईसा पूर्व ...ईसा बाद, ...शताब्दी, ...साल महीने ..सप्ताह ..दिल में धड़कते हुए
बता दो उन्हें क़ि तुम जिन्हें वक्त की सूली पर टंगा मरा हुआ सा असहाय समझते थे
वह सभी सत्य ज़िंदा होगये हैं
तारीख बदलेगी तो तवारीख भी बदलेगी ...तश्दीक कर लेना
जब जब दमन होगा तुमको गांधी याद आयेंगे गौडसे नहीं
बदल दो नए साल का केलेंडर
कितना बदलोगे कितनी बार बदलोगे
विश्व के क्रान्ति पटल पर गांधी ज़िंदा है
विज्ञान में गैलीलियो और अभिमान में सूली पर टंगा ईसा ज़िंदा है
मुर्दा कातिलों को कफ़न उढाओ,
यह सभ्यता इनकी करतूत से शर्मिंदा है .
" ----राजीव चतुर्वेदी





Sunday, December 22, 2013

मैं हवा हूँ मेरे मित्र, मेरे साथ चाहो तो बहो वरना घरों में चुपचाप रहो

" मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना घरों में चुपचाप रहो
तुम पर दर ...उस पर बाजे से बजते दरवाजे हैं
हर मौसम में खीसें निपोरती खिड़कियाँ हैं
मौसम को कमरे में बंद करने का दंभ है
सांसारिक सम्बन्ध है ...काम का अनुबंध है ...सुविधाओं का प्रबंध है
संवेदनाओं का पाखंडी निबंध है
जिसमें शब्दों की बाढ़ किनारे छू कर लौट आती है हर बार
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं
न दर है न दरवाजा न खिड़की न रोशनदान कोई
कोई बंधन भी नहीं
बहते लोगों के सम्बन्ध नहीं होती
स्वतंत्र लोगों के अनुबंध नहीं होते
निश्छल लोगों के प्रबंध नहीं होते
निर्बाध वेग का निबंध कैसा ?
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना बाहर के कोलाहल से
अपने अन्दर के सन्नाटे का द्वंद्व सहो
और कुछ न कहो

देखना एक दिन मैं अपने प्रवाह में लीन हो जाऊंगा
और तुम अपने ही अथाह में विलीन हो जाओगे
तब यह दर ...यह दरवाजे ...यह खिड़कियाँ
तुम्हें हर पूछने वाले से कह देंगे
बहुत कुछ सह गया है वह
हवा में बह गया है वह
चुपके से ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 19, 2013

कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना

"कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अनहदों को गुनगुनाना
मरा हुआ व्यक्ति कविता नहीं समझता
मरे हुए शब्द कविता नहीं बनते
ज़िंदा आदमी कविता समझ सकता ही नहीं
ज़िंदा शब्द कविता बन नहीं सकते
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना
इस लिए भाप में नमीं को नाप
अनहद की सरहद मत देख हर हद की सतह को नाप
कविता संक्रमण नहीं विकिरण है
आचरण का व्याकरण मत देख
शब्देतर संवाद सदी के शिलालेख हैं
उससे तेरी आश ओस की बूंदों जैसी झिलमिल करती झाँक रही है
जैसे उड़ती हुयी पतंगें हवा का रुख भांप रही हैं
नागफनी के फूल निराशा की सूली पर
और रक्तरंजित सा सूरज डूब रहा है आज हमारे मन में देखो
उसके पार शब्द बिखरे हैं लाबारिस से
उन शब्दों पर अपने दिल का लहू गिराओ
कुछ आंसू ,मुस्कान, मुहब्बत, मोह, स्नेह, श्रृंगार मिलाओ
शेष बचे सपने सुलगाओ उनमें कुछ अंगार मिलाओ
अकस्मात ही अक्श उभर आये जैसा भी
गौर से देखो उसमें कविता की लिपि होगी 
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, December 13, 2013

मैंने इश्क की इबादत कब की ?

