Sunday, October 18, 2015

एक अहसास चीख कर चुप होता है

" एक अहसास चीख कर चुप होता है
एक उपहास दिल के दालानों में पसर कर बैठा
मैं जानता हूँ
जिन्दगी की इस धूप में पेड़ की परछाईं सी जो छाया है
वह तुम्हारी हमशक्ल सी लगती है मुझे

शायद तुम्हीं हो
ओस से गिरते हमारे अहसास दिन में सूख जाते हैं
चांदनी क्यों चीखती थी रात को ?
सूरज सबेरे ही सवालों से घिरा यह पूछता है
सुना है वेदना अखबार में बिकने लगी है
मैं अकेला और तुम तनहा से तारों में कहीं अब दूर बैठे हो
हो सके तो दीवाली मनाने को मेरे पास चले आना
मैं तारों में खोज लेता हूँ तुम्हें पर बात बाकी है
इन हवाओं की गुजारिश प्यार करती सी गुजरती है
मैं अभी ठहरा नहीं हूँ
इस सफ़र में जब कभी ठहरूंगा तो बता दूंगा
प्यार, मौसम, यह हवाएं, चांदनी, वह धूप सूरज की,
पेड़ की छाया, काया हमारी और यह माया यहाँ रुकती नहीं है
रास्ते में तुम यहाँ अब कब मिलोगे ? -- प्रश्न यह पूछो नहीं
आभाष को अहसास कर लेना ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, October 4, 2015

गाय तथा सूअर की चर्बी पर 1857 की क्रान्ति ही नहीं हुयी थी 2017 की भी क्रान्ति होगी


"मुसलमान गऊ मांस न खाएं पर गाय क्या खाये यह हिन्दू बताएं ?... क्या "गाय क्या खाये" इसकी कोई धार्मिक सामाजिक व्यवस्था है ?.... सुपोषित गायें गऊ वंश में अल्पसंख्यक हैं और कुपोषित बहुसंख्यक । जम्मू कश्मीर में या अन्य किसी मुस्लिम बहुल इलाके में अगर हिन्दूओं का कोई वर्ग सुअर का मांस खाये तो मुसलामानों को कैसा लगेगा ?...क्या इसे मुसलमान बर्दाश्त कर सकेंगे ?... तो फिर अमन की कोशिश में मुसलमान क्या मात्र इतना भी नहीं कर सकते कि गऊ मांस न खाएं ? यह अमन और सहअस्तित्व की सार्थक पहल होगी । क्या मुसलमान यह करेंगे ?... अगर "हाँ" तो सहअस्तित्व की संभावना है और अगर "नहीं " तो सहअस्तित्व अकेले हिंदुओं की ही राष्ट्रीय जिम्मेदारी नहीं । याद रहे; अघुलनशील अस्मिता राष्ट्र की एकता में बाधा है और गाय तथा सूअर की चर्बी पर 1857 की क्रान्ति ही नहीं हुयी थी 2017 की भी क्रान्ति होगी ।"
---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, September 25, 2015

दीनदयाल उपाध्याय और भाजपा की यात्रा कथा


(आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयन्ती है ...वह राजनीति के दार्शनिक संत थे ..."एकात्म मानववाद " के प्रणेता थे चुनावी नेता नहीं ...उनका जन्म मथुरा में फराह के पास नगला चंद्रभान में हुआ था . 1968 में रहस्यमय परिस्थितियों में वह मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर रेल के डिब्बे में मृत मिले थे ...विडंबना यह कि उनकी हत्या का मुकदमा जौनपुर के तत्कालीन जनसंघ के सांसद राजा यादवेंद्र दत्त मिश्रा पर चला था ....गाँधी की हत्या को मौन और मुखर समर्थन देने वाली शक्तियों ने ही दीनदयाल उपाध्याय की हत्या करवा दी थी )

" भाजपा की स्थापना 6 अप्रेल 1980 को एक राजनीतिक विवशता में हुयी थी . यह संक्रमणग्रस्त भारतीय जनसंघ का ही नया संस्करण था . भारतीय जनसंघ का चुनाव चिन्ह था दीपक और नारा था --
" हर हाथ को काम , हर खेत को पानी ,
घर घर में दीपक , जनसंघ की निशानी .
"

श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के तत्कालीन नेतृत्व में पार्टी के विचार विकसित हुए किन्तु वोट विकसित नहीं हुए ...बलराज मधोक ने प्रखर राष्ट्रवाद का परचम लहराया . उस दौर में लड़ाई कोंग्रेस को केन्द्रीय सत्ता से प्रतिस्थापित करने की नहीं थी . उस दौर में लड़ाई केवल अपने आपको प्रखर विपक्ष सिद्ध करने की थी और इस प्रतियोगिता में राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव के सोसलिस्ट अंतर्द्वंद्व संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी (संसोपा ) और प्रजा सोसलिस्ट पार्टी (प्रसोपा ) के रूप में थे वही अपने विरोध को विभाजित करने के लिए कोंग्रेस ने वामपंथियों को प्रायोजित कर दिया था (बिलकुल वैसे ही जैसे इस बार केजरीवाल की "आप" को . 1968 में कोंग्रेस के गर्भ से चौधरी चरण सिंह का उदय हुआ और राजनीती के लाल केशरिया झंडों में हरी झंडियाँ भी दिखने लगीं ...कोंग्रेस ने भी कुटिलता से स्वेत क्रान्ति का नारा दिया ...किन्तु विपक्ष विभाजित था. अब तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की हत्या हो चुकी थी ... शेष बचे शीर्ष नेता बलराज मधोक को अटल बिहारी वाजपेयी हाशिये पर धकेल चुके थे (बिलकुल वैसे ही जैसे नरेंद्र मोदी ने अडवानी को धकेला ) अटल जी शीर्ष नेता थे और उनके लेफ्टीनेंट /सचिव थे लालकृष्ण अडवानी जो उस समय पार्टी मुखपत्र पांचजन्य / ओर्गनाइज़र के सम्पादक भी थे . साथ में राजस्थान से भैरों सिंह शेखावत और संघ परम्परा के नानाजी देशमुख भी बड़े सेनापतियों में थे .इनके नेतृत्व में करपात्री जी की अगुआई में "गो वध बंदी आन्दोलन " उभरा . आन्दोलन जितना सशक्त था उतनी ही सख्ती से इसे इंद्रा गाँधी ने कुचला भी ...दिल्ली में इसके प्रदर्शन में कुछ सौ लोग दिल्ली में पुलिस की गोली से मारे गए थे और इंद्रा गांधी की छवि हिन्दू विरोधी की हो गयी किन्तु 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद भाजपा के हाथ से उसका राष्ट्रवाद का मुद्दा छिन कर कोंग्रेस या यों कहें की इंद्रा जी के हाथ में चला गया था . इस लोकप्रियता की ऊंचाई पर पंहुच कर कोंग्रेस आत्ममुग्ध हो गयी और दोनों हाथ से लूट होने लगी ...भ्रष्टाचार के नए सोपान लिखे गए . इसके विरुद्ध भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जबरदस्त काम किया ...उधर संसद में अटल बिहारी बाजपेयी विपक्ष की प्रखर आवाज़ बन कर उभरे तो जनसंघ के अनुसांगिक संगठन विद्यार्थी परिषद् ने पूरे देश के छात्रों में संगठन खड़े कर लिए अब संगठन के हिसाब से कोंग्रेस के बाद सबसे बड़ी ताकत जनसंघ हो चूका था ...1974 में गुजरात छात्र आन्दोलन से गुजरात की सरकार पलट गयी . यह आन्दोलन विद्यार्थी परिषद् का था जिसमें नरेंद्र मोदी आगे थे ...उधर बिहार में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में जेपी मूवमेंट कोंग्रेस की केन्द्रीय सरकार को उखड फेंकने के लिए चल पड़ा था . जेपी मूवमेंट में विद्यार्थी परिषद् की अग्रणी हिस्सेदारी थी जिसमें गोविन्दाचार्य प्रमुख थे और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष अरुण जेटली भी अग्रणी थे . 1975 में सोशलिस्ट नेता राजनारायण की चुनाव याचिका में इंद्रा गांधी हार गयीं किन्तु अपना पद बचाने के लिए उन्होंने 25 जून '75 को देश में आपातकाल लागू कर दिया ....सभी विपक्षी नेता जेल में थे जिनमें जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर्वाधिक नेता थे . 1977 में लोकसभा चुनाव में कोंग्रेस या यों कहें की इंद्रा गांधी के विरुद्ध अभूतपूर्व ध्रुवीकरण हुआ और तमाम विपक्षी दल अपना विलय कर जनता पार्टी बने . जनता पार्टी का सबसे बड़ा घटक भारतीय जनसंघ था . 1977 में जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली ...चंद्रशेखर जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री . मोरारजी देसाई की इस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे और लाल कृष्ण अडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री थे . किन्तु अंतरविरोधों के कारण यह सरकार डगमगा गयी और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने ...प्रयोग असफल हो चुका था ...जनता पार्टी फिर आपने अपने धडों में बाँट गयी ...जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ घटक ने पुनः नयी पार्टी का पंजीकरण कराया और अब 6 अप्रेल'1980 से इसका परिवर्तित नया नाम हुआ " भारतीय जनता पार्टी " और चुनाव चिन्ह मिला "कमल" ....और इसके बाद का घटना चक्र तात्कालिक इतिहास है और इतिहास साक्षी है कि भाजपा ने अभी तक किसी आन्दोलन को अंजाम तक नहीं पंहुचाया है ...सांकेतिक किया और सरकार बना कर चुप बैठ गए ...सांकेतिक कार सेवा ...सांकेतिक राष्ट्रवाद ....अभी तक तो यह राजनीती के अथक किन्तु कत्थक नृत्य ही कर रहे हैं ...अब अंजाम तक पंहुचना होगा . " ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, September 24, 2015

अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा क़त्ल से खुश होता है तो उसके मुंह पर थू

"मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी ईश्वरीय कृति हैं ... बल्कि अवधारणा तो यही है कि मानव ईश्वरीय कृतियों में अंतिम कृति है ... यह सनातन अवधारणा है , इस्लाम की भी है, ईसाइयों की भी ,बौद्धों की भी ,यहूदियों की भी ,पारसीयों की भी (मार्क्सवादी मजहब को मानने वाले ही इस अवधारणा से असहमत हैं ) ... फिर ईश्वर की एक कृति को दूसरी कृति नष्ट करे यह अधिकार कहाँ से मिल गया ? ...ईश्वर /ईसा /अल्लाह तो नहीं दे सकते ? ...भला कौन पिता अपनी कमजोर संतति को मारने का हक़ अपनी ताकतवर संतति को देगा ? ... निश्चय ही पशु बलि / कुर्बानी ताकतवर संतति मानव के द्वारा अपने अधिकार के विस्तार ही नहीं पशुओं के प्रकृति पर हक़ पर अतिक्रमण की कहानी है ... पहले राजा नरबलि देते थे फिर हम कुछ और सभ्य हुए तो कानूनन इस पर रोक लगी ...आश्चर्य इस बात पर है कि ईश्वर /अल्लाह /ईसा केवल शाकाहारी सीधे अहिंसक जानवरों की बलि पर ही खुश होते हैं ? ... अरे भाई अपने पालतू या सड़क के फालतू कुत्ते की बलि या कुर्बानी क्यों नहीं करते ? ...शेर से ले कर सांप तक किसी हिंसक प्राणी की कुर्बानी क्यों नहीं करते ? ... शाकाहारी प्राणीयों का गोस्त ही क्यों खाते हो ?
मानव ने मजहब बनाए और अलग अलग भयावह रूपों में यमराज की कल्पना कर ली पर पशुओं की भी तो सुनो ...नेपाल के काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर के इलाके के भैंसे / बकरे बताते होंगे यमराज त्रिपुण्ड लगाता है ...कामाख्या मंदिर- गौहाटी के इलाके के बकरे /भैंसे बताते होंगे कि यमदूत तिलक लगाता है और इसी तरह बकरीद पर गाय /भैंस /ऊँट /भेड़ /बकरे आपस में बताते होंगे कि यमराज गोलटोपी पहन कर आता है और मजहब से मुसलमान होता है ...कुल मिला कर यमदूत की शक्ल में साम्प्रदायिक आरक्षण है . बहरहाल जितना गोश्त बकरीद पर खाया जाता है उतना गोश्त होली पर भी खाया जाता है .
क़त्ल तो क़त्ल है फिर चाहे मानव का हो या पशु का ...क़त्ल को हर हाल में केवल आत्म रक्षा के लिए ही जायज ठहराया जा सकता है ...मानव पर संसद थी ..विधान सभा थी ...एक जुट करती भाषा थी तो पहले अपनी बलि प्रतिबंधित करने के क़ानून बनाए फिर ताकतवर मानव इकाइयों ने कमजोर मानव इकाइयों का शोषण किया प्रकृति के शोषण किया फिर अपना पोषण करने वाले जल जंगल जमीन का शोषण किया ...फिर अब बारी शाकाहारी प्राणियों की थी तो उनकी बलि /कुर्बानी होने लगी .
ईश्वर /अल्लाह /ईसा अगर है तो कभी अपनी ही निर्दोष कृति के क़त्ल पर खुश नहीं हो सकता ...और अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा निर्दोषों के क़त्ल पर खुश होता है तो मैं उसकी निंदा करता हूँ ...मेरा ईश्वर कातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता ...मेरा ईश्वर क़त्ल से खुश नहीं हो सकता ...और अगर ईश्वर /अल्लाह /ईसा क़त्ल से खुश होता है तो उसके मुंह पर थू ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, September 5, 2015

क्या तुम कृष्ण को जानते हो ?


