Monday, March 23, 2015

मेहतर एवं एनी छोटी जातियां --- कौन हैं यह लोग ?

क्या आप जानते हैं कि हमलोगों ने जिन भंगी और मेहतर जाति को अछूत करार दिया और जिनके हाथ का छुआ तक आज भी बहुत सारे हिंदू नहीं खाते, उनका पूरा इतिहास साहस, त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है।
मुगल काल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को दो रास्ते दिए गए, या तो इस्लाम कबूल करो या फिर मुसलमानों का मैला ढोओ क्योंकि तब भारतीय समाज में इन दोनों समुदायों का अत्यंत सम्मान था और इनके लिए ऐसा घृणित कार्य करना मर जाने के समान था। इसीलिए मुगलों ने इनके धर्मान्तरण के लिए यह तरीका अपनाया। आप किसी भी मुगल किले में चले जाओ वहां आपको शौचालय नहीं मिलेगा।
जबकि हजारों साल पुरानी हिंदुओं की उन्नत सिंधु घाटी सभ्यता के खण्डहरों में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है।
सुल्तानों और मुगलों को शौचालय निर्माण का ज्ञान तक नहीं था। दिल्ली सल्तनत में बाबर, अकबर, शाहजहाँ से लेकर सभी मुगल बादशाह बर्तनों में शौच करते थे, जिन्हें उन ब्राहम्णों और क्षत्रियों के परिजनों से फिकवाया जाता था, जिन्होंने मरना तो स्वीकार कर लिया था, लेकिन इस्लाम को अपनाना नहीं।
जिन ब्राहमणों और क्षत्रियों ने मैला ढोने की प्रथा को स्वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्कार को भंग कर दिया, वो भंगी कहलाए। और मेहतर- इनके उपकारों के कारण।
तत्कालिन हिंदू समाज ने इनके मैला ढोने की नीच प्रथा को भी 'महत्तर' अर्थात महान और बड़ा करार दिया था, जो अपभ्रंश रूप में 'मेहतर' हो गया।
भारत में 1000 ईस्वी में केवल 1 फीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या 14 फीसदी हो गई। आपने सोचा कि ये 13 प्रतिशत की बढोत्तरी मुगल शासन में कैसे हो गई।
जो हिंदू डर और अत्याचार के मारे इस्लाम धर्म स्वीकार करते चले गए, उन्हीं के वंशज आज भारत में मुस्लिम आबादी हैं। जिन ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने मरना स्वीकार कर लिया उन्हें काट डाला गया और उनके असहाय परिजनों को इस्लाम कबूल नहीं करने की सजा के तौर पर अपमानित करने के लिए नीच मैला ढोने के कार्य में धकेल दिया गया। वही लोग भंगी और मेहतर कहलाए।
डॉ सुब्रहमनियन स्वामी लिखते हैं, '' अनुसूचित जाति
उन्हीं बहादुर ब्राह्मण व क्षत्रियों के वंशज है, जिन्होंने
जाति से बाहर होना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के
जबरन धर्म परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्वयं अपमान व दमन झेला।''
प्रख्यात साहित्यकार अमृत लाल नागर ने अनेक वर्षों के शोध के बाद पाया कि जिन्हें "भंगी", "मेहतर" आदि कहा गया, वे ब्राहम्ण और क्षत्रिय थे।
स्टेनले राइस ने अपने पुस्तक "हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स" में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्राय: वे बहादुर जातियां भी हैं, जो मुगलों से हारीं तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम करवाए थे।
गाजीपुर के श्री देवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ने सन् 1925 में एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम 'पतित प्रभाकर' अर्थात मेहतर जाति का इतिहास था। इस छोटी-सी पुस्तक में "भंगी","मेहतर", "हलालखोर", "चूहड़" आदि नामों से जाने गए लोगों की किस्में दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं (पृ. 22-23)
नाम जाति भंगी- वैस, वैसवार, बीर गूजर (बग्गूजर),
भदौरिया, बिसेन, सोब, बुन्देलिया, चन्देल, चौहान, नादों,यदुबंशी, कछवाहा, किनवार-ठाकुर, बैस, भोजपुरी राउत,गाजीपुरी राउत, गेहलौता, मेहतर, भंगी, हलाल, खरिया, चूहड़- गाजीपुरी राउत, दिनापुरी राउत, टांक, गेहलोत, चन्देल, टिपणी।
इन जातियों के जो यह सब भेद हैं, वह सबके सब क्षत्रिय जाति के ही भेद या किस्म हैं। (देखिए ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस, छापा सन् 1872 ई.)