"मैंने इश्क की इबादत कब की ?
ये रवायत थी कवायद कब की ?
मैंने तो सोचा था इश्क से महकेगी फिज़ा
मैंने सोचा था कुछ फूल यहाँ महकेंगे
मैंने तो सोचा था कुछ जज़वात यहाँ चहकेंगे
मैंने सोचा था चांदनी ओढ़े हुए कुछ ख्वाब खला में होंगे
मैंने सोचा था इकरा तेरे रुखसार का उनवान होगी
मैंने सोचा था तेरे बदन की खुशबू मेरी मेहमां होगी
मैंने चन्दा को समेटा था तेरे माथे पे बिंदी की जगह
तू इबादत थी या आदत मेरी,-- सहमी हुयी शहनाई से भी पूछ ज़रा
तू शराफत थी या शरारत मेरी, -- तन्हाई से भी पूछ ज़रा
मैंने इश्क की इबादत कब की ?
यह महज शब्द है अल्फाजों में सिमटा सा हुआ
अब इसे अहसास उढा कर मैं सो जाऊंगा." ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 5, 2013

सुनो...तुम पूछती हो न कि तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै...??

"सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
हर रिश्ता एक सीमा है
एक प्रकार है
एक संस्कार है 

एक प्राचीर है जिसकी अपनी ही दीवार है
एक अवधि है
एक परिधि है
यह तुमने क्या किया ?
एक रिश्ते के नाम में एक अहसास को सीमित किया
मैं तुमसे असीम प्यार करना चाहता था
पर यह तुमने क्या किया ?
हमारे अस्तित्व के बीच बहती हवाओं से एक अनवरत अहसास को
एक रिश्ते का नाम दिया --- यह तुमने क्या किया ?
तुम बेटी हो सकती हो
बहन हो सकती हो
पत्नी हो सकती हो
प्रेमिका हो सकती हो
तुम कुछ भी हो सकती हो पर सीमाओं में
इसी लिए मैं तुमसे सीमित प्यार करता हूँ
असीम नहीं

सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
। " ---- राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, December 4, 2013

तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा

"तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा
फिर भी यह मरीचिका और मृगतृष्णा का रिश्ता था और रास्ता भी एक
परिभाषा और अभिलाषा के बीच प्रतीत की पगडण्डी का परिदृश्य प्रश्न है
तो उत्तर कैसा ?
जो लोग सूरज की रोशनी में रास्ता नहीं देखते

वह पूछते हैं ध्रुवतारे से सप्तर्षि की पहेली
सभ्यता की हर शुरूआत में प्रश्न प्रतीकों में अंगड़ाई लेता है
हर सुबह के गुनगुनाते सूरज का गुनाह है यह
तुमने कुछ कहा ही नहीं और मैंने सुन लिया
सत्य के संकेत उगते हैं निगाहों में।
" ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, October 15, 2013

रावण को श्रद्धांजलि और राम को भी प्रणाम !!

"रावण उत्तम कुल का था. वह मेरठ (उत्तरप्रदेश) का रहनेवाला था और उसकी पत्नी मंदोदरी जैसलमेर (राजस्थान ) की. वह पुलत्स्कर का नाती और विशेश्रवा का बेटा था. पुलत्स्कर ने विश्व संस्कृत को प्रथम रंगमंच दिया था और ग्रीक नाट्य साहित्य में उसका उल्लेख "पुलित्ज़र" के नाम से मिलता है. रावण की राजसत्ता बांदा / चित्रकूट के दंडकारण्य से श्री लंका तक थी. वह ज्योतिष का प्रकांड विद्वान् था. उसकी लिखित "रावण संहिता" ज्योतिष विज्ञान की महान कृति है. रावण ने नृत्य और योग के मानक प्रस्तुत किये. प्रायः जो विद्वान् और पढ़े लिखे होते हैं वह कायर होते हैं और निर्णायक मौकों पर आर -पार की लड़ाई या युद्ध से बचते हैं पर रावण विद्वत्ता और साहस का अद्भुत संयोग था. वह महान विद्वान् और प्रतापी योद्धा था. वह रक्षसः आन्दोलन का प्रणेता था. इसीलिए उसे राक्षस कहा गया. हुआ यह कि उस समय इंद्र का राज्य था उसे लोग इंद्र इस लिए कहते थे क्यों कि वह इन्द्रीय हरकतें यानी कि वासना में लिप्त था . इंद्र एक आदिवासी /बनवासी कन्या शचि का अपहरण कर लाया था जिसका रावण ने विरोध किया और राजा इंद्र के इस अत्याचार के विरुद्ध पुरजोर आवाज़ उठाई. जो लोग राजा इंद्र का समर्थन करते हुए उसके सुर में सुर मिला रहे थे वह "सुर" कहलाये और जो लोग विरोध की आवाज़ बुलंद कर रहे थे वह "असुर" कह लाये. रावण के विरोध से नाराज़ इंद्र ने रावण और उसके समर्थकों को राज्य -सुरक्षा देने से मना कर दिया तो रावण ने कहा हम तुम्हारी सरकार को अमान्य करते हैं और अपनी सुरक्षा स्वयं कर लेंगे इस प्रकार रक्ष सह आन्दोलन चला और रक्ष +सह को कालान्तर में राक्षस कहा जाने लगा. रावण इन्द्र जैसे इन्द्रीय हरकतें करनेवाले कुकर्मी अईयास और कुबेर जैसे पूंजीपतियों का वह अक्सर लात -जूता संस्कार करता था. राम से उसका द्वंद्व दो नायकों का द्वंद्व था.-----रावण को श्रद्धांजलि और राम को भी प्रणाम !!" ----राजीव चतुर्वेदी