----- // 1- कृष्ण क्या है ? // ---
"कृष्ण उस प्यार की समग्र परिभाषा है जिसमें मोह भी शामिल है ...नेह भी शामिल है ,स्नेह भी शामिल है और देह भी शामिल है ...कृष्ण का अर्थ है कर्षण यानी खीचना यानी आकर्षण और मोह तथा सम्मोहन का मोहन भी तो कृष्ण है ...वह प्रवृति से प्यार करता है ...वह प्राकृत से प्यार करता है ...गाय से ..पहाड़ से ..मोर से ...नदियों के छोर से प्यार करता है ...वह भौतिक चीजो से प्यार नहीं करता ...वह जननी (देवकी ) को छोड़ता है ...जमीन छोड़ता है ...जरूरत छोड़ता है ...जागीर छोड़ता है ...जिन्दगी छोड़ता है ...पर भावना के पटल पर उसकी अटलता देखिये --- वह माँ यशोदा को नहीं छोड़ता ...देवकी को विपत्ति में नहीं छोड़ता ...सुदामा को गरीबी में नहीं छोड़ता ...युद्ध में अर्जुन को नहीं छोड़ता ...वह शर्तों के परे सत्य के साथ खडा हो जाता है टूटे रथ का पहिया उठाये आख़िरी और पहले हथियार की तरह ...उसके प्यार में मोह है ,स्नेह है,संकल्प है, साधना है, आराधना है, उपासना है पर वासना नहीं है . वह अपनी प्रेमिका को आराध्य मानता है और इसी लिए "राध्य" (अपभ्रंश में हम राधा कहते हैं ) कह कर पुकारता है ...उसके प्यार में सत्य है सत्यभामा का ...उसके प्यार में संगीत है ...उसके प्यार में प्रीति है ...उसके प्यार में देह दहलीज पर टिकी हुई वासना नहीं है ...प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति इसी लिए वासना वैश्यावृत्ति है . जो इस बात को समझते हैं उनके लिए वेलेंटाइन डे के क्या माने ? अपनी माँ से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपने मित्र से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी बहन से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी प्रेमिका से प्यार करो कृष्ण की तरह ... .प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति ." ----राजीव चतुर्वेदी

----- // 2- कृष्ण और पर्यावरण // ---
" आज कृष्ण का प्रतिपादित पर्यावरण दिवस है ...दीपावली के बाद हम गोवर्धन पूजा भी करते हैं . गो (गाय ) + वर्धन (बढाना ) यानी गऊ वंश को बढाने का संकल्प दिवस . ...आज गो वंश को बढ़ाना तो दूर जगह जगह आधुनिक कट्टीखाने खुल गए हैं ...दूध डेरी के उत्पादकों से अधिक कमाई चमड़े के व्यवसाई और कसाई कर रहे हैं ...आज पहाड़ों , जंगल और जंगल पर आधारित मानव सभ्यता के मंगल का दिवस है ...आज के दिन ही पर्यावरण की ...वन सम्पदा की ...नदियों की , जंगल की , पशु पक्षियों की रक्षा का संकल्प कभी द्वापर में जननायक कृष्ण ने लिया था . ...जननायक का संकल्प नालायक के हाथ में जब पड़ता है तो पर्यावरण का वही हाल होता है जो आज है . आज हम पहाड़ों की , प्रकृति की , सम्पूर्ण पर्यावरण की रक्षा और उसके संवर्धन का संकल्प लेते हैं ...औषधीय उत्पाद को घर पर ला कर उनके व्यंजन बनाते हैं ...गाय के वंश को बढाने का संकल्प लेते हैं ." ----- राजीव चतुर्वेदी

----- // 3- कृष्ण और महिला मुक्ति // ---
" !! यह काम न तो कोई NGO कर सका है ...न एमनेस्टी इंटरनेश्नल ...न राष्ट्र ...न संयुक्त राष्ट्र ...न कोई ईसाई मिशनरी ...न प्रशासन की कमिश्नरी ...और जन्नत में हूर के लिए धरती पर लंगूर बने लोगों के मजहब से तो उम्मीद ही क्या की जाए ? भगवान् कृष्ण ने नरकासुर का वध करके उसके शोषण से 16000 महिलाओं को मुक्त कराया था। नरकासुर का राज्य वर्तमान भारत के पूर्वोत्तर राज्यों (असाम /सिक्किम /मेघालय मणिपुर ) में था। यह हमला करके महिलाओं को उठा लेजाता था। कृष्ण महिला समानता और स्वतंत्रता के पक्षधर थे। जब उनको नरकासुर की करतूतों का पता चला तो उन्होंने लगभग कमांडो की शैली में कार्यवाही करते हुए नरकासुर का वध किया था। किन्तु न भूलें अभी नरकासुर के और भी छोटे, बड़े, मझोले संस्करण समाज में मौजूद हैं। अभी भी नरकासुर के क्षेत्र से विश्व की सब से ज्यादा बाल वेश्याएं आ रही हैं। अभी भी वहां देह व्यापार के सबसे बड़े अड्डे हैं। अभी भी भारतीय समाज में दहेज़खोर हैं ...अभी भी महिलाओं को मुकम्मल मुक्ति नहीं मिली है। क्या आज के दिन हम भगवान् कृष्ण से कोइ प्रेरणा लेंगे ? नरकासुर केनाम से ही इस दिन को नरक चतुर्दसी कहते हैं। नारी शोषण की मानसिकता का आज वध हुआ था अतः आज हम मनाते हैं महिला मुक्ति दिवस !! "---राजीव चतुर्वेदी

----- // 4- कृष्ण -- भूगोल और खगोल // ---
"कृष्ण की महारास लीला ...शरद ऋतु का प्रारम्भ होते ही प्रकृति परमेश्वर के साथ नृत्य कर उठाती है एक निर्धारित लय और ताल से ...त्रेता यानी राम के युग की मर्यादा रीति और परम्पराओं में द्वापर में परिमार्जन होता है ...स्त्री उपेक्षा से बाहर निकलती है ...द्वापर में कृष्ण सामाजिक क्रान्ति करते हैं फलस्वरूप स्त्री -पुरुष के समान्तर कंधे से कन्धा मिला कर खड़ी हो जाती है ...स्त्री पुरुष के बीच शोषण के नहीं आकर्षण के रिश्ते शुरू होते है ..."कृष" का अर्थ है खींचना कर्षण का आकर्षणजनित अपनी और खिंचाव ...द्वापर में जिस नायक पर सामाजिक शक्तियों का ध्रुवीकरण होता है ...जो व्यक्ति कभी सयास और कभी अनायास स्त्री और पुरुषों को अपनी और खींचता है ...सामाजिक शक्तियों का कर्षण करता है कृष्ण कहलाता है ....शरद पूर्णिमा पर खगोल के नक्षत्र नाच उठते हैं ...राशियाँ नाच उठती है और राशियों के इस लयात्मक परिवर्तन को ...राशियों के इस नृत्य को "रास " कहते हैं ...खगोल में राशियों का नृत्य अनायास यानी "रास" और भूगोल में इन राशियों के प्रभाव से प्रकृति का आकर्षण और परमेश्वर का अतिक्रमण वह संकर संक्रमण है जो सृजन करता है ...दुर्गाष्टमी के विसृजन के बाद पुनः नवनिर्माण नव सृजन का संयोग . कृष्ण स्त्री -पुरुष संबंधों को शोषणविहीन सहज सामान और भोग के स्तर पर भी सम यानी सम्भोग (सम +भोग ) मानते थे ...जब खगोल में राशियाँ नृत्य करती हैं और रास होता है ...जब भूगोल में प्रकृति परमेश्वर से मिलने को उद्यत होती है ...जब फूल खिल उठते हैं ...जब तितलियाँ नज़र आने लगती हैं ...जब रात से सुबह तक समीर शरीर को छू कर सिहरन पैदा करता है ...जब युवाओं की तरुणाई अंगड़ाई लेती है तब कृष्ण का समाज भी आह्लाद में नृत्य कर उठता है ...खगोल में राशियों के रास यानी कक्षा में नृत्य के साथ भूगोल भी नृत्य करता है और उस भूगोल की त्वरा को आत्मसात करने की आकांक्षा लिए समाज भी नृत्य करता है ...खगोल में राशियों के नृत्य को रास कहते हैं ...राशियाँ नृत्य करती हैं धरती नृत्य करती है ...अपने अक्ष पर घूमती भी है ...चंद्रमा , शुक्र ,मंगल , बुध शनि ,बृहस्पति आदि राशियाँ घूमती हैं , नृत्य करती हैं ...धरती घूमती है और नाचती भी ...खगोल और भूगोल नृत्य करता है ...और उससे प्रभावित प्रकृति भी ...खगोल ,भूगोल और भूगोल पर प्रकृति नृत्य करती है राशियों की त्वरा (फ्रिक्येंसी ) पर नृत यानी रास करती है ...सभी राशियों के अपने अपने ध्रुव हैं ...ध्रुवीकरण हैं ...भौगोलिक ही नहीं सामाजिक ध्रुवीकरण भी हैं ...द्वापर में यह ध्रुवीकरण जिस नायक पर होता है उसे कृष्ण कहते हैं ...और खगोल से भूगोल तक राशियों से प्रभावित लोग कृष्ण को केंद्र मान कर रास करते हैं ." ------- राजीव चतुर्वेदी

----- // 5 - कृष्ण और गीता // ---
----- // श्री मद्-भगवत गीता के बारे में सत्य और तथ्य // ----

"प्रश्न - किसको किसने सुनाई?
उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।


प्रश्न --कब सुनाई?
उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।


प्रश्न --भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
उ.- रविवार के दिन।


प्रश्न --कोनसी तिथि को?
उ.- एकादशी


प्रश्न --कहा सुनाई?
उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।


प्रश्न --कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में


प्रश्न --क्यू सुनाई?
उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।


प्रश्न -- कितने अध्याय है?
उ.- कुल 18 अध्याय .


प्रश्न -- कितने श्लोक है?
उ.- 700 श्लोक


प्रश्न --गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।


प्रश्न --गीता को अर्जुन के अलावा और किन किन लोगो ने सुना?
उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने .


प्रश्न --अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उ.- भगवान सूर्यदेव को.


प्रश्न -- गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उ.- उपनिषदों में .


प्रश्न --गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?
उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति- पर्व का एक हिस्सा है।


प्रश्न --गीता का दूसरा नाम क्या है?
उ.- गीतोपनिषद .


प्रश्न -- गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, धृतराष्ट्र ने- 1 तथा संजय ने- 40.
" ------ राजीव चतुर्वेदी

Friday, September 4, 2015

मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं धनानंद, मैं शिक्षक हूँ



" मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं धनानंद,
मैं शिक्षक हूँ,
यदि मेरी शिक्षा में सामर्थ्य है तो अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण मैं स्वयं कर लूँगा ."

-चाणक्य ( विश्व का सर्वोच्च शिक्षक)

और अबोधों की ये भीड़ ...



"सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?


सुना है शब्द रहते थे यहाँ पर
और उन शब्दों में पूरा एक शहर बसता था
दिन में कोलाहल सा था
कहकशाँ था शाम को
चांदनी चर्चित सी थी
मेरे हाथों का तकिया सा लगा कर रात जगती थी
सुबह सकपकाई सी सूरज की उंगली को थामे छोटे बच्चे सी
मेरे आँगन में आती थी
नादानियां शब्दों को ओढ़े फक्र करती थीं

वही अब शब्द सारे हैं
जो रहस्यों को गुनगुनाते सूनी इमारत से खामोश बैठे हैं
जिन शब्दों में सारा संसार रहता था वहीं अब सन्नाटा सिमटा है
अब शब्द बीरान से हैं ...खोखले खामोश से हैं
खोखले शब्द खनकते हैं बहुत


सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?"
----- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, September 2, 2015

33 करोड़ नहीं , 33 प्रकार के देवी -देवता


"ज्ञान कुपड्धों या अल्पज्ञानी विवेकहीन के विकृत हो जाता है ...दृष्टांत कब दुष्टान्त में बदल जाता है पता ही नहीं चलता ...हिन्दुओं के 33 कोटी देवी देवता हैँ , इसको मूर्खों /कुपड्धों ने प्रचारित किया कि हिन्दुओं में 33 करोड़ देवी -देवता हैं । यहाँ "कोटि" का अर्थ है "प्रकार"। देवभाषा संस्कृत में "कोटि" के दो अर्थ होते है, कोटि का मतलब "प्रकार" होता है और एक अर्थ "करोड़" भी होता। हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...वास्तव में हिन्दू धर्म में कुल 33 प्रकार के देवी देवता का ही वर्णन है जो इस तरह वर्गीकरण (प्रकार ) में हैं --प्रथम 12 प्रकार हैँ --- आदित्य , धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष, सविता, तवास्था, और विष्णु...! द्वितीय 8 प्रकार हैं --- वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष ... और तृतीय 11 प्रकार है :- रुद्र: ,हर, बहुरुप, त्रयँबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली। एवँ दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार। इस तरह कुल 12+8+11+2=33 कोटि यानी प्रकार हुए ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, September 1, 2015

!! श्री मद्-भगवत गीता के बारे में सत्य और तथ्य !!



"प्रश्न - किसको किसने सुनाई?
उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।


प्रश्न --कब सुनाई?
उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।


प्रश्न --भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
उ.- रविवार के दिन।


प्रश्न --कोनसी तिथि को?
उ.- एकादशी


प्रश्न --कहा सुनाई?
उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।


प्रश्न --कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में


प्रश्न --क्यू सुनाई?
उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।


प्रश्न -- कितने अध्याय है?
उ.- कुल 18 अध्याय .