यह भी देखिए कि सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग आज के उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य भारत में है, जहां मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहां सबसे अधिक धर्मांतरण हुआ। आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है, जो धर्मांतरित हो गये थे।
क्या आप सभी खुद को हिंदू कहने वाले लोग उस अनुसूचित जाति के लोगों को आगे बढ़कर गले लगाएंगे, उनसे रोटी-बेटी का संबंध रखेंगे। यदि आपने यह नहीं किया तो समझिए, हिंदू समाज कभी एक नहीं हो पाएगा और एक अध्ययन के मुकाबले 2061 से आप इसी देश में अल्पसंख्यक होना शुरू हो जाएंगे।
इसलिए भारतीय व हिंदू मानसिकता का विकास कीजिए
और अपने सच्चे इतिहास से जुड़िए।
आज हिंदू समाज को अंग्रेजों और वामपंथियों के लिखे पर इतना भरोसा हो गया कि उन्होंने खुद ही अपना स्वाभिमान कुचल लिया और अपने ही भाईयों को अछूत बना डाला।
आज भी पढे लिखे और उच्च वर्ण के हिंदू जातिवादी बने हुए हैं, लेकिन वह नहीं जानते कि यदि आज यदि वह बचे हुए हैं तो अपने ऐसे ही भाईयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया।
आज भारत में 23 करोड़ मुसलमान हैं और लगभग 30 करोड़ अनुसूचित जातियों के लोग हैं। जरा सोचिये इन लोगों ने भी मुगल अत्याचारों के आगे हार मान ली होती और मुसलमान बन गये होते तो आज भारत में मुस्लिम जनसंख्या 50 करोड़ के पार होती और आज भारत एक मुस्लिम राष्ट्र बन चुका होता। यहाँ भी जेहाद का बोलबाला होता और ईराक, सीरिया, सोमालिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि देशों की तरह बम-धमाके, मार-काट और खून-खराबे का माहौल होता। हम हिन्दू या तो मार डाले जाते या फिर धर्मान्तरित कर दिये जाते या फिर हमें काफिर के रूप में अत्यंत ही गलीज जिन्दगी मिलती।
कृपया अपना वास्तविक इतिहास जानिए और इससे सबक लीजिए क्योंकि इतिहास खुद को दोहराता जरूर है।
धन्य हैं हमारे ये भाई जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अत्याचार और अपमान सहकर भी हिन्दुत्व का गौरव बचाये रखा और तरह-तरह से भारतवासियों की सेवा की।
हमारे अनुसूचित जाति के भाइयों को मेरी तरफ से शत्-शत् प्रणाम और दिल से सैल्यूट ।

जय श्री राम, जय हिन्द ।

आखिर कौन हैं वामपंथी और क्या है इनका इतिहास ?