अल्लाह की आँख में धूल मत झोंक लल्ला !! ईद -उल-जुहा मुबारक !!


" ल्लाह की आँख में धूल मत झोंक लल्ला .कुर्बानी का मतलब है किसी अपने अजीज की कुर्बानी . यह क्या हुआ कि शाम को बकरी खरीदी और सुबह काट डाली और चिल्लाने लगे कुर्बानी ...कुर्बानी ... दरअसल कुर्बानी तो बकरी देती है ...अपनी जान की कुर्बानी और आप उसका गोस्त खा कर जश्न मना कर चिल्लाते हो कुर्बानी ...आपने कौन सी कुर्बानी दी है ? ...यह बकरी की कुर्बानी नहीं उस मासूम शान्तिप्रिय शाकाहारी विवश जानवर के साथ विश्वासघात है ...और अगर इसे कुर्बानी कहते हैं ...और अगर इस कुर्बानी से सबब मिलता है ...अल्लाह खुश होता है ...तो इज़राइल और अमेरिका तो तुम्हारी चुन -चुन कर कुर्बानी देते हैं ....जैसे तुम मासूम अहिंसक बकरी /ऊँट /भेड़ का क़त्ल करते हो और कहते हो कुर्बानी वैसी तो कुर्बानी इज़राइल और अमेरिका अक्सर करते हैं ...उनको भी इस कथित कुर्बानी का सबब मिलता होगा तभी तो यह देश फल-फूल रहे हैं, सरसब्ज हैं, खुशहाल हैं, बरक्कत कर रहे हैं . खुदा की आँख में धूल झोंकने वालो खुद से पूछो किस अज़ीज की कुर्बानी दी है ...दीन के लिए क्या कुर्बानी दी है ?...ईमान के लिए क्या कुर्बानी दी है ? 

"झूठ झटके का था इसलिए नहीं खाया उसने,
सच को उसने सचमुच हलाल कर डाला ."
!! ईद -उल-जुहा मुबारक !! " ----- राजीव चतुर्वेदी


"मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी ईश्वरीय कृति हैं ... बल्कि अवधारणा तो यही है कि मानव ईश्वरीय कृतियों में अंतिम कृति है ... यह सनातन अवधारणा है , इस्लाम की भी है, ईसाइयों की भी ,बौद्धों की भी ,यहूदियों की भी ,पारसीयों की भी (मार्क्सवादी मजहब को मानने वाले ही इस अवधारणा से असहमत हैं ) ... फिर ईश्वर की एक कृति को दूसरी कृति नष्ट करे यह अधिकार कहाँ से मिल गया ? ...ईश्वर /ईसा /अल्लाह तो नहीं दे सकते ? ...भला कौन पिता अपनी कमजोर संतति को मारने का हक़ अपनी ताकतवर संतति को देगा ? ... निश्चय ही पशु बलि / कुर्बानी ताकतवर संतति मानव के द्वारा अपने अधिकार के विस्तार ही नहीं पशुओं के प्रकृति पर हक़ पर अतिक्रमण की कहानी है ... पहले राजा नरबलि देते थे फिर हम कुछ और सभ्य हुए तो कानूनन इस पर रोक लगी ...आश्चर्य इस बात पर है कि ईश्वर /अल्लाह /ईसा केवल शाकाहारी सीधे अहिंसक जानवरों की बलि पर ही खुश होते हैं ? ... अरे भाई अपने पालतू या सड़क के फालतू कुत्ते की बलि या कुर्बानी क्यों नहीं करते ? ...शेर से ले कर सांप तक किसी हिंसक प्राणी की कुर्बानी क्यों नहीं करते ? ... शाकाहारी प्राणीयों का गोस्त ही क्यों खाते हो ?
मानव ने मजहब बनाए और अलग अलग भयावह रूपों में यमराज की कल्पना कर ली पर पशुओं की भी तो सुनो ...नेपाल के काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर के इलाके के भैंसे / बकरे बताते होंगे यमराज त्रिपुण्ड लगाता है ...कामाख्या मंदिर- गौहाटी के इलाके के बकरे /भैंसे बताते होंगे कि यमदूत तिलक लगाता है और इसी तरह बकरीद पर गाय /भैंस /ऊँट /भेड़ /बकरे आपस में बताते होंगे कि यमराज गोलटोपी पहन कर आता है और मजहब से मुसलमान होता है ...कुल मिला कर यमदूत की शक्ल में साम्प्रदायिक आरक्षण है . बहरहाल जितना गोश्त बकरीद पर खाया जाता है उतना गोश्त होली पर भी खाया जाता है .
क़त्ल तो क़त्ल है फिर चाहे मानव का हो या पशु का ...क़त्ल को हर हाल में केवल आत्म रक्षा के लिए ही जायज ठहराया जा सकता है ...मानव पर संसद थी ..विधान सभा थी ...एक जुट करती भाषा थी तो पहले अपनी बलि प्रतिबंधित करने के क़ानून बनाए फिर ताकतवर मानव इकाइयों ने कमजोर मानव इकाइयों का शोषण किया प्रकृति के शोषण किया फिर अपना पोषण करने वाले जल जंगल जमीन का शोषण किया ...फिर अब बारी शाकाहारी प्राणियों की थी तो उनकी बलि /कुर्बानी होने लगी .
ईश्वर /अल्लाह /ईसा अगर है तो कभी अपनी ही निर्दोष कृति के क़त्ल पर खुश नहीं हो सकता ...और अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा निर्दोषों के क़त्ल पर खुश होता है तो मैं उसकी निंदा करता हूँ ...मेरा ईश्वर कातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता ...मेरा ईश्वर क़त्ल से खुश नहीं हो सकता ...और अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा क़त्ल से खुश होता है तो उसके मुंह पर थू ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, September 27, 2013

आओ कुछ ख्वाब खरीदें उसी मण्डी से

" आओ कुछ ख्वाब खरीदें उसी मण्डी से
जहाँ हम बिक रहे हैं रोज टुकड़ों में
कहो, कैसा लगा यह सत्य सुन कर ?
शाम का सूरज अस्त होता है पराजित सा
रात को जब चांदनी चर्चा करेगी
तो उसमें तुम्हारी वेदना भी गुमशुदा होगी
ये रंगीन रातें उनकी हैं और ग़मगीन सुबह तुम्हारी है
सुना है ये धरती घूमती है
तो धरती के सभी सिद्धांत भी तो घूमते होंगे
इस घूमते भूगोल के अक्षांश से पूछो
हमारी वेदना की व्याख्या
जिन्दगी की भूमध्य रेखा से
और कितनी दूर तक फ़ैली हुयी है 
और हर देशांतर का टापू एक मण्डी सा सजा है
देह से ले कर वहाँ पर स्नेह बिकता है --- खरीदोगे ?
चले आओ
आओ कुछ ख्वाब खरीदें उसी मण्डी से
जहाँ हम बिक रहे हैं रोज टुकड़ों में
कहो, कैसा लगा यह सत्य सुन कर ?"
  ---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, September 4, 2013