प्रश्न -- कितने श्लोक है?
उ.- 700 श्लोक


प्रश्न --गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।


प्रश्न --गीता को अर्जुन के अलावा और किन किन लोगो ने सुना?
उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने .


प्रश्न --अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उ.- भगवान सूर्यदेव को.


प्रश्न -- गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उ.- उपनिषदों में .


प्रश्न --गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?
उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति- पर्व का एक हिस्सा है।


प्रश्न --गीता का दूसरा नाम क्या है?
उ.- गीतोपनिषद .


प्रश्न -- गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, धृतराष्ट्र ने- 1 तथा संजय ने- 40.
"
                                                                                                  ------ राजीव चतुर्वेदी

मेरी शहादत दर्ज है रोशनी की हर इबारत में

"सदी लंबी
नदी गहरी और लहरें भी अराजक हैं ,
पतवार का हर वार कहता है
किनारे किनारा कर गए
कहीं गहरे में डूबूँगा
मछलियों की आँख कहती है
ये भूखी हैं
इन्हें सुन्दर मैं लगता हूँ

ऊब कर डूबूँ
इससे बेहतर है कि डूबूँ तैर कर
नदी के उस ओर सदी के छोर पर
बहतेी हुए पानी पर
डूबती यह जिंदगी उनवान लिखती है
शाम को जिस नदी के पानी में बहा कर
दिए बोये थे तुम्हारे प्यार ने
उस नदी में नहा कर
सुबह सूरज उग रहा है
मेरी शहादत दर्ज है रोशनी की हर इबारत में .
"

------ राजीव चतुर्वेद

Saturday, August 15, 2015

भारत बोल रहा है ...पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा



"भारत बोल रहा है ...
भारत आज़ादी से अब तक बोल रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा . रोशनी, रास्ते, राशन और रोजगार पर इण्डिया का कब्ज़ा है और ग्रामीण भारत असहाय अँधेरे में चीख रहा है ...ग्रामीण भारत में अँधेरा है और शहरी इण्डिया सोडियम लाईट में सुनहरा दिख रहा है . भारत बोल रहा है ...चीख रहा है ...कराह रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ...भारत हिन्दी /तमिल /तेलगू /मलयालयी /असमिया /बांग्ला / गुजराती /उड़िया /मणिपुरी में बोल रहा है और इण्डिया अंगरेजी में सुन रहा है ...भारत का जन -गण-मन
अपनी भाषाओं में न्याय की गुहार करता है तो इण्डिया के वकील उसे अंगरेजी में लिखते , इण्डिया के जज उसे अंगरेजी में समझते और फैसला देते हैं ...भारत में न्याय की भाषा इण्डिया की अंगरेजी है ... भारत में अर्थ शास्त्र /बजट की भाषा इण्डिया की अंगरेजी है ...भारत के जन -गण-मन से वोट माँगा जाता है देसी भाषाओं में और फिर इंडिया राज्य चलाता है अंगरेजी भाषा में ... भारत के बच्चे गाँव देहात के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और इंडिया के बच्चे अभिजात्य अंगरेजी स्कूलों में ...भारत बोल रहा है कि सामान शिक्षा दो पर इण्डिया की चुप्पी है ...भारत के लोग सरकारी अस्पताल में इलाज करवाते हैं और इण्डिया के लोग नर्सिंग होम में ...भारत के लोग सेना में भारती होते है और पाकिस्तान से युद्ध लड़ते हैं और इण्डिया के लोग IPL से जुड़ते हैं और भारत -पाकिस्तान क्रिकेट का मजा लेते हैं ... भारत बोल रहा है कि बेरोजगारी बड़ी समस्या है ...जन चिकित्सा स्तरहीन है ...न्याय सस्ता और समय पर उपलब्ध नहीं है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ...इण्डिया की संसद में गत 67 सालों में बेरोजगारी पर अब तक कुल मिला कर 2 घंटे 48 मिनट ही बहस हुयी है , जन चिकित्सा पर 18 घंटे , सामान शिक्षा पर 3 घंटे 16 मिनट और सस्ते सुलभ न्याय पर 16 घंटे 24 मिनट ही चर्चा हुयी है ( श्रोत -- लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा की रिपोर्ट रिवाइज्ड )...बहरहाल भारत आज़ादी से अब तक बोल रहा है पर इण्डिया सुन ही नहीं रहा ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, August 2, 2015

मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?

"विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?


समुद्र मंथनों का मेहनताना मैंने सुरा और सुन्दरी माँगी नहीं थी
सुख तेरे थे, शहर तेरा था, जज्वात मेरे ,जहर मेरा था
बिजलियों की चौंध में जो अँधेरा था वह घर मेरा था
लक्ष्मी की हूक तेरी थी, भूख मेरी थी
एक बंटवारा था न्यारा जिसमें हर सुख तेरा दुःख मेरा था


तुम्हारी कोशिशों के बाद भी मैं शव नहीं था इस लिए शिव कहा तुमने
समय के साथ बढ़ता वंश तेरा साँप सा हर दंश मेरा था


जब भी तुम कभी मेरे मंदिर को आते हो
जानता हूँ तुम जहर भर भर के लाते हो
मैं नहीं मंदिर के अन्दर, जी रहा हूँ तेरे अन्दर घुट घुट के
सोचता हूँ इस शहर में मैं कब तक जी सकूंगा ?
इस जहर को कब तलक मैं पी सकूंगा ?


चलो जाओ यहाँ से जहर फैला के फिर कभी मंदिर के अन्दर नहीं आना
मरीचिका से मोहब्बत है तुम्हें तो सत्य से फिर वास्ता कैसा ?
जहर ले कर चले हो तो मंदिरों का रास्ता कैसा ?


विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?
"
----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, July 30, 2015

गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम !! ...पर मत भूलो समाज में गुरुघंटाल भी हैं

" !! गुरु पूर्णिमा पर गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम !! ...पर मत भूलो समाज में गुरुघंटाल भी हैं ...शिक्षा के दलाल भी हैं ...गुरुओं को युगों से आदर दे रहे इस देश में शिक्षा और कोचिंग क्लास की दुकाने खुल गयी हैं जहां न जाने कितने प्रतिभासंपन्न किन्तु गरीब एकलव्यों के अंगूठे कटे हुए टंगे हैं --- देखो तो ! ...गुरु पूर्णिमा पर गुरु दक्षिणा का व्यापक कार्यक्रम चलाने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रणेता और अभिनेता अपनी सक्रियता के बीच इस सवाल का जवाब भी दे दें कि शिक्षा के बाजारीकरण के लिए अटल सरकार ने दरवाजे क्यों खोले थे ? ...अटल सरकार में क्यों शिक्षा के बाजारीकरण के लिए "अनिल अम्बानी -कुमारमंगलम बिरला समिति" का गठन किया था ? ...सभी जानते हैं की अनिल अम्बानी या कुमार मंगलम बिरला का शिक्षा से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है पर व्यापार की दूरदृष्टि या यों कहें कि गिद्ध दृष्टि तो है ..."सामान शिक्षा" का नारा आज़ादी के बुजुर्ग हो जाने के बाद भी मुंह बाए खड़ा है ...ग्रामीण स्कूलों और शहर के अभिजात्य स्कूलों में शिक्षा के स्तर के बीच असमानता की गहरी खाई है ...ऐसे में शिक्षा का मानकीकरण संभव ही नहीं है . भारत में हर युग में गुरुओं को बहुत सम्मान दिया गया ...क्या गुरूजी की जवाबदेही कोई नहीं ?...भारत के कोनो में ज्ञान /शिक्षा का अन्धकार क्यों है ? ...क्यों आज़ादी के इतने साल बाद भी मिशनरी स्कूल हमारे स्कूलों पर गुणवत्ता में भारी हैं ? ... गुरु पूर्णिमा पर आपको गुरु की सिद्ध दृष्टि मिले, गिद्ध दृष्टि न मिले .--- शुभकामना !" ----- राजीव चतुर्वेदी

"इल्म बड़ी दौलत है
तू भी स्कूल खोल
इल्म पढ़ा
फीस लगा
दौलत कमा
फीस ही फीस
पढाई के बीस
बस के तीस
यूनिफार्म के चालीस
खेलो के अलग
वैरायटी प्रोग्राम के अलग
पिकनिक के अलग
लोगो के चीखने पर ना जा
दौलत कमा
उससे और स्कूल खोल
उनसे और दौलत कमा
कमाए जा, कमाए जा
अभी तो तू जवान ह..यह सिलसिला जारी है
जब तक गंगा-जमाना है
पढाई बड़ी अच्छी है
पढ़
बही खता पढ़
टेलीफोन डायरेक्टरी पढ़
बैंक अस्सेस्मेंट पढ़
ज़रूरते-रिश्तो के इश्तिहार पढ़
और कुछ मत पढ़
मीर और ग़ालिब को मत पढ़
इक़बाल और फैज़ को मत पढ़
इब्ने इंशा को मत पढ़
वर्ना तेरा बेडा पर न होगा
और हम में से कोई
नताएज़ * का ज़िम्मेदार न होगा।
"
- इब्ने इंशा
( पाकिस्तान के मशहूर लेखक और व्यंगकार )
*नताएज़ = नतीजे का बहुवचन / परिणाम

Tuesday, July 21, 2015

यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?

"आंधी आयी
आंधी से पेड़ गिरा ...पेड़ से आम गिरे
कहीं समाचार नहीं था
पेड़ से घोंसला गिरा
घोंसले से होंसला गिरा

उल्का गिरी ...जहाज गिरा ...सेंसेक्स गिरा
कल्पना चावला गिरी
सरकार गिरी
संसद में गांधी का चित्र गिरा
समाज का चरित्र गिरा
बोर वैल में बच्चा गिरा
बस खाई में गिरी
बिल्डिंग गिरी ...पुल गिरा
आसमान से पानी गिरा ...ओले गिरे ...युद्ध में शोले गिरे
ऐक्ट्रेस रेम्प पर गिरी ...बिजली कैम्प पर गिरी
अरे यार !
यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?
"