उस मोहल्ले के कुत्ते शान्ति पर बहुत भोंकते हैं

" उस मोहल्ले के कुत्ते शान्ति पर बहुत भोंकते हैं
आज कुछ कुत्तों ने शान्ति को काट लिया
मुकदमा चला
शान्ति से कुत्तों के वकीलों ने लम्बी जिरह की
यह कि कुत्तों का भोंकना तो उनका अभिव्यक्ति का अधिकार है 
और कुत्तों की मजहबी आस्था को ठेस पहुंचाने पर वह काट भी सकते हैं
संवैधानिक सा असंवैधानिक सवाल यह भी था
कि शान्ति किसने पहले भंग की ?
 काटने वालों ने या काटे जाने पर चीखने वालों ने ?"
---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, August 13, 2013

खाद्य सुरक्षा बिल -- देश की भूख में वोट नहीं तलाशिये



"Food Security Bill यानी खाद्य सुरक्षा बिल ...अच्छा झुनझुना है ...पेप्सी की तरह देश को पिलाया जा रहा है जिससे पोषण कुछ भी नहीं डकार जोरदार आ रही है ...वह यही चाहते हैं ...वह चाहते हैं आप भूखे न मरें क्योंकि भूखा मरता आदमी विद्रोह कर देता है ...वह यह भी नहीं चाहते कि आप भरे पेट हों क्योंकि भरे पेट आदमी अपने अधिकार, नीति, सिद्धांत, राष्ट्रवाद की बात करता है ...वह चाहते हैं कि आप भूख से पूरी तरह नहीं मरें थोड़े से ज़िंदा भी रहें ताकि उन्हें वोट दे सकें ...वह चाहते हैं आप अधमरे रहें ...अधमरा कुपोषित नागरिक राशन की दुकान या वोटर की कतार में कातर सा खड़ा पाया जाता है आन्दोलन नहीं करता . उसे अखबार की ख़बरें नहीं अखरतीं ...उसे दूरदर्शन पर राष्ट्रीय दर्द नहीं देखना ...वह जब कभी दूरदर्शन देखने का जुगाड़ कर पाता है तो अपनी जिन्दगी में कुछ समय को ही सही कुछ सुखद कल्पनाएँ आयात कर लेता है ...उसे रूपये का अवमूल्यन, पेट्रोल की कीमत , टेक्स की दरें, शिक्षा का मंहगा होना, फ्लेट का मंहगा होना, घोटाले या रोबर्ट्स बढेरा जैसों का समृद्धि का समाज शास्त्र प्रभावित नहीं करता ...वह यही चाहते है इसीलिए वह चाहते हैं भूखे पेट कुपोषित अधमरा आदमी जो महज वोटर हो नागरिक नहीं . अगर खाद्य सुरक्षा ही देनी है तो नौ साल गुजर गए इस गए गुजरे मनमोहन की सरकार को क्या कृषि को लाभकारी बनाने की कोई योजना आयी ? खेतों में अन्न की जगह अब प्लौट उग रहे हैं इस विनाश को नगर विकास बताते तुगलको जब आबादी बढ़ेगी और खेत कम हो जायेगे तो कैसे पेट भरेगा ...तब कृषि उत्पाद महगे तो होंगे पर किसान के यहाँ नहीं आढ़ततिये के गोदाम पर और मालदार आदमी वह खरीद लेगा गरीब फिर भूखा मरेगा ...जैसे गाय /भैंस का दूध उसके बच्चे से ज्यादा हमारे बच्चे पीते हैं ...गाँव के बच्चों से ज्यादा शहर के बच्चे घी /मख्खन खाते है ...वह यही चाहते हैं . --- देश की भूख में वोट नहीं तलाशिये कृषि को लाभकारी बनाइये ...यह आपके राहुल, आपकी प्रियंकाएं या प्रियंकाओं के रोबर्ट्स केवल अपना पेट भरते हैं ...देश का पेट तो किसान भरता है ---उसके लिए क्या किया ?" ---- राजीव चतुर्वेदी




Monday, August 12, 2013

तुम्हारी लम्बी सी जिन्दगी में

"तुम्हारी लम्बी सी जिन्दगी में
मेरा छोटा सा हस्ताक्षर
मिट गया होगा
कदाचित अपनी श्याही में
या फिर तनहाई में सिमट गया होगा
वेदना मुझको नहीं
संवेदना तुमको नहीं
फिर शोर कैसा है ?
शायद हमारे बीच जो बहती नदी थी
बाढ़ आयी है उसी में
और दूरी बढ़ गयी है बाढ़ में हमारे किनारों की

हमारी खामोशियों के बीच बहती हवाओं में
कुछ पत्ते खड़खडाते हैं
वह अपनी वेदना कहते हैं
हमारी बात जैसी है
गुजर गए दिन की जैसी है
गुजरती रात जैसी है
तुम्हारी लम्बी सी जिन्दगी में
मेरा छोटा सा हस्ताक्षर
मिट गया होगा
कदाचित अपनी श्याही में
या फिर तनहाई में सिमट गया होगा
क्या कहूँ ?
तेरी खामोशी भी मुझको खूबसूरत सी लगती है .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, August 8, 2013

जिस दिन चार्ली चैपलिन को देख कर तुम हँसे थे



" जिस दिन चार्ली चैपलिन को देख कर तुम हँसे थे
मेरी नज़र से गिर गए थे
वह फुटपाथ पर लावारिश नवजात शिशु था
तुम उस पर हँसे थे
वह अनाथालय में पला बड़ा एक कमजोर कुपोषित बच्चा था
तुम उस पर हँसे थे
उसके पैरों में पोलियो हो गया था
तुम उसकी चाल देख कर हँसे थे 
तुमने कभी उसकी कविता पढी ?....पढ़ना
" One murder makes a villain
Hundred a hero
Numbers sanctify." --- Charlie Chaplin 
यानी  --" एक हत्या खलनायक बनाती है
और अनेक हत्याएं नायक
यह संख्या है जो आचरण को पवित्र करती है ."
यह  गंभीर बात है चार्ली चैपलिन की तरह
किन्तु तुम्हें सदैव उसमें एक जोकर दिखाई दिया
शायद तुम्हारा असली प्रतिविम्ब
जिसकी अब तक तुम शिनाख्त नहीं कर सके
कुछ लोग गंभीर चीजों को मजाक में लेते है
और मजाक को गंभीरता में
सच की शहादत में चार्ली चैपलिन मर चुका है
तुम्हारी आदत में ज़िंदा है
तभी तो तुम हँस रहे हो
क्योंकि दरअसल रोना चाहते हो .
" ---- राजीव चतुर्वेदी 