----- राजीव चतुर्वेदी

Monday, July 20, 2015

मैकॉले को कोसने से कुछ नहीं होगा ...आत्मवंचना कीजिये

" मैकॉले को कोसने से कुछ नहीं होगा ...आत्मवंचना कीजिये ...गुजरे 1000 सालों में हिन्दू राजाओं ने या मुग़ल बादशाहों ने अपनी प्रजा के लिए किया ही क्या था ? ...हिन्दू राजाओं /मुग़ल बादशाहों ने कभी अपने लिए या अपनी प्रजा के लिए कोई लिपिबद्ध आचार संहिता बनायी ? -- नहीं . कोई शिक्षानीति बनायी ? -- नहीं . कोई सर्व शिक्षा अभियान चलाया ? --- नहीं . कोई जनस्वास्थ्य की बात की ? -- नहीं .कभी किसी देश की कल्पना की ? -- नहीं . कभी राष्ट्र की कल्पना की ? -- नहीं ? अपने राज्य के लिए कभी कोई संविधान बनाया ? -- नहीं ....केवल असमर्थों पर अत्याचार करते रहे ...लूटते रहे ...लडकियाँ उठाते रहे ...लुटेरों की तरह लूटते रहे ....डकैत गिरोहों की तरह लूटते रहे ...भारी पड़े तो लूट लिया , दूसरों की जर/जोरू /जमीन पर कब्ज़ा कर लिया और कोई भारी पड़ा तो भाग लिए ...अपनी सत्ता को स्थाइत्व देने के लिए जनता को कुछ राहत तो देनी पड़ती है ...हिन्दू राजाओं की चरित्रहीनता से ऊबी जनता को मुग़ल बादशाहों ने थोड़ी राहत दे कर लूटा ...क्या बात थी कि कर्मवती को पूरे भारत में कोई भाई चरित्र नहीं दिखा और हुमायूं भारत में राखी के बहाने आ डटा ? ...मुगलों ने भारत में भरपूर अत्याचार किये पर आम जनता को कुछ नागरिक सुविधाएं भी दीं ...न्याय के लिए नियमित अदालतों की व्यवस्था हुयी ...वकील,मुंसिफ ,मुद्दई ,मुलजिम ,जिरह,बहस ,जमानत , गिरफ्तार , फैसला आदि सारे उर्दू के शब्द हैं . इनका एक भी प्रचलित हिन्दी /संस्कृत/ बंगाली / कन्नड़ /तमिल /तेलगू /उड़िया में शब्द नहीं है . चूंकि मुगलों के पहले व्यवस्था ही नहीं थी तो शब्द कहाँ से होता ? ...सोशियल पुलिसिंग चालू हुयी कोतवाल , दरोगा , हवलदार ,दीवान ,मुन्सी ,बयान और पुलिसिया रोज नामचों में दर्ज होने वाले तमाम तकनीकी शब्द उर्दू के हैं , अरबी के हैं पर भारतीय भाषाओं के नहीं .-- क्यों ? ...क्योंकि नागरिकों को पुलिस व्यवस्था देने के लिए भारतीय मूल के राजाओं ने सोचा ही नहीं . मुगलों ने सड़कें बनवाईं , पुल बनवाये ...अदालतें बनवाईं ...जन स्वास्थ्य के लिए सफाखाने (अस्पताल ) बनवाये ...भारतीय जनता खुश हुयी होगी ...एक लुटेरे को खदेड़ कर दूसरा लुटेरा आया था पर वह उसे ही तो लूट रहा था जिस पर कुछ था ...लुटी पिटी जनता को अब कुछ जन सुविधाएं भी थी ... जन विश्वास खो चुके और पूर्ण शोषक हो चुके क्षत्रीय राजाओं की मूंछें और उनके मंत्री पण्डित जी की शिखा और यज्ञोपवीत मुगलों ने बेरहमी से नोच ली थी ...अब लुटेरे बन कर आये मुगलों ने लूट कर भागने के बजाय यहीं पैर जमा लिए ...सत्ता जमाते हुए उन्होंने सरकार को स्वरुप दिया ...न्यायव्यवस्था कायम हुयी ...स्वास्थ सेवायें शुरू हुईं ...पुलिस अस्थ्त्व में आयी ...परिवहन के लिए सड़कें बनीं ...जमीनों के नक़्शे बने ...राज्य चलाने के लिए राजस्व वसूली की व्यवस्था हुयी ...जमींदारी व्यवस्था ने पैर जमाये ...मुगलों ने भारतीय मूल के राजाओं का सैनिक बन कर लड़ने वाले गरीब कुचले हुए विपन्न लोगों को पहली बार नागरिक सुविधाएं दीं . इससे मुगलों के विरुद्ध भारतीय मूल के राजाओं को सैनिक मिलना बंद हो गए ...अब संपन्न की हिफाजत विपन्न ने करना बंद कर दी थी ...क्षत्रीय राजाओं की शान और उनके पुरोहित बने पण्डितजीयों का ज्ञान मुगलों का गुलाम बन चुका था ....फिर पैर स्थाई जमते ही मुग़ल लुटेरे बादशाह बन बैठे और उन्होंने भी क्रूरता से शोषण जारी किया तो अंग्रेज आये . अंग्रेजों ने व्यापार का कल्याणकारी मुखौटा लगाया और वार किया ...अंग्रेज सत्ता की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने भारतीय मूल के शेष या यों कहें कि अवशेष राजाओं की मूंछें , पंडितों की मुगलों से शेष बची शिखा तो उखाड़ ही ली साथ ही मुग़ल बादशाहों की और उनके साथी मुल्लों की दाढ़ी भी उखाड़ ली ...ठाकुर साहब की मूंछें , पंडितों की शिखा और मुगलों की दाढी अब अंग्रेजों के दरबार में कालीन बन कर बिछी थी ...पददलित ...भारतीय मूल के या मुग़ल राजाओं ने स्कूल नहीं खोले थे ...दूर दराज के आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनरी स्कूल खोले गए ... झाबुआ, बस्तर, जगदलपुर जैसी जगह अंगरेजी स्कूल और अस्पताल खुलने लगे ...गरीबों के बच्चे साक्षर हो रहे थे माध्यम वर्ग के बच्चे समझदार और उच्च वर्ग के बच्चे शिक्षित ...न्याय और प्रशासन की भाषा अंगरेजी हो चली ...सड़कें बनी ...आज के न्यायालयों /विधान सभाओं /संसद /विश्वविद्यालयों की इमारतें अंग्रेजों की बनवाई हैं ...रेलवे अंग्रेजों की बनवाई है ....हम तो अंग्रेजों की बनायी व्यवस्था पर अंग्रेजों को खदेड़ कर बस बैठ गए हैं ...न हमने व्यवस्था बनायी है न क़ानून ...लगभग 2800 केन्द्रीय कानूनों ( Central Act ) में 2635 अंग्रेजों के बनाए हुए हैं ... आज भी आपके स्कूलों से ईसाई स्कूलों की फीस कम और स्तर बहुत अच्छा है... क्यों ? ...मिशनरी स्कूल के प्रिंसपल का बच्चा मिशनरी स्कूल में पढता है पर सरकारी स्कूल में सरकारी कर्मचारियों के बच्चों का पढना अनिवार्य नहीं है ...भारत में चन्द्रगुप्त -चाणक्य ने जन सुविधाओं / न्याय की निश्चितता / लिखित क़ानून / जन शिक्षा के अभिनव प्रयोग किये थे पर बिन्दुसार का अतिसार उन्हें ले बीता ...आपने जब कुछ दिया ही नहीं और मैकोले ने उस शून्य को भरा तब आप मेकॉले को कोस कर क्या कहना चाहते हैं ? ....मेकॉले ने तुम्हारी व्यवस्था ...तुम्हारी न्यायपालिका , तुम्हारे क़ानून , तुम्हारी अदालतें हटा कर अपनी नहीं दी ...मैकॉले ने तुम्हारे स्कूल हटा कर अपनी शिक्षा पद्धति नहीं दी ...मैकॉले ने तुम्हारी दंड सहित /साक्ष्य अधिनियम /प्रक्रिया संहिता हटा कर अपनी नहीं स्थापित की मैकॉले ने तो जब कोइ व्यवस्था ही नहीं थी तब एक व्यवस्था की नीव डाली जिस पर आपने अपने आधुनिक भारत की इमारत बुलंद की हैं ...मैकॉले आपकी निरंतर बुलंद होती भारत की इमारत का नींव का पत्थर है ...नालायक संतानों की पहचान होती है कि वह खुद कुछ नहीं करते और कुछ करने वाले को पुरजोर कोसते हैं ... हम भारतीय मूल के लोगों ने या काबुल कंधार से आये मुगलों ने किया ही क्या है ? .... अव्यवस्था में मेकॉले व्यवस्था स्थापित कर गया ...हम पर आज भी मेकॉले से बेहतर कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है ....ऐसे में हम अपने पुरखों की अकर्मण्यता को कोसें इससे बेहतर है मैकॉले को धन्यवाद दें ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, July 19, 2015

भाषाएँ कहाँ से शुरू हुईं ? कब और कैसे शुरू हुईं ? ...पर इतना तो तय है कि सभी भाषाओं में परस्पर कोई रिश्ता है

"आप उसे आत्मा कहें या एटम ...परमात्मा कहें या प्रोटोन ...त्रासदी कहें या ट्रेजडी ...भाषाएँ कहाँ से शुरू हुईं ? कब और कैसे शुरू हुईं ? ...पर इतना तो तय है कि सभी भाषाओं में परस्पर कोई रिश्ता है . भाषाओं पर एक नए शोध के मुताबिक हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी जैसी कई ज़बानों का मूल प्राचीन अनातोलिया या आज के तुर्की में है.न्यूजीलैंड के ऑकलैंड विश्वविद्यालय की विकासवादी जीवविज्ञानी क्विनटिन एटकिंसन ने अपने शोध के दौरान पाया कि इंडो-यूरोपीयन समूह की भाषाएँ पश्चिमी एशिया के एक ही इलाके में पैदा हुई हैं. उनके अनुसार ऐसा क़रीब 8000 से 9500 हज़ार साल पहले हुआ था. शोध के दौरान उन्होंने क़रीब 100 से ज़्यादा प्राचीन और समकालीन भाषाओं का कंप्यूटर के माध्यम से अध्यन किया और पाया कि यह सभी भाषाएँ अनातोलिया के इलाकों में पैदा हुई हैं. प्राचीन अनातोलिया का ज़्यादातर हिस्सा आज के तुर्की में है. आज इस इलाके से निकली भाषाएँ दुनिया में तीन अरब लोगों द्वारा पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती हैं. वैसे इन भाषाओं को लेकर दो तरह के मत विज्ञानियों में प्रचलित हैं. एक मत को मानने वालों का मानना है कि यह भाषाएँ मध्य एशिया में काले सागर के इर्द गिर्द पैदा हुईं और वहां से आगे बढ़ते योद्धाओं के तलवारों के साथ पूरी दुनिया में फैलीं. वहीं क्विनटिन एटकिंसन जैसे शोध कर्ताओं का मानना है कि यह भाषाएँ अनातोलिया में पैदा हुईं और वहां से खेती करने वाले किसान इसे अपने हलों के साथ लेकर पूरी दुनिया को बीजते आगे बढ़ गए. अपने शोध के लिए उन्होंने कई भाषाओं के मिलते जुलते शब्दों का कंप्यूटर के माध्यम से विश्लेषण किया. मसलन हिंदी का 'माँ', जर्मन में 'मुटर', रूसी में 'मात', फारसी में 'मादर' और लैटिन में 'माटेरी' बन जाता है...और भारत के ग्रामीण इलाकों में "म्ह्नतारी" . इन सभी शब्दों की जड़ में है इंडो यूरोपीयन भाषाओं का एक ही शब्द 'मेहतर'. वहीं दूसरी तरफ़ इस नई खोज के विरोधियों का कहना है कि यह भाषाएँ रथ और चक्कों के आविष्कार के बाद ही फ़ैल सकतीं थीं और यह क़रीब 3500 सालों पहले ही इजाद हुआ है.
वर्ष 2050 तक 90% मानव-भाषाएँ अपना अस्तित्व खो चुकी होंगी और कुल मानव-भाषाओं की 2/3 तो 22वीं शताब्दी में ही मारी जाएँगी। इसमें भारत की 197 भाषाएँ सम्मिलित हैं।
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, July 15, 2015

उस चाय के प्याले में ...

" उस चाय के प्याले में शामिल थी
मुस्कराहट के लिबास में शाम की उदासी
डूबते सूरज की शेष बची आश
एक गुमशुदा सा अहसास ...हमारे आस पास ...बेहद ख़ास
धीरे से दबे पाँव आ कर हमारे बीच बैठा संकोची सा चंदा
चाय के कप से उठती रिश्तों की ऊष्मा की भाप
थोड़ी आशा, थोडा प्राश्चित, थोड़ी उदासी,
कुछ शेष बचे सपने

कुछ अवशेष से अपने
और एक लावारिस सा अहसास ...बेवजह पर बेहद ख़ास
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने
उस चाय के प्याले में जो खालीपन है वह अपना है
जो भाप बन कर उड़ गया वह सपना है
चाय का खाली प्याला अब रिश्ते की तरह ठंडा है
छलक जाते हैं जो अहसास वह धब्बे से दिखते हैं
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, July 14, 2015

"भूत" भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा है

"भूत की भभूत तुम्हारे माथे पर लगी है ... "भूत" भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा है । तुम उसकी कभी प्रतिभूति हो, कभी अनुभूति, कभी अभिभूत ।... "वर्तमान" तुम हो ...तुम्हें अपना सफ़र तय करना है प्रतिमान बनो या कीर्तिमान ... वर्तमान का नितांत वर्तमान समय ही तुम्हारे हाथ में है । भविष्य तुम्हारे हाथ में नहीं है ... भविष्य के विराट में तुम होगे भी इसमें संदेह है ... होगे भी तो कितने छोटे से होगे यह भी नहीं पता । भविष्य भविष्य के हाथ में है जिसमें ब्रम्हांड के सम्पूर्ण सृजन की हिस्सेदारी है ...सभी प्राणी ...सभी पदार्थ ...सभी के परस्पर रिश्ते तय करेंगे की भविष्य में किस स्थान पर ,कितने किराए पर, कितने दिनों को तुम्हारी स्मृतियों को स्थान दिया जाए."----- राजिव चतुर्वेदी

प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था


"प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था
मैं तुमसे मिलना चाहता था
पर किसी पार्क में नहीं


मैं चाहता था राजनीति की रणभूमि में हम मिलते
पर तुम्हें राजनीति पसंद नहीं
मैं चाहता था किसी शोध में हम मिलते
पर तुम्हें शोध पसंद नहीं
मैं कल्पना करता था कि
मैं रिक्शा चला रहा हूँ
और तुम मुट्ठी में बंद
अपने पिता की दौलत का एक नन्हा सा टुकड़ा लिए
घर से निकलती हो कॉलेज जाने को
मुझसे तय करती हो जिंदगी की दूरी के हिसाब से भाड़ा
पर तुमको मेहनत से कमाने वाले लोग पसंद नहीं
जिंदगी में मेहनत की गंध पर तुम मंहगा डियो स्प्रे करती हो


मैं तुमसे मिलना चाहता था
किसी चिंतन शिविर गोष्ठी या सेमीनार में
जहाँ राष्ट्र की दशा और दिशा पर चिंता हो
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं तुमसे मिलना चाहता था युद्ध के मैदान पर घायल लौट कर
मुझे अच्छा लगता कि
युद्ध से शेष बचा मैं जब लौटूँ
तो तुम कमसे कम अपना रूमाल मेरे घाव पर रख दोगी
मैं भरना चाहता था तुम्हारी माँग में अपने लहू के रँग
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं जानता हूँ तुम भी मुझे प्यार करती हो
पर अपनी माँग में
दूसरों का रँग मेरे लिए भरना चाहती हो
पर मुझे यह पसंद नहीं
मैं अपनी ख्वाहिशें अपने ख्वाब अपने ही खून के रंग से भरूंगा
और उसके लिए ताजिंदगी तिल तिल मरूँगा
विडम्बना यह कि
तुम मेरे साथ जीने आयी हो
और
मैं तुम्हारे साथ मरने आया हूँ .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, July 8, 2015

अंतरजातीय,अंतर क्षेत्रीय विवाह और प्रेम सम्बन्ध हों ...जातिवाद अपने आप टूट जाएगा



"ब्राह्मणों के तिरोहितवाद ने राष्ट्र को जितना जोड़ा है उतना ही ब्राह्मणों के पुरोहितवाद ने तोड़ा है ...कभी ब्राह्मणों के पुरोहितवाद ने ...कभी छत्रियों के भौतिकवाद के विवाद ने ... कभी वैश्यों के पूंजीवाद ने ...कभी मुलायम/ लालू /शरद के यादववाद ने ...कभी नीतिश / बेनी आदि के कुर्मीवाद ने ...कभी काँसी /मायावती के दलितवाद के नाम पर जाटववाद ने ...कभी किसी पासवान के पासीवाद ने ...कभी नेताओं के अवसरवाद ने मैकॉले से अधिक इस देश को डिवाइड एण्ड रूल यानी जातियों में बांटो और राज्य करो के हथकंडे से तोड़ा है । यहाँ मुसलमान और ईसाई इसलिए शामिल ही नहीं कर रहा हूँ क्योंकि इस राष्ट्र के बाहर उनकी आस्था के सभी केंद्र हैं तो वह राष्ट्रीय नहीं हैं । यहाँ हिन्दू सिख जैन बुद्ध और प्रबुद्ध शामिल हैं... अब अगर जोड़ना है तो हिन्दू सिख जैन बुद्ध में अंतरजातीय , अंतर क्षेत्रीय विवाह और प्रेम सम्बन्ध हों ...जातिवाद अपने आप टूट जाएगा ।"---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, July 3, 2015

निशा निमंत्रण के निनाद से हर सूरज के शंखनाद तक

"निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?
दूर दिलों की दीवारों से तुम भी देखो वहां झाँक कर
वहां हाशिये पर वह बस्ती राशनकार्ड हाथ में लेकर हांफ रही है
और भविष्य के अनुमानों से माँ की ममता काँप रही है
सिद्ध, गिद्ध और बुद्धि सभी की चोंच बहुत पैनी हैं
घमासान से घायल बैठे यहाँ होंसले,... वहां घोंसले
नंगे पाँव राजपथ पर जो रथ के पीछे दौड़ रहा है
वह रखवाला राष्ट्रधर्म का राग द्वेष की इस बस्ती में बहक रहा है
और दूर उन महलों का आँगन तोड़ी हुई कलियों के कारण महक रहा है
निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?"------राजीव चतुर्वेदी

Saturday, June 27, 2015

लड़कियाँ पागल होती हैं

"लड़कियाँ पागल होती हैं
बचपन में लड़कियाँ अपना बचपना भूल अपने भाइयों को माँ की तरह दुलराती हैं
बचपन में लड़कियाँ खुद अच्छी चीजें नहीं खाती अपने भाइयों को खिलाती हैं
बचपन में लड़कियाँ खिलोनों के लिए जिद नहीं करतीं
अपने भाइयों को खिलौने दिलाती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


"प्यार करना सबसे बड़ा गुनाह है" --- यह समझाया जाता है लड़कियों को बार-बार
इसलिए प्यार करना चाह कर भी किसी लड़के से प्यार नहीं करतीं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
फिर एक दिन लड़कियाँ न चाह कर भी प्यार कर लेती हैं
और फिर उससे पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियाँ जिससे कभी प्यार नहीं करतीं
उससे भी घरवालों के शादी कर देने पर प्यार करने लगती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

लड़कियाँ एक दिन माँ बनती हैं
फिर अपने बच्चों से पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
एक-एक कर उनको सभी छोड़-छोड़ कर जाते रहते हैं
माता -पिता -भाई बताते हैं तुम परायेघर की हो
लड़कियाँ फिर भी उन्हें अपना मानती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

फिर ससुराल में बताया जाता है कि तुम पराये घर की हो
फिर भी वह ससुराल को अपना ही घर मान लेती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियों को तो बचपन में ही बताया गया था
कि प्यार इस दुनियाँ का सबसे बड़ा गुनाह है
फिर भी लड़कियाँ प्यार करती हैं
बेटी बहन प्रेमिका पत्नी नानी और दादी के बदलते रूपों में भी प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

मनोवैज्ञानिक विद्वान् भावनाओं की बाढ़ को पागलपन कहते हैं
हानि -लाभ तो भौतिक घटना हैं
लड़कियाँ भावनाओं की पटरी पर दौड़ती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
अंत में लड़कियाँ पछताती हैं कि उन्होंने प्यार क्यों किया
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, June 14, 2015

सिंगल पेरेंट ... अरे , अकेले तो पेरेंट बने नहीं थे फिर क्या हो गया ?


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Single Parent
...सिंगल पेरेंट ... अरे , अकेले तो पेरेंट बने नहीं थे फिर क्या हो गया ? ... और जो हो गया सो हो गया ...आपके गलत निर्णय का खामियाजा आपके बच्चे क्यों भुगतें --- प्रायः इस अपराधबोध से शुरू होती है सिंगिल पेरेंट की कहानी ...जिसको अपराध बोध के साथ दायित्वबोध भी होता है वह सिंगिल पेरेंट का किरदार या जिम्मेदारी निभाता है ...चूंकि माँ प्राकृतिक संरक्षक होती है सो प्रायः माँ ही सिंगिल पेरेंट का दायित्व निभाती है या कभी कभी भुगतती है ...लव कुश की माँ सीता सिंगिल पेरेंट थी ...कर्ण की माँ कुन्ती सिंगिल पेरेंट थीं ... ईसा मसीह की माँ मैरी सिंगिल पेरेंट थीं ...शिवाजी की माँ जीजाबाई सिंगिल पेरेंट थीं ...झांसी की रानी लक्ष्मी बाई सिंगिल पेरेंट थी ...पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन खां की माँ सिंगिल पेरेंट थीं ...कमला नेहरू के बाद जवाहरलाल नेहरू इंदिरा गाँधी के सिंगिल पेरेंट थे और इंदिरा गाँधी राजीव तथा संजय गाँधी की सिंगिल पेरेंट थीं ...पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो बेनजीर के सिंगिल पेरेंट थे ...यह इतना महान काम भी नहीं की जितना महान बता कर कुछ लोग अपनी पीठ थपथापा रहे हैं ...प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति का उत्पाद हैं बच्चे ...तो बच्चे तो होने ही थे ...हो गए ...कोई व्यक्ति अपने हाथ झाड़ कर चल दिया और किसी ने अपनी जिम्मेदारी निभाई ...जो हाथ झाड़ कर चल दिया वह निंदनीय है ...गैर जिम्मेदार है और जिसने अपनी जिम्मेदारी निभाई उसने महज अपनी जिम्मेदारी ही तो निभाई किसी पर कोई अहसान तो किया नहीं ...प्यार उसने किया था तो जिम्मेदारी भी उसने निभाई बात यहाँ तक न्याय संगत है अब इसमें आगे भावनाओं का तड़का न लगाइए ....प्यार आप करेंगे तो उसके प्रतिफल या प्रसाद या अवसाद की जिम्मेदारी मोहल्लेवाले या समाज थोड़े ही निभाएगा ... आपने मोहल्ले या समाज से प्यार थोड़े ही किया था ?... आपने जिससे प्यार किया था वह गुजर गया या गुजर गयी या पलायन कर गया ...इसी परिदृश्य में सिंगिल पेरेंट का दायित्व प्रायः माँ पर ही प्राकृतिकरूप से आता है ...आदमी बनने की प्रक्रिया में हम अपने आपको पशु के बेहद करीब पाते हैं ...देखिये गाया/भेंस/ बकरी /कुतिया आदि या यों कहें कि प्रायः स्तनपायी ( mammalia ) वर्ग के प्राणी सिंगिल पेरेंट होते हैं ...जो प्राणी पंख वाले होते हैं वह सिंगिल पेरेंट नहीं होते यानी माता-पिता मिल कर अपने प्यार के उत्पाद को पालते हैं ...सरीसृप यानी reptile भी सिंगिल पेरेंट होते हैं ...इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पहले महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए समाज स्त्री -पुरुष के दैहिक रिश्तों को नियंत्रित संचालित और संपादित करता था ...लेकिन जब सेक्स के लिए लोगों ने सामाजिक मूल्यों और आचार संहिता को धता बता दी तो फिर समाज की जिम्मेदारी भी नहीं रही ...."मैं चाहे ये करूँ...मैं चाहे वो करूँ ...मेरी मर्जी ." या लिव इन रिलेशनशिप तो फिर भुगतो ... समाज से पूछ नहीं तो समाज की जवाबदेही क्यों हो ? ...पर अभी बात अधूरी है , पूरी तो होने दीजिये ...एक बड़ा वर्ग वह भी तो है जो अपने कार्य की स्थितियों के कारण सिंगिल पेरेंट हैं जैसे सेना / मर्चेंट नेवी / प्रवजन मजदूर ( migrant labour ) आदि ... इनके बच्चों को भी सिंगिल पेरेंट पर ही निर्भर रहना पड़ता है और किसी हादसे में पति /पत्नी में से किसी एक की मृत्यु पर भी ...और वह दम्पति भी जो साथ चलने की कोशिश में तो थे पर साढ़ चल न सके और तलाक /डाइवोर्स हो गया और बच्चोंबच्ज्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी माँ पर आ गयी...ऐसी स्थिति में बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी किसकी हो ?...और अब संयुक्त परिवार भी तो नहीं ... पर ऐसे में उस नन्हें नागरिक का दोष क्या है जो धरती पर आ गया और उसे बड़ा होना है ? इस लिए सिंगिल पेरेंट की बात नहीं बात तो सिंगिल पेरेंट के बच्चों की है और उनकी मानसिकता में आयीं ख़राशों व मनोविज्ञान के फफोलों की होनी चाहिए ...आपके मजे / गलत निर्णय / प्रयोग की सजा वह क्यों भुगते ? ...पर दाम्पत्य या प्यार के प्रयोग की असफलता का बोझ स्त्री को ही ढोना पड़ता है पुरुष को नहीं क्यों कि पुरुष पर बच्चों की जिम्मेदारी से भाग खड़े होने का विकल्प है जबकि माँ विकल्प नहीं संकल्प का नाम है . मैंने यहाँ माँ की भावनाओं का वस्तुनिष्ठ परीक्षण करने का कोई दुस्साहस नहीं किया है ...बस यहाँ भावनात्मक नहीं भौतिक स्थितियों की समीक्षा है ." ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, June 11, 2015

योग क्या है ? ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ?

" योग क्या है ? ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ?...किस दिशा दशा में हैं ? ...संयोग से सृजन होता है और सृजन होते ही विसृजन ( जिसे अपभ्रंश करके लोग "विसर्जन" कहते हैं ) की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है ...जिन तत्वों के योग से हम अस्तित्व में आये उनका वियोग प्रारंभ हो जाता है ...क्षरण की प्रक्रिया ...विकिरण की प्रक्रिया ...हम ब्रम्हांड में विलीन होने लगते हैं ... जन्म के बाद / सृजन के बाद फिर जन्म तो होना नहीं है ... जन्म होते ही मरने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ...मृत्य निश्चित है ...मृत्यु हमारे सृजन का विसृजन है ...आन्तरिक तत्वों के संगठन का विघटन है ...और इस विसृजन की ...इस विघटन की प्रक्रिया को यानी मृत्यु को आगे धकेलना ...टालना ...विलंबित करना तभी संभव है जब विघटन को , विसृजन को , वियोग को रोका जाए या उसकी प्रक्रिया को धीमा कर दिया जाए ...इसी आंतरिक तत्वों के वियोग को रोकना ही "योग" है . हिन्दवी लोकचेतना कहती है --- " क्षिति जल पावक गगन समीरा / पंच तत्व का अधम शरीरा ." तो इस्लाम को इह्लाम होता है --" जिन्दगी क्या है अनासिर का जहूर -ऐ -तरतीब / मौत क्या है इन्हीं अजीजाँ का परेशान होना ." कुल मिला कर बात एक ही है ...जब स्त्री पुरुष /प्रकृति /परमेश्वर , मौसम , वातावरण ,आकांक्षा ...देह ...दैहिक रसायन का संयोग होता है तो शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का प्रवाह होता है ...असंख्य शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) प्रवाहित होते हैं ...पर अधिकाँश योग नहीं बना पाते तो संयोग की अवस्था के पहले ही समाप्त हो जाते हैं ...निष्प्रयोज्य ...कुछ शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का भी संयोग होता है ...अगर पुरुष-स्त्री की तरफ से प्रवाहित शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) में Y Y शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का योग हुआ तो यह संयोग लड़की (स्त्री ) का सृजन करता है और यदि पुरुष -स्त्री की तरफ से प्रवाहित शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) में XY शुक्राणु ( क्रोमोसोम ) का योग हुआ तो वह संयोग लड़के (पुरुष ) का सृजन करता है . लड़की (स्त्री ) में जब तक यह योग बना रहता है उसका स्त्रीत्व बना रहता है और जब इस योग में वियोग की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है स्त्रीत्व जाने लगता है ...मोनोपौज़ की आहट से बौखलाहट होती है ...जिन्दगी जा रही है ...दांत साथ निभाना कम करते हैं ...जिन्दगी जा रही है ...सर पर बाल कम होने लगते हैं सफ़ेद होने लगते हैं ...जिन्दगी से रंग जा रहा है ...जिन्दगी जा रही है ... चेहरे पर झुर्रियां आ चली हैं ...शरीर के अंग स्पेयर पार्ट्स चरमराने लगे हैं ...दर्द करने लगे हैं ...योग वियोग में बदल रहा है ...रोको !! ...रोको !! ...पर कैसे ? ...लड़के (पुरुष ) की जिन्दगी में भी यही हो रहा है ...मन और शरीर का संयोग सृजन में स्त्री का सहायक था साझीदार था ...अब मन और शरीर का योग धीरे धीरे वियोग की तरफ चल पड़ा है ...मन में कामाकान्क्षा है पर शरीर सहयोग नहीं दे रहा ...मन में रस है , अच्छा भोजन करने की इच्छा है पर पाचन क्रिया साथ नहीं दे रही ...मन दौड़ रहा है और शरीर दौड़ नहीं पा रहा घिसट रहा है ...वह योग जो हर रास रंग स्वाद में संयोग बनाता था अब असहयोग कर रहा है ...वियोग की और चल पड़ा ...जीवन जा रहा है ...योग टूट रहा है ......रोको !! ...रोको !! ...पर कैसे ?...यही वह अवसर है जब आपको योग की जरूरत है ...बेहद जरूरत है ...पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है ...मन शरीर और शरीर के विभिन्न अंग आपस में योग की अवस्था में होंगे तो संयोग भी संभव है ...और संयोग में जीवन संगीत निकलेगा ...सुन नहीं सकोगे इस संगीत को अनुभूति करोगे ...और अगर मन शरीर और शरीर के विभिन्न अंग आपस में असहयोग की अवस्था में होंगे तो वियोग अवश्यमभावी है ...और इस वियोग में ...शरीर के मन और चेतना के वियोग में शरीर के विभिन्न अंग परस्पर असहयोग करेंगे ...असहयोग में अशांति होगी ...शरीर के विभिन्न अंग कराहेंगे ...चीखोगे / रोओगे ...आत्मा आर्तनाद करेगी ...जब तक योग है संयोग की संभावना है तब तक सामंजस्य है और सामंजस्य को ही संगीत कहते हैं ...जीवन संगीत ...जैसे ही विभिन्न अंगों की ...शरीर और मष्तिष्क की यह लयबद्धता टूटी चीख पड़ोगे ...जीवन का संगीत खो चुके होगे और शोर निकलेगा ...यह वियोग की सुरूआत है ..रोको इसे ...इसके लिए जरूरी है योग ...योग माने Integration ... कुछ का integration हुआ ही नहीं ...कुछ disintegrate होगये ...कुछ की Integrity Doubtful है ....योग का विरोध करने वाले लोगों की Integrity Doubtful है ... Integrity माने व्यक्तित्व की एकजुटता अक्षतता निष्ठा . ---- योग ...संयोग ...वियोग ...उपयोग ...जीवन की यात्रा में आप कहाँ हैं ? ...अपने बिखरते जीवन को बटोरिये ...जीवन के इसी बिखराव के बटोरने की क्रिया को ही तो "योग" कहते हैं ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 8, 2015