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चार्ली चैप्‍लिन का बचपन आत्‍मकथा में से एक अंश
समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।
हम जैसे-जैसे और अधिक गरीबी के गर्त में उतरते चले गये, मैं अपनी अज्ञानता के चलते और बचपने में मां से कहता कि वह फिर से स्टेज पर जाना शुरू क्यों नहीं कर देती। मां मुस्कुराती और कहती कि वहां का जीवन नकली और झूठा है और कि इस तरह के जीवन में रहने से हम जल्दी ही ईश्वर को भूल जाते हैं। इसके बावज़ूद वह जब भी थियेटर की बात करती तो वह अपने आपको भूल जाती और उत्साह से भर उठती। यादों की गलियों में उतरने के बाद वह फिर से मौन के गहरे कूंए में उतर जाती और अपने सुई धागे के काम में अपने आपको भुला देती। मैं भावुक हो जाता क्योंकि मैं जानता था कि हम अब उस शानो-शौकत वाली ज़िंदगी का हिस्सा नहीं रहे थे। तब मां मेरी तरफ देखती और मुझे अकेला पा कर मेरा हौसला बढ़ाती।
सर्दियां सिर पर थीं और सिडनी के कपड़े कम होते चले जा रहे थे। इसलिए मां ने अपने पुराने रेशमी जैकेट में से उसके लिए एक कोट सी दिया था। उस पर काली और लाल धारियों वाली बांहें थीं। कंधे पर प्लीट्स थी और मां ने पूरी कोशिश की थी कि उन्हें किसी तरह से दूर कर दे लेकिन वह उन्हें हटा नहीं पा रही थी। जब सिडनी से वह कोट पहनने के लिए कहा गया तो वह रो पड़ा था, "स्कूल के बच्चे मेरा ये कोट देख कर क्या कहेंगे?"
"इस बात की कौन परवाह करता है कि लोग क्या कहेंगे?" मां ने कहा था,"इसके अलावा, ये कितना खास किस्म का लग रहा है।" मां का समझाने-बुझाने का तरीका इतना शानदार था कि सिडनी आज दिन तक नहीं समझ पाया है कि वह मां के फुसलाने पर वह कोट पहनने को आखिर तैयार ही कैसे हो गया था। लेकिन उसने कोट पहना था। उस कोट की वजह से और मां के ऊंची हील के सैंडिलों को काट-छांट कर बनाये गये जूतों से सिडनी के स्कूल में कई झगड़े हुए। उसे सब लड़के छेड़ते,"जोसेफ और उसका रंग बिरंगा कोट।" और मैं, मां की पुरानी लाल लम्बी जुराबों में से काट-कूट कर बनायी गयी जुराबें (लगता जैसे उनमें प्लीटें डाली गयी हैं।) पहन कर जाता तो बच्चे छेड़ते," गये सर फ्रांसिस ड्रेक।"
इस भयावह हालात के चरम दिनों में मां को आधी सीसी सिर दर्द की शिकायत शुरू हुई। उसे मज़बूरन अपना सीने-पिरोने का काम छोड़ देना पड़ा। वह कई-कई दिन तक अंधेरे कमरे में सिर पर चाय की पत्तियों की पट्टियां बांधे पड़ी रहती। हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे, सूप की टिकटों के सहारे दिन काट रहे थे और मदद के लिए आये पार्सलों के सहारे जी रहे थे। इसके बावजूद, सिडनी स्कूल के घंटों के बीच अखबार बेचता, और बेशक उसका योगदान ऊंट के मुंह में जीरा ही होता, ये उस खैरात के सामान में कुछ तो जोड़ता ही था। लेकिन हर संकट में हमेशा कोई कोई क्लाइमेक्स भी छुपा होता है। इस मामले में ये क्लाइमेक्स बहुत सुखद था।
एक दिन जब मां ठीक हो रही थी, चाय की पत्ती की पट्टी अभी भी उसके सिर पर बंधी थी, सिडनी उस अंधियारे कमरे में हांफता हुआ आया और अखबार बिस्तर पर फेंकता हुआ चिल्लाया,"मुझे एक बटुआ मिला है।" उसने बटुआ मां को दे दिया। जब मां ने बटुआ खोला तो उसने देखा, उसमें चांदी और सोने के सिक्के भरे हुए थे। मां ने तुरंत उसे बंद कर दिया और उत्तेजना से वापिस अपने बिस्तर पर ढह गयी।
सिडनी अखबार बेचने के लिए बसों में चढ़ता रहता था। उसने बस के ऊपरी तल्ले पर एक खाली सीट पर बटुआ पड़ा हुआ देखा। उसने तुरंत अपने अखबार उस सीट के ऊपर गिरा दिये और फिर अखबारों के साथ पर्स भी उठा लिया और तेजी से बस से उतर कर भागा। एक बड़े से होर्डिंग के पीछे, एक खाली जगह पर उसने बटुआ खोल कर देखा और उसमें चांदी और तांबे के सिक्कों का ढेर पाया। उसने बताया कि उसका दिल बल्लियों उछल रहा था और और वह बिना पैसे गिने ही घर की तरफ भागता चला आया।