शिक्षा की दशा दिशा और दुर्दशा





"जारों साल से चिल्ला रहे हो --"सर्वे भवन्तु सुखिनः..." क्या हुआ...? ...कुछ कर पाए ? ...इस दिशा में कोई प्रयास कभी कर पाए ?...पहले गुलाम थे तो कुछ नहीं कर सकते थे पर आज़ादी के इन 68 वर्षों में ही क्या कर लिया ? ...समान शिक्षा ...समान चिकित्सा...समान न्याय का नारा आज भी मुँह बाए खड़ा है ...और तुम हजारों साल से चिल्लाये जा रहे हो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' ।"---- राजीव चतुर्वेदी



" शिक्षक से आखिर चाहते क्या हैं ? ... पढाये ? ... पढ़ाने देते ही कब हैं ? ... कर्मठ शिक्षक /शिक्षिकाएं काम के से बोझ पिस रहे हैं और हरामखोर शिक्षक ऐश कर रहे हैं और हर सुविधा के बदले अधिकारी कैश कर रहे हैं ...हरामखोर शिक्षिकाएं या तो शिक्षा विभाग के दलाल कमीनों को कमीशन दे रही हैं यह अपनी सुविधाओं के विस्तार के लिए अधिकारियों के विस्तर के विस्तार का हिसा हैं ...हरामियों के हरम गरम हैं . इन न पढ़ाने वाले , प्रायः स्कूल ही न जाने वाले अध्यापक /अध्यापिकाओं की लम्बी फेहरिस्त है जो बिना कुछ ख़ास काम किये तनख्वाह ले रही है और बदले में अध्यापकों की फ़ौज मौज के बदले कुछ दे रही है और शिक्षिकाओं की फ़ौज मौज के बदले "बहुत कुछ" दे रही है ...इसके लिए अधिकारियों की शिक्षणेतर शारीरिक आर्थिक सेवाएं आवश्यकता के अनुसार करनी पड़ती हैं ...माँग और आपूर्ति के इस खेल में शिक्षिकाओं की मांग का सिन्दूर उनका अवमूल्यन करता है . पर भेड़ियों के अलावा गिद्ध भी तो हैं शिकार शिक्षिका का माँस नोचने को ...ऐसे वातावरण में विशुद्ध अध्यापन की आकांक्षा वाले अध्यापक /अध्यापिका क्या करें ? ... सरकारी योजनाओं में शिक्षणेतर कार्यों की लम्बी फेहरिश्त है ... मसलन जन गणना, भवन गणना ,आर्थिक गणना ,स्वास्थ परिक्षण, हाउस होल्ड सर्वे (बाल गणना),वोटर लिस्ट पुनरीक्षण(BLO) ,पशु गणना ,आधार कार्ड कैंप, पिछड़ी जाति गणना , छात्र वृत्ति का खाता खुलवाने की ड्यूटी , पल्स पोलियो की ड्यूटी ,भवन निर्माण,निर्वाचन में ड्यूटी ये विद्यालय से इतर है और मिड डे मील ,गैस सिलेंडर मंगाने की जिम्मेदारी,ड्रेस वितरण (बिना बजट आये दूकान वालो से उधार मांग कर कपडे बितरणका आदेश),रंगाई पुताई ,फर्नीचर क्रय ,पुस्तक वितरण व् उक्त के अभिलेख सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी , समाजवादी पेंशन प्रधान की संस्तुति का सर्वे और इन कार्यो के लिए कोई यात्रा भत्ता भी नही है । यही नहीं अखिलेश सरकार ने बच्चों को दूध पिलाने की योजना भी बनानी शुरू कर दी है . ...सरकारी शिक्षा के ऐसे परिदृश्य में अगर कुछ कर्मठ शिक्षक हैं तो कामचोर /हरामखोर अध्यापक /अध्यापिकाओं की एक निरंतर बड़ी होती फ़ौज भी है जो शिक्षणेतर सेवाएं दे कर काम चोरी करते हैं ...हर जिले में कुछ खुरापाती सप्लायर और प्रबंधक किस्म के मास्टर हैं तो कुछ खाला टाईप की अध्यापिकाएं भी और यह गिरोह बेसिक शिक्षा अधिकारियों , खंड बेसिक शिक्षा अधिकारियों सहित अन्य अधिकारियों के दैहिक दैविक भौतिक ताप हरण के/की प्रबंधक हैं ... इस वातावरण में शिक्षा की दशा दिशा और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों /अध्यापिकाओं की दुर्दशा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है ." ---- राजीव चतुर्वेदी


"ग्रामीण भारत के स्कूलों की दशा और दिशा पर गौर करें । स्कूलों में "मिड डे मील" तो बच्चों को स्कूल में बुलाने का चुगा है । दरअसल शहर के साहबों को अपनी औलादों की सेवा के लिए नौकर ढालने हैं । ...गाँव के स्कूल बच्चों को मनरेगा का मजदूर ढालने के कारखाने हो चुके हैं । ...सामान शिक्षा का नारा आज भी मुंह बाए खड़ा है । दूर देहात गाँव के स्कूलों में पढ़ाई होती ही कब है ?...मां बाप बच्चों को पढने के लिए गंभीर नहीं हैं ...मास्टर प्रायः अनुपस्थित रहते हैं या डग्गेमारी करते हैं । इन पर नियंत्रण कौन करे ? प्रधान से ले कर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ।अध्यापकों को कामचोरी की सुविधा के बदले सुविधा शुल्क देना है तो महिला अध्यापकों को आर्थिक ही नहीं दैहिक शुल्क भी चुकाने पड़ रहे हैं । आप किसी बेसिक शिक्षा अधिकारी यानी BSA को देखिये निश्चय ही घूसखोर होगा साक्षात सुअर जैसा व्यक्तित्व बन चुका है ...कर्म कुकर्म का भेद नहीं है ...खाद्य कुखाद्य का भेद नहीं है ...अधिकारों के दुरूपयोग की गर्जना है पर चरित्र की वर्जना नहीं है ...महिला अध्यापकों को अगर पढाना नहीं है ...पढ़ाने के लिए स्कूल जाना नहीं है तो हरामखोरी के बदले इन छोटे बड़े मझोले अधिकारियों के "हरम" में शामिल होना होता है ।घूसखोर अध्यापिकाखोर अधिकारी और हरामखोर मास्टर के बीच एक दुरभिसंधि है...सुविधा के बदले दैहिक सहमति देती अध्यापिकाएं ...कामचोरी के बदले घूस देते अध्यापक ...स्कूल की जर्जर इमारत में बाजीफे के पैसों से दारू पीते ग्राम प्रधान और सामान चरित्र वाले अध्यापक कैसा राष्ट्र निर्माण करेंगे ? ...इन ग्रामीण स्कूलों की इमारतें हैं जैसे शिक्षा विभाग के अधिकारियों के चरित्र की इबारतें ...ग्रामीण स्कूलों की इमारत उतनी ही जर्जर और घटिया हैं कि जितना शिक्षा विभाग के प्रायः अधिकारियों का चरित्र . ( निश्चित रूप से शिक्षा विभाग में भी कुछ ईमानदार और कुछ आंशिक भ्रष्ट अधिकारी होंगे ,-- वह अपवाद हैं . मैं उस अपवाद पर प्रतिवाद नहीं कर रहा )....आज ग्राणीण भारत के स्कूल मनरेगा के मजदूर ढालने के कारखाने हो चुके हैं ।"---- राजीव चतुर्वेदी


"सावधान !! यह शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों का बचपना और युवाओं की तरुणाई छीन रही है और पूरी की पूरी पीढी को कुंठित बना रही है. जिनको हम मास्टर / शिक्षक कहते हैं उनके बारे में भ्रम यदि हो तो दूर कर लें. जो मेडीकल एंट्रेंस की परिक्षा में फेल हो जाता है वह जीव विज्ञान का मास्टर बनता है, जो इन्जीनियरिंग की एंट्रेंस परिक्षा में फेल हो जाता है वह फिजिक्स या गणित का मास्टर बनता है. हिन्दी का मास्टर हिन्दी का बड़ा कवि या साहित्यकार नहीं हुआ और अंगरेजी का मास्टर अंगरेजी का बड़ा लेखक नहीं हुआ. अमेरिका अर्थशास्त्र के 62 मास्टरों /प्रोफेसरों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरष्कार मिला तो उसकी अर्थ व्यवस्था गर्त में चली गयी. पूरी दुनिया में राजनीति शास्त्र का कोई मास्टर सीनेट या संसद या विधान सभा का सदस्य होना तो दूर सभासद भी नहीं हो सका है.मतलब साफ़ है या तो वह जिस विषय को पढता-पढाता आ रहा है वह राजनीति नहीं है या वह राजनीति समझता ही नहीं है और अपने ही विषय में अयोग्य है. जो मास्टर विधि (Ll.B.) पढ़ाते हैं वह अछे वकील नहीं हैं. कुछ इस तरह के मास्टरों के दिए अंकों से हम किसी की योग्यता भला कैसे नाप सकते हैं ? ...डॉक्टरेट यानी Ph.D. का सच अब लोगबाग जान चले हैं ...इसका रास्ता शोधार्थी के लिए गाईड की चाकरी से अधिक कुछ भी नहीं ...छोटी नियत के गाईड की टुच्ची लुच्ची आकांक्षाएं और आख़िरी दिन 25-30 हजार रुपये की दान दक्षिणा ...जो बेचारी लडकीयाँ शोध करती हैं वह अपने गाइड के किन देहिक /दैविक /भौतिक ताप को हरने को मजबूर की जाती हैं यह सार्जनिक सच सत्यापन का मोहताज नहीं. "वो क्या बताएंगे राह हमको, जिन्हें खुद अपना पता नहीं है" . इस तरह के शिक्षक ...इस तरह की शिक्षा प्रणाली हमारी पीढियां नष्ट कर रही है." ---राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, June 2, 2015

वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ?

"वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ? ... फिर समझ तो राम भी नहीं सके थे ... रावण थोड़ा-थोड़ा समझा था ... कृष्ण भी समझे नहीं थे, राधा ने समझा दिया था और रुक्मणी रुक गयी थी देह की दहलीज पर ... समझे तो बुद्ध भी नहीं थे, यशोधरा ने समझा तो था पर विदेह की यात्रा नहीं शुरू की ...मीरा ने वैदेहीकरण की क्रान्ति कर दी थी ...पहली बार प्यार में कोई स्त्री वैदेही नहीं हो रही थी बल्कि उसने पुरुष को विदेह कर दिया था ... मीरा के सामने कृष्ण विदेह थे ... साकार से सरोकार और निराकार से निर्लिप्त किन्तु अनंत अतृप्त ... वैदेही होने के लिए देह होना जरूरी है, ...निर्देही नहीं सदेही ...और देह के प्रति सरोकार, तिरष्कार, पुरुष्कार, अधिकार को प्रतीत ही नहीं व्यतीत करके अतीत करना ..."बीतराग" ...अनुराग से बीतराग तक की यात्रा का पूर्णविराम है वैदेही ...वैदेही माने भौतिकता से भावनात्मकता की यात्रा का पूरा होना ...रजनीश ने इस वैदेही की यात्रा को शुरू होने के पहले ही रोका टोका और भावनाओं का झंडा लहराते भटक गए ...लाओत्से ने कल्पना तो की पर राग से आग तक आ कर बीतराग के बाहर ही रुक गए...सुकरात ,नीत्से ,फ्रायड देह पर ही अटके भटके रहे ...पातांजलि ने प्रेम की ज्योमिती में स्थूल शरीर और आत्मा के योग -वियोग तक आ गए पर विदेह की व्याख्या करते इसके पहले उनका समय समाप्त हो गया था ...यों तो पार्वती के प्रतिष्ठान में शंकर भी रुके थे ... मोहम्मद व्यसन और वासना में उलझे थे, उपासना की ओर एक कदम भी नहीं चले ...मरियम बढ़ती तो है पर ठिठक जाती है ... सीता, राधा और मीरा वैदेही की यात्रा पूरी करती हैं ...यशोधरा रास्ता बताती तो है पर फिर चुप हो जाती है ...सीता देह से वैदेही होने की यात्रा पूरी करती है ... राधा कभी खुद वैदेही होती है कभी कृष्ण को विदेह करती है ...और मीरा कृष्ण को कालजयी विदेह रूप में देखती है स्वीकार करती है ...मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं है वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह , न सुविधा , न वैभव , न देह , न वासना केवल उपासना ...उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए ...मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए .मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है . मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता . वह भी मीरा की भावना . मीरा को कृष्ण से कुछ भी नहीं चाहिए ...न भौतिकता और न भावना , न देह ,न स्नेह , न वासना ...मीरा के प्रेम में देना ही देना है पाना कुछ भी नहीं . मीरा के प्यार की परिधि में न राजनीती है, न अर्थशास्त्र न समाज शास्त्र . मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण . मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है ...मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं . जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे ... वह लोग भौतिक हैं ...दहेज़ ,गहने , वैभव , देह सभी कुछ भौतिक है इसमें भावना कहाँ ? प्यार कहाँ ? वासना भरपूर है पर परस्पर उपासना कहाँ ? देह के मामले में Give & Take के रिश्ते हैं ...तुझसे मुझे और मुझसे तुझे क्या मिला ? --- बस इसके रिश्ते हैं और मीरा व्यापार नहीं जानती उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए ...कृष्ण से भी नहीं ...कृष्ण अपना वैभव , राजपाठ , ऐश्वर्य , भाग्वाद्ता , धन दौलत , ख्याति , कृपा ,प्यार, देह सब अपने पास रख लें ...कृष्ण पर मीरा को देने को कुछ नहीं है और मीरा पर देने को बहुत कुछ है विशुद्ध, बिना किसी योग क्षेम के शर्त रहित शुद्ध प्यार ...मीरा दे रही है , कृष्ण ले रहा है .--- याद रहे देने वाला सदैव बड़ा और लेने वाला सदैव छोटा होता है ....कृष्ण प्यार ले रहे हैं इस लिए इस प्रसंग में मीरा से छोटे हैं और मीरा दे रही है इस लिए इस प्रसंग में कृष्ण से बड़ी है . उपभोक्ता को कृतग्य होना ही होगा ...उपभोक्ता को ऋणी होना ही होगा कृष्ण मीरा के प्यार के उपभोक्ता है उपभोक्ता छोटा होता है और मीरा "प्यार" की उत्पादक है . मीरा को जानते ही समझ में आ जाएगा कि "प्यार " भौतिक नहीं विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है . यह तुम्हारे हीरे के नेकलेस , यह हार , यह अंगूठी , यह कार , यह उपहार सब बेकार यह प्यार की मरीचिका है . भौतिक है और प्यार भौतिक हो ही नहीं सकता ...प्यार केवल देना है ...देना है ...और देना है ...पाना कुछ भी नहीं . --- यह यात्रा है ...आदि और अंत की सीमाओं से परे ...और हम यात्री हैं ...शरीर से आत्मा ...आत्मा से परमात्मा की यात्रा ... साकार से निराकार की यात्रा ... सदेह से विदेह की यात्रा ...देह संदेह और विदेह ... वैदेही को प्रणाम !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, May 26, 2015

भारत की राजनीति की असमंजस का आकार देखें ...

"भारत की राजनीति की असमंजस का आकार देखें ... पूंजीवाद प्रवृति है साम्यवाद /समाजवाद प्रतिक्रिया ...लोकतंत्र "लोक" की सतत इच्छा है ...समाज के मुट्ठीभर किन्तु ताकतवर /गब्बर लोगों के विरुद्ध बहुसंख्यक कमजोरों का सहकारिता प्रयास है जो पूर्ण तह कभी सफल नहीं होता . पूंजीवाद मानव की मूल प्रवृति है इसके प्रतिक्रिया में जब वामपंथी साम्यवादी /समाजवादी आन्दोलन आये तो साम्यवादी /समाजवादी नेता सड़क पर मुंह से चीखते थे --"धन और धरती बाँट के रहेगी " और अपने अंतर्मन में आगे कहते थे -- "अपनी अपनी छोड़ कर " . चूंकि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद /समाजवाद आया इस लिए इन आन्दोलनों के प्रणेता भी प्रवृति और वृत्ति से पूंजीवादी जातियों से ही थे . कार्ल मार्क्स यहूदी थे तो राममनोहर लोहिया मारवाड़ी . चूंकि वामपंथी सोच ने क्रान्ति से तख्ता पलट का हथकंडा अपनाया तो फिर क्रान्ति जहां भी हुयी वहां तानाशाही रही लोकतंत्र की सम्भावना भी नष्ट की जाती रही इसी लिए वामपंथी सोच लोकतंत्र में सदैव असहज हो जाती है ...केजरीवाल की कार्य शैली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के पीछे यह असहजता उनके व्यक्तित्व पर वामपंथी प्रभाव का नतीजा हैं . बहरहाल यहाँ केजरीवाल के बारे में प्रसंगवश नहीं कुसंगवश बात हो गयी . देश की राजनीति आज़ादी से ही नहीं इसके पहले ...बहुत पहले से ही पूंजीवाद और साम्यवाद के असमंजश में रही है ...प्लेटो की रिपब्लिक की अवधारणाओं के पहले ...बहुत पहले महाभारत के शांतिपर्व की राजनीतिक समझ से भी पहले ...ऋग्वेद के साम्यवाद की अवधारणा से भी पहले मानव इतिहास के सबसे पहले गणराज्य यानी Republic के अध्यक्ष गणपति /गणेश के समय से आज़ादी तक और आज़ादी से अब तक भारत राष्ट्र पूंजीवाद और साम्यवाद/समाजवाद के बीच असमंजस में रहा है ...यह असमंजस लोकमान्य बालगंगाधर तिलक में नहीं दिखती पर महात्मा गाँधी में दिखती है ...यह असमंजस संविधान के 42 वें संशोधन में साफ़ साफ़ दिखती है ...यह असमंजस वामपंथ के गर्भ में पलती है और सिंगूर में पूंजीपति टाटा के समर्थन में प्रकट होती है ...यह असमंजस लोहिया के समाजवाद का झंडा उठाये हर फटीचर के नवसामंत/ नवपूंजीपति संस्करण में मिलती है ... यह असमंजस नेहरू में भी थी ,इंदिरा में भी थी अटल बिहारी बाजपेयी में भी थी और नरेंद्र मोदी में भी दिखती है ...दिखे भी क्यों नहीं ? ...वामपंथ को दिया दिखानेवाला चीन अमेरिका के बाद आज पूंजीवाद का सबसे बड़ा ध्रुव है . द्वितीय विश्व युद्ध में रत महाशक्तियों का प्रबंधन ढीला पड़ा और जैसे मवेशीखाने की दीवार गिर गयी हो ...देश आज़ाद होने लगे 1947-48 में लगभग 80 देश आज़ाद हुए राजतन्त्र की राजनीति ने अपना न नाम बदला न नियत सो राजनीति नहीं बदली राजनीति लोकनीति नहीं हो सकी इसलिए राजनीती शास्त्र के सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए ...इस शून्य को कभी अर्थशास्त्र कभी समाजशास्त्र के सिद्धांतों से भरा गया तो आध्यात्म और धर्म ने भी घुसपैंठ की ...मार्क्स ने /लेनिन ने /माओ ने राजनीती को अर्थशास्त्र से जोड़ा , चूंकि अर्थशास्त्र की नियति थी पूंजीवादी होना इसलिए मार्क्सवाद दीर्घायु नहीं हो सका और उसकी परिणिति नवपूंजीवाद में हुयी ...गांधी ने राजनीति को आध्यात्म से जोड़ा और जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ा .अम्बेडकर ने राजनीती को समाजशास्त्र के एक पहलू से जोड़ा तो दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र के दूसरे पहलू से जोड़ा. चूंकि अम्बेडकर और दीनदयाल उपाध्याय राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ कर देखते थे इसी लिए दोनों की विरासत बाली पार्टियों / नेताओं में समय समय पर सामंजस्य देखा जा सकता है (बसपा और भाजपा ) .दीनदयाल उपाध्याय "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत के प्रणेता हैं जो मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और गाँधी के "ट्रस्टीशिप " और "कल्याणकारी गणराज्य " की अवधारणा से एक वैचारिक त्रिभुज बनाता है ...अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक सोच इसी त्रिभुज में उलझी रही ...शायद नरेंद्र मोदी राजनीति शास्त्र की इसी असमंजस से उबरने की कोशिश में हैं ...राजनीती के अलिखित अध्याय अब समाज शास्त्र से लिए जायेंगे न कि अर्थ शास्त्र से ...नरेंद्र मोदी का मथुरा दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली जा कर उनको स्मरण करना इसका द्योतक है कि राष्ट्रीय राजनीती की दिशा और दशा "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत से सामंजस्य बनाने की शुरूआत है ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, May 14, 2015

कविता -- दक्षिणपंथी दड़बों से और वामपंथी कविता के कांजीहाउस से अब आज़ाद हो चुकी है

"कविता किसे कहते हैं ? उसकी दिशा, दशा क्या है ?

कालिदास के समय कविता अभ्यारण्य में थी ...फिर अरण्य में आयी ...फिर कुछ लोगों ने कविता को दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद किया तो वामपंथी कविता के कांजीहाउस उग आये ...आलोचक जैसी स्वयंभू संस्थाएं कविता की तहबाजारी /ठेकेदारी करने लगे ...कविता की आढ़तों पर कविता के आढ़तियों और कविता की तहबाजारी के ठेकेदार आलोचकों से गंडा ताबीज़ बंधवाना जरूरी हो गया था .

दक्षिणपंथियों ने कविता को अपने दकियानूसी दड़बे में कैद किया ...छंद, सोरठा, मुक्तक, चौपाई आदि की विधाओं से इतर रचना को कविता की मान्यता नहीं दी गयी ...शर्त थी शब्दों की तुक और अर्थों की लयबद्धता ...विचारों की लयबद्धता जैसे कविता का सरोकार ही न हो ...इन दक्षिणपंथी कवियों की परम्परा के प्रतीक पुरुष बन कर उभरे कवि तुलसीदास . तुलसीदास उसी दौर में थे जब भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थिर हो कर अपनी जड़ें जमा रहा था और उर्दू कविता ने अपने काव्य सौष्ठव के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए थे ...मुगलकाल में लिखित रामायण में तुलसीदास ने समकालीन त्रासदी का वर्णन करना तो दूर उसे कहीं छुआ भी नहीं और प्रभु आराधना करते रहे ...सांस्कृतिक अभ्यारण्य से घसीट कर कालिदास कालीन कविता को दक्षिणपंथी दड़बे में अब ठूंसा जा रहा था ...कविता की आवश्यक शर्त थी छंद /सोरठा /चौपाई /मुक्तक और शाब्दिक तुकबंदी पर पूरा ध्यान था ...इस बीच कुछ कविता दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बे से निकल भागीं और कुछ दड़बे में घुसी ही नहीं ...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुश्किन की उंगली पकड़ कर भारत में प्रयोगवादी कवियों ने प्रवेश किया ...खलील जिब्रान और डेज़ोइटी ने दस्तक दी ...रूढ़िवादी परम्परागत कविता में प्रयोग हुए और क्रमशः कविता छंद के बंद तोड़ कर ...मुक्तक से मुक्त हो बह चली ...शब्दों की तुकबंदी छोड़ विचारों की तुकबंदी और शब्दों की लयबद्धता को वरीयता मिली ...भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता के साथ ही यह कविता भी अंकुरित हुयी और 1975 में आपातकाल आते ही यह कविता आकार लेने लगी ...यह वामपंथी तेवर और चरित्र की कविता थी ...वामपंथी कभी देश की आज़ादी के लिए नहीं लड़े ...आपातकाल में इंदिरा गांधी से भी नहीं लड़े ...भारतीय वामपंथी वस्तुतः क्रान्ति नहीं क्रान्ति मंचन करने में निपुण थे ...कुछ वामपंथी क्रान्ति का मंजन कर सत्तारुढ़ कोंग्रेस के सामने खीसें निपोरने में भी दक्ष थे ... यह लोग लड़ते नहीं थे किन्तु लड़ते हुए दिखते जरूर थे ...दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणपंथियों का गढ़ बन चुका था सो इंदिरा गांधी ने दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय शुरू किया कोंग्रेसपरस्त वामपंथी नामवर सिंह को वाराणसी से ला कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निरूपित किया गया और इस प्रकार वामपंथी कविता का एक खेमा अलग हुआ ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता "लिबरेट " हो रही थी ...उस पर डिबेट हो रही थी और बागी कविता "सेलीबरेट" ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में किशोर होती कविता को वामपंथी भगा लाये थे ... द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ग्रसित वामपंथी द्वंद्व में थे ...जो वामपंथी रूस की कृपा पर अपनी समृद्धि का समाजशास्त्र पढ़ रहें थे वह रूस की दलाली के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में लग गए बाकी वामपंथियों ने चीन के इशारे पर भारत की संघीय सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की इसके लिए क़त्ल और कविता दोनों को हथियार बनाया गया ...नक्सली हिंसा के साथ नक्सली कवि भी आये ...लाशों पर कविता का कफ़न उढाती कवितायें आयीं ...भूख पर, बेरोजगारी पर, राजसत्ता के दमन पर कविता का परचम फहराया गया ...अभिजात्य वामपंथियों ने गरीब को, सर्वहारा को अपने अभियान का टायर बनाया और घिस जाने पर बदलते रहे किन्तु वामपंथी अभियान का स्टेयरिंग सदैव अभिजात्य ही रहा ...अब कविता वैचारिक लयबद्धता भी खो कर केवल नारेबाजी बन चुकी थी ... कविता गुलेल थी और उससे शब्दों के पत्थर प्रतिष्ठानों पर फेंके जा रहे थे ... अब कविता सुन्दर शालीन संगीतमय कविता नहीं थी ...अब कविता केबरे कर रही थी ...कविता में आक्रोश नहीं कुंठा थी ...अब कवि बनने के लिए वामपंथीयों से गंडा ताबीज़ बंधवाना बहुत जरूरी होगया था ...वामपंथी कविता के प्रकाशक /ठेकेदार , तहबाजारी करते आलोचक कविता को अपनी कानी आँख से देख रहे थे ...तुर्रा यह कि जिसकी दायीं दृष्टि नहीं हो और केवल बाईं हो तो वह वामपंथी ... हिन्दी कविता की यह वामपंथी तहबाजारी /ठेकेदारी भी उतना ही घुटन का दौर था की जितना कविता का परम्परागत दक्षिणपंथी दड़बा ... इस बीच राजनीतिक परिदृश्य बदला कोंग्रेस और वामपंथी ध्वस्त हो गए ...राजनीती के नए ध्रुव उगे ... इस वामपंथी पराभव के अवसाद से ग्रसित लोगों ने आम आदमी पार्टी की झोपड़ी में अपनी खोपड़ी ठूंस कर नरेंद्र मोदी की आंधी से अपनी अस्मत बचाई ... इस बदले परिदृश्य में कविता मुक्त हो चुकी थी ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता बाहर कब की निकल चुकी थी और वामपंथी कविता के कांजी हाउस भी राजनीतिक परिवर्तन की आंधी में तहसनहस हो गए थे ...  वामपंथी कविता के कांजीहाउस के टूटने का श्यापा अब साहित्यिक गोष्ठीयो / सेमीनारों में सुनायी देता है  ... "गिद्धों के कोसे ढोर नहीं मरते और सिद्धों के आशीर्वाद से सिकंदर नहीं बनते" ... यह वामपंथी रुदालियाँ कविता की सास हो सकती हैं, बहू नहीं .