जब मां की हालत कुछ सुधरी तो उसने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया। लेकिन बटुआ अभी भी भारी था। उसके बीच में भी एक जेब थी। मां ने उस जेब को खोला और देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए थे। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि बटुए पर कोई पता नहीं था। इसलिए मां की झिझक थोड़ी कम हो गयी थी। हालांकि उस बटुए के मालिक के दुर्भाग्य के प्रति थोड़ा-सा अफसोस जताया गया था, अलबत्ता, मां के विश्वास ने तुरंत ही इसे हवा दे दी कि ईश्वर ने इसे हमारे लिए एक वरदान के रूप में ऊपर से भेजा है।
मां की बीमारी शारीरिक थी अथवा मनोवैज्ञानिक, मैं नहीं जानता। लेकिन वह एक हफ्ते के भीतर ही ठीक हो गयी। जैसे ही वह ठीक हुई, हम छुट्टी मनाने के लिए समुद्र के दक्षिण तट पर चले गये। मां ने हमें ऊपर से नीचे तक नये कपड़े पहनाये।
पहली बार समुद्र को देख मैं जैसे पागल हो गया था। जब मैं उस पह़ाड़ी गली में तपती दोपहरी में समुद्र के पास पहुंचा तो मैं ठगा-सा रह गया। हम तीनों ने अपने जूते उतारे और पानी में छप-छप करते रहे। मेरे तलुओं और मेरे टखनों को गुदगुदाता समुद्र का गुनगुना पानी और मेरे पैरों के तले से सरकती नम, नरम और भुरभुरी रेत.. मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था।
वह दिन भी क्या दिन था। केसरी रंग का समुद्र तट, उसकी गुलाबी और नीली डोलचियां और उस पर लकड़ी के बेलचे। उसके सतरंगी तंबू और छतरियां, लहरों पर इतराती कश्तियां, और ऊपर तट पर एक तरह करवट ले कर आराम फरमाती कश्तियां जिनमें समुद्री सेवार की गंध रची-बसी थी और वे तट। इन सबकी यादें अभी भी मेरे मन में चरम उत्तेजना से भरी हुई लगती हैं।
1957 में मैं दोबारा साउथ एंड तट पर गया और उस संकरी पहाड़ी गली को खोजने का निष्फल प्रयास करता रहा जिससे मैंने समुद्र को पहली बार देखा था लेकिन अब वहां उसका कोई नामो-निशान नहीं था। शहर के आखिरी सिरे पर वहां जो कुछ था, पुराने मछुआरों के गांव के अवशेष ही दीख रहे थे जिसमें पुराने ढब की दुकानें नजर रही थीं। इसमें अतीत की धुंधली सी सरसराहट छुपी हुई थी। शायद यह समुद्री सेवार की और टार की महक थी।
बालू घड़ी में भरी रेत की तरह हमारा खज़ाना चुक गया। मुश्किल समय एक बार फिर हमारे सामने मुंह बाये खड़ा था। मां ने दूसरा रोज़गार ढूंढने की कोशिश की लेकिन कामकाज कहीं था ही नहीं। किस्तों की अदायगी का वक्त हो चुका था। नतीजा यही हुआ कि मां की सिलाई मशीन उठवा ली गयी। पिता की तरफ से जो हर हफ्ते दस शिलिंग की राशि आती थी, वह भी पूरी तरह से बंद हो गयी।
हताशा के ऐसे वक्त में मां ने दूसरा वकील करने की सोची। वकील ने जब देखा कि इसमें से मुश्किल से ही वह फीस भर निकाल पायेगा, तो उसने मां को सलाह दी कि उसे लैम्बेथ के दफ्तर के प्राधिकारियों की मदद लेनी चाहिये ताकि अपने और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए पिता पर मदद के लिए दबाव डाला जा सके।
और कोई उपाय नहीं था। उसके सिर पर दो बच्चों को पालने का बोझ था। उसका खुद का स्वास्थ्य खराब था। इसलिए उसने तय किया कि हम तीनों लैम्बेथ के यतीम खाने (वर्कहाउस) में भरती हो जायें।
 हालांकि हम यतीम खाने यानी वर्कहाउस में जाने की ज़िल्लत के बारे में जानते थे लेकिन जब मां ने हमें वहां के बारे में बताया तो सिडनी और मैंने सोचा कि वहां रहने में कुछ तो रोमांच होगा ही और कम से कम इस दमघोंटू कमरे में रहने से तो छुटकारा मिलेगा। लेकिन उस तकलीफ से भरे दिन मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि क्या होने जा रहा है जब तक हम सचमुच यतीम खाने के गेट तक पहुंच नहीं गये। तब जा कर उसकी दुखदायी दुविधा का हमें पता चला। वहां जाते ही हमें अलग कर दिया गया। मां एक तरफ महिलाओं वाले वार्ड की तरफ ले जायी गयी और हम दोनों को बच्चों वाले वार्ड में भेज दिया गया।
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