बधाई ! ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद या वामपंथी कविता के कांजीहाउस में कानी आँख से क्रान्ति काँखती कविता अब तक आज़ाद हो चुकी है ...हे रचनाधर्मियो !! अब इसे किसी भी खूंटे से बंधने न देना ...खूंटे से बंधा साहित्य एक परिधि में घूमता है और उस परिधि की एक निश्चित अवधि होती है ... फिर चाहे वह दक्षिण पंथी दकियानूसी खूंटा हो या क्रान्ति काँखता वामपंथी खूंटा ... साहित्य परिधि में परिक्रमा नहीं करता साहित्य सदैव क्षेतिजिक होता है .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

Monday, May 11, 2015

कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने

"कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने
स्वार्थ में बँट चुके खुदगर्ज खुदा थे अपने
खुद को रिश्तों और फरिश्तों में हमने बाँट लिया
हर्फ़ तो एक पर ज़र्फ़ जुदा थे अपने
यह इत्तफाक था कि हम एक ही रास्ते के राहगीर हुए

यह हकीकत थी कि सराय एक थी स्वभाव जुदा थे अपने
प्यार रिश्तों में अहम था पर वहम ही निकला
मुहब्बत की इबारत में तिजारत झाँकती थी
अंदाज़ एक सा पर अहसास जुदा थे अपने
जब जरूरत पड़ी तो जज्वात भी हमने बाँट लिए
जरिया और नजरिया जुदा होता तो चल भी जाता
समंदर एक था साहिल ही जुदा थे अपने
तू भी एक रोज कश्ती सी कहीं डूब गयी
मैं भी लहूलुहान सूरज सा समंदर में हर शाम डूबता ही रहा
कहानी एक अंजाम जुदा थे अपने ."

------- राजीव चतुर्वेदी

Monday, May 4, 2015

सौंदर्य ...बड़ा सुन्दर सा शब्द है ...और रहस्यमयी भी ...हो भी क्यों नहीं ?


"सौंदर्य ...बड़ा सुन्दर सा शब्द है ...और रहस्यमयी भी ...हो भी क्यों नहीं ?

"नैसर्गिक सौंदर्य" एक तरफ है ...देवत्व की ओर जाता ...विकिरित होता ...आवरण नहीं आत्मा का ओज लिए ...और दूसरी तरफ ब्यूटी पार्लर के दरवाजे में घुसता निकलता ...किसी भूतनी सी शहनाज़ हुसैन को सुन्दर समझता "संसर्गिक सौंदर्य" है ... यह सौंदर्य विकिरित नहीं संक्रमित होता है ... बाहर से खींच कर अंदर ले जाना चाहता है ...संसर्ग की आकांक्षा का सौंदर्य । ... आस्था चैनल पर प्रस्तुति देने वाली शिवानी मुझे शहनाज़ हुसैन से
कई गुना सुन्दर लगती है ... शिवानी नैसर्गिक सौंदर्य का एक उदाहरण है और कोई करीना कपूर संसर्गिक सौंदर्य का ।...नैसर्गिक सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ बढ़ती जाती है और संसर्ग के सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ घटती जाती है ...दिन में भी घटती है और रात को और ज्यादा घटती है ...फिर आत्मा के गड्ढे आवरण यानी चमड़ी पर भी उभर आते हैं ...चमड़ी में सौंदर्य प्रसाधन कई तरह की पुट्टी भरते हैं रंग भरते हैं ...सौंदर्य अंदर से नहीं आ रहा बाहर से थोपा जा रहा है ।...सौंदर्य का उद्देश्य क्या है ? ...अँधेरे से प्रकाश की और ले जाना । वह कथित सौंदर्य जो प्रकाश से अँधेरे की ओर ले जाता हो .... लाइट ऑफ़ करने को उत्प्रेरित करता हो ...दिमाग की भी बत्ती गुल कर देता हो वह सौंदर्य नहीं छल है ...मरीचिका है ... संसर्गिक है ।...सावधान !...आगे ख़तरनाक मोड़ है ।"----- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, May 2, 2015

"शूद्र" कौन ?


"शूद्र" कौन ?
स्कन्द पुराण और मनुस्मृति के अनुसार --
"जन्मनाजायते शूद्रः
संस्कारत द्विजोच्चते ।"

यानी जन्म से सभी शूद्र होते हैं प्रकारान्तर में संस्कारों से या यों कहें कि शिक्षा साहित्य श्रेष्ठ जनों की संगत से व्यजतित्व परिमार्जित हो कर "द्विज " (twice born या double refined ) हो जाता है ।

नारायण स्मृति में "शूद्र" का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है
.
--- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, April 23, 2015

हम भी जिम्मेदार हैं हर किसान की आत्म हत्या के





" चुप ...बिलकुल चुप पाखंडियो ...!!
किसानों की आत्म हत्या पर घडियाली आँसू बहा कर अपने सिवा सभी को कोसते पाखंडियो ...अगर गेंहूं 25/- रुपये किलो हो जाए तो हम में से कितने लोग हैं जो खुश होंगे ?
दवा मंहगी , दारू मंहगी , बिजली मंहगी ,डीज़ल मंहगा ...एक एक कर सारे औद्योगिक उत्पाद मंहगे ...कारें मंहगी , शिक्षा मंहगी , चिकित्सा मंहगी ...पर जैसे ही कृषि उत्पाद मंहगे होते हैं चिल्लाने लगते हो ?...क्या किसान
को अपने बेटे को पढ़ाना नहीं है ? ...क्या किसान को इलाज नहीं करवाना है ? ...फिर उसके उत्पाद न मंहगे हों बाकी सभी के उत्पाद मंहगे हों ;---क्यों ? ...क्योंकि यह द्वंद्व है खाने वाले और खिलाने वाले का ...हम सस्ता खाना चाहते हैं और किसान को उसके उत्पादन का तर्क संगत मुनाफा तो दूर उत्पादन लागत भी नहीं देना चाहते ...परिणाम कि आज कृषि अलाभकारी व्यवसाय है ...खेतों में फसल की जगह प्लौट उगने लगे हैं .
कल्पना करिए कि आपके यहाँ बेटे का रिश्ता ले कर कोई आया है ...आप स्वाभाविक जिज्ञाषा से पूछते हैं -- "श्री मान आप क्या करते हैं ?" उत्तर मिलता है कि शराब का काम करते हैं तो आपके मन में उसका दबदबा कायम हो जाता है और अगर वह कहे कि-- " दूध बेचते हैं " तो आपकी नज़र में वह गिर जाता है .--- यह है आपका चरित्र . परिणाम शराब मंहगी और दूध सस्ता है फिर भी शराब की दुकानों पर भीड़ है और दूध की दुकानों पर सन्नाटा है ...फलों के जूस की दूकानें ध्वस्त करते मुनिस्पेलिटी के लोग आपने देखे होंगे पर क्या कभी शराब की दूकान ध्वस्त करते किसी सरकारी अमले को देखा है ?...अगर शराब 200/ रुपये लिटर लाइंन लगा कर बिक रही है तो दूध 250/- लिटर क्यों नहीं ?...फलों का जूस 300/- लिटर क्यों नहीं ? ...करके देखो पूंजी का प्रवाह शहर से गाँव की तरफ हो जाएगा . पर तुम पाखंडी हो किसानों के लिए सिंथेटिक आंसू बहाने वाले सुविधाजीवी शहरी हो कृषि उत्पादन का मंहगा होना किसानो को लाभ देगा ...कृषि को लाभकारी बनाएगा ...गाँव का पलायन शहरों की और रुक जाएगा फिर तुमको शहरों में सस्ते मजदूर /नौकर / कर्मचारी नहीं मिलेंगे ...इण्डिया को भारतीय गुलामों की जरूरत है ....रोशनी ,रास्ते ,राशन और रोजगार पर शहरों का कब्ज़ा है ...ट्यूब लाइटें शिर्फ़ शहरों में ही जगमगाती हैं और असली ग्रामीण भारत में अभी अँधेरा है .
आपको टीवी के, वाशिंग मशीन के, कार के, यात्रा के, शिक्षा के, चिकित्सा के, मंहगा होने पर कोई खास बेचैनी नहीं होती किन्तु कृषि उत्पाद के मंहगा होते ही बहुत बेचैनी होती है क्योंकि आप खुद किसान को फलते फूलते नहीं देखना चाहते ....सातवें वेतन आयोग के लिए उत्सुक लोगो आप नहीं चाहते की कृषि लाभकारी हो ...आप नहीं चाहते कि कृषि उत्पाद मंहगे हों ...वर्तमान मूल्य पर कृषि अलाभकारी है ...घाटे की है ...अगर वास्तव में चाहते हो कि किसान आत्महत्या न करे तो आवाज़ दो ...गेंहूं मंहगा हो ...आलू मंहगा हो ...अनाज /सब्जी मंहगी हों ...दूध मंहगा हो ...घी /मक्खन मंहगा हो ...सभी कृषि उत्पाद मंहगे हों ...क्या हम इतने ईमानदार हैं कि कृषि उत्पादों को मंहगा करने का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ेंगे ? ...नहीं न तो फिर हम भी जिम्मेदार हैं हर किसान की आत्म हत्या के ."
---- राजीव चतुर्वेदी



"फसल ...
खडी होने तक हर हरामखोर फासले पर रहता है
और अपने बच्चों से भी फसल से फासला रखने को कहता है
फसल की प्यास छीन कर वह स्वीमिंगपूल में पानी भरता है
फसल में शामिल है किसान की उदासी
फसल में शामिल है नहर की खंती
फसल में शामिल है सूरज की किरण और उसमें पकता हुआ किसान
फसल में शामिल है नीलगाय से जूझता किसान
फसल में शामिल है किसान का वह पसीना
जिसको क्या समझेगी कोई हरामखोर हसीना
फसल में शामिल है पाताल का पानी और थोड़ी ओस
फसल में शामिल है आढ़तिये की मक्कारी और किसान का जोश
कुछ हवा ...थोड़ी चांदनी ...सहेज के रखा गया किसान की बेटी का दहेज़
फसल में शामिल है किसान के बच्चे के मटमैले से सपने
फसल में शामिल हैं किसान के कुछ अपने
फसल में शामिल है टाट -पट्टी के स्कूल की भी न चुकाई गयी फीस
फसल में शामिल है गाय का रम्भाना ...बैल का मर जाना
...ट्रेक्टर की कमर तोडती किश्त
यों समझ लो कि फसल में पूरी सृष्टि और थोड़ी वृष्टि शामिल है
फसल में शामिल है पूरी की पूरी कायनात
फसल में नहीं शामिल हैं कोई अर्जुन ...कोई नागार्जुन ...हम और आप
हम शामिल हो जायेगे तो यह साहित्यिक लफ्फाजी कौन करेगा ?
फसल ...
खडी होने तक हर हरामखोर फासले पर रहता है
और अपने बच्चों से भी फसल से फासला रखने को कहता है .
" ---- राजीव चतुर्वेदी