भारत में वामपंथियों की सोच राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं उसके एकदम विरूद्ध रही है।
भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता' वामपंथियों ने कहा था।
मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का भारी समर्थन वामपंथी कर रहे थे।
आजादी के क्षणों में नेहरू को 'साम्राज्यवादियों' का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया।
भारत पर चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों की भावना चीन के साथ थी।
अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र-विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे।
वामपंथियों ने गांधी को 'खलनायक' और जिन्ना को 'नायक' की उपाधि दे दी थी।
खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए पाकिस्तान में मिलाने के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की।
वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं इनके आधार पर देशवासियों को आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई। 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने
टिप्पणी लिखी कि ''भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।''
भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने
'देशद्रोही' का ठप्पा लगाया। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच कभी दोस्ताना लडाई चल चुकी हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता था। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतंत्रात्क पार्टी माक्र्सवादी काम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय काम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं।
भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड
रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धड़ों का मानना है
कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।
देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता कामरेड
प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है।
अपनी पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के एक अंक में
उन्होंने लिखा था कि देश की कारपोरेट मीडया, संयुक्त राज्य
अमेरिका, दुनिया के हथियार ऐजेंट और आरएसएस के
गठजोड़ के कारण चीन के साथ भारत का गतिरोध दिखाई दे
रहा है, वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं था।
करात के उस आलेख का कुल सारांश है कि चीन तो भारत
का सच्चा दोस्त है लेकिन आरएसएस के लोग देश के
जानी दुश्मन है।
साम्यवादियों के
सबसे बडे दुश्मन के रूप में आरएसएस चिन्हित है। गाहे
बगाहे ये उनके खिलाफ अभियान भी चलाते रहते हैं।
संत लक्ष्मणानंद
की हत्या कम्युनिस्टों और ईसाई मिशनरी गठजोड़ का प्रमाण थी।
केरल में, आंध्र प्रदेश में, उडीसा में, बिहार और झारखंड में,
छातीसगढ में, त्रिपुरा में यानी जहाँ भी साम्यवादी हावी हैं
वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं और आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है।
देश की अस्मिता की बात करने
वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर
साम्यवादी चरंपथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई
चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के
साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है।
चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये
वही ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने
दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं,
ये
वही साम्यवादी हैं जिन्होंने सन 62 की लडाई में हथियार
कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था,
ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने कारगिल की लडाई
को भाजपा का षडयंत्र बताया था,
ये वही साम्यवादी हैं
जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराया था, ये वही साम्यवादी हैं जो देश को विभिन्न संस्कृति का समूह मानते हैं,
ये वही साम्यवादी हैं जो यह मानते हैं कि आज
भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त
करा सकती है,
ये वही साम्यवादी हैं जो बाबा पशुपतिनाथ
मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे थे,
ये वही साम्यवादी हैं जो महान संत लक्ष्मणानंद
सरस्वती को आतंकवादी ठहरा रहे हैं,
ये वही साम्यवादी हैं जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर
किसानों की हत्या करा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने
महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा।
साम्यवादी प्रकाश करात को चीन नजदीक और
राष्ट्रवादी दुश्मन लगने लगे हैं। यह करात नहीं चीन
का एजेंडा भारतीय मुंह से कहलवाया जा रहा है। आलेख
की व्याख्या से साफ लगता है कि करात सरीखे
साम्यवादी चीनी सहायता से भारत के लोकतंत्र
का गला घोटना चाहते हैं।
भारत की काम्यूनिस्ट पार्टी माओवादी ने अपने एक बयान में कहा था कि हमें
किसी देश का एजेंट नहीं समझा जाये लेकिन उसके पास से
जो हथियार मिले थे और अब भी मिल रहे हैं वे चीन के बने हैं। इसका प्रमाण
विगत दिनों मध्य प्रदेश पुलिस के द्वारा चलाये गये अभियान
के दौरान मिल चुका है। चीन लगातार अरूणांचल, कश्मीर,
सिक्किम पर विवाद खडा कर रहा है, नेपाल में भारत के
खिलाफ अभियान चला रहा है, पाकिस्तान को भारत के
खिलाफ भडका रहा है, अफगानिस्तान में
तालिबानियों को सह दे रहा है फिर भी का0 करात के नजर में
चीन भारत का सच्चा दोस्त है। आज पूरी दुनियां ड्रैगन के
आतंक से भयभीत है लेकिन भारतीय साम्यवादियों को ड्रैगन
का खौफ नहीं उसकी पूंछ पर लगी कम्युनिज्म की लाल झंडी दिखई दे
रही है।
पेकिंग को साम्यवादी मक्का और चीन
को साम्यवादी शक्ति का केन्द्र मानने वाले प्रकाश करात अपने आलेख में
लिखते हैं कि पश्चिमी देश आरएसएस के माध्यम से षडयंत्र
कर भारत को चीन के साथ लड़ाना चाहता है।
करात के इस आलेख की कूटनीतिक मीमांसा की जाये तो यह
लेख केवल करात का लेख नहीं माना जाना चाहिए। इसके
पीछे आने वाले समय में चीन की रणनीति की झलक
देखी जानी चाहिए।
अगर चीनी विदेश मंत्रालय के भारत पर
दिये गये बयान को देखा जाये तो कुछ इसी प्रकार की बातें
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी विगत
दिनों कही है। चीनी विदेश मंत्रालय कहता है कि भारत
की मीडिया पूंजीपरस्तों के हाथ का खिलौना बन गयी है।
यही कारण है कि भारत और चीन के संबंधों को बिगाडने
का प्रयास किया जा रहा है। चीन ऐसा कुछ भी नहीं कर
रहा है जिससे भारत को डरना चाहिए। लेकिन कार्यरूप में
चीनी सेना ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। भारतीय
सीमा के अंदर आकर पत्थरों पर चीन लिख, भारतीय वायु
सीमा का चीनी वायु सेना ने उलंघन किया, दलाई लामा के
तवांग प्रवास पर चीन ने आपति जताई और कश्मीरियों को अलग से चीनी वीजा देने
का मामला प्रकाश में आया। ये तमाम प्रमाण भारत के
खिलाफ चीनी कूटनीतिक आक्रमण के हैं, बावजूद
साम्यवादी करात के लिए चीन भारत का सच्चा दोस्त है।
करात ने अपने आलेख से केवल अपना विचार नहीं प्रकट नहीं किया अपितु संबंधित संगठनों को धमकाया भी।
लेकिन करात को भारत में रह कर चीन की वकालत
नहीं करनी चाहिए। करात को यह समझना चाहिए कि चीन एक आक्रामक
देश है। चीन से आज दुनिया भयभीत है। चीन के साथ जिस
किसी देश की सीमा लग रही है उसके साथ चीन का गतिराध
है। चीनी दुनिया में चौधराहट स्थापित करने और
साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार के लिए लगातर प्रयत्नशील है।
कुल मिलाकर भारत के कम्युनिस्ट चाहे जितना चीन की वकालत कर लें
लेकिन चीन तो चीन है जिसके बारे में नेपोलियन ने
कहा था इस राक्षस को सोने दो अगर जगा तो यह
दुनिया के लिए खतरा उत्पन्न करेगा।
पाकिस्तान बनवाने के
आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भारतीय
कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे
वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके
प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढऩे लगती है। अत:
प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल
उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार
ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म
को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।' अन्य
कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है।
सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान
किया है कि वह कश्मीर को 'स्वतंत्र देश' बनाने के संघर्ष में
भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक
अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से
ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट
पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख
अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं,
'लेट गो आफ्फ कश्मीर'-यानी, कश्मीर को जाने दो। इसलिए
कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या में
माओवादियों की भागीदारी न भी हो, यह तथ्य तो सामने
आया ही है कि जिन ईसाई मिशनरी गिरोहों ने यह कार्य किया,
उनमें पुराने माओवादी भी हैं। पर ध्यान देने की बात यह है
कि भारतीय वामपंथियों ने इस पर कोई चिंता नहीं प्रकट की,
जबकि उसके बाद मिशनरियों के विरूद्ध हुई हिंसा पर
तीखी प्रतिक्रिया की। यह ठीक गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर
बयानबाजी का दुहराव है। तब भी साबरमती एक्सप्रेस में 59
हिन्दुओं को जिंदा जलाने वाली मूल घटना गुम कर दी गई, और
केवल उसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा की ही चर्चा की जाती रही।
ये उसी हिन्दू विरोधी मनोवृत्ति की अभिव्यक्तियां हैं
जो यहां वामपंथ की मूल पहचान हैं। पिछले दस वर्षों में कई
वामपंथी अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठनों के एजेंट बन चुके
हैं। सोवियत विघटन के बाद से वे भौतिक-वैचारिक रूप ���से अनाथ
हो गए थे। इस रिक्तता को उन्होंने साधन-सत्ता संपन्न
मिशनरियों से भर लिया है। वे
वंचितों, वनवासियों का संगठित व अवैध मतांतरण कराने का उग्र
बचाव करते हैं।
विदित है कि भारत में
सुनामी हो, गुजरात का भूकंप,केदारनाथ में तबाही या आन्ध्र में तबाही, जब भी विपदाएं
आती हैं तो दुनिया भर के मिशनरियों के मुंह से लार टपकने
लगती है, कि अब उन्हें 'आत्माओं की फसल' काटने का अवसर
मिलेगा। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए
मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ
संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख कभी नहीं होता। हिन्दू
संस्थाओं के संदर्भ में यह दोहरापन क्यों? यदि मिशनरी 'सेवा'
करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करते हैं, तो ठीक।
किंतु जब हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन घर-वापसी कार्यक्रम चलाकर
उन्हें पुन: हिन्दू धारा में वापस लाते हैं, तो गलत। यह
कैसा मानदंड है?
चूंकि कम्युनिस्ट
साम्राज्यवाद पराजित हो चुका है, इसलिए हमारे कम्युनिस्टों ने अपनी बची-खुची शक्ति ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवाद
को मदद पहुंचाने में लगा दी है। इसका सबसे भयानक परिणाम केरल में देखने को मिल रहा है। कम से कम इससे उन्हें अपने
शत्रु 'हिन्दुत्व को कमजोर करने का सुख तो मिलता है।
इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर
मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से
मतलब है, न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस
प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है।
मिशनरी एजेंसियाँ चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामक
नहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय
सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई
मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीय
हितों के विरूद्ध मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त
वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े
दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष
प्रमाण है।
वामपंथी दलों में
आंतरिक कलह, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की पराकाष्ठा,
पश्चिम बंगाल में राशन के लिए दंगा, देश की लगभग हर मुसीबत में विपरीत बातें करना,चरम पर
भ्रष्टाचार, देशविरोधी हरकतें, विरोधी राजनीतिक
कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या जैसे वाकयों को लेकर
वामपंथ बेनकाब हो चुका है।
पूरी दुनिया से धीरे-धीरे समाप्त होने के बाद अब इनका दमनकारी शासन केवल चीन में बचा रह गया है और अब यह भारत में भी अन्तिम साँसें ले रहा है।



Saturday, March 21, 2015

आँसुओ मजहब बताओ

"आँसुओ मजहब बताओ
कुछ केशरिया से आँसू हैं
तो कुछ आँसू हरे हरे से हैं
कुछ वामपंथ के आँसू सुर्ख लहू जैसे
कुछ पूंजीवादी आँसू हैं, कुछ अवसरवादी आँसू है
यहाँ हर हड़ताली की आँखों में घड़ियाली से आंसू हैं
कुछ सरकारी आँसू हैं
विछोहों की विवशता से बिलखती आँख के आँसू
बहू की मौत पर पाखण्ड करती सास के आँसू
वास्तविक आँसू आँख में अक्सर चुपचाप रहते हैं
मौत विश्वास की हो , विवशता की या कि रिश्ते की
छलक जाते हैं कुछ आँसू भावना के भंगुर भूगोल को ले कर
खून का ग्रुप तो पता चल जाएगा
पर ख्वाब का ...ख्वाहिश का ग्रुप भी खोज लो
आँसुओं का ग्रुप पता हो जाएगा
ताप में ...संताप में जब भावना भाप सी उड़ने लगे
पर कहीं ठण्डक सी पा कर बूँद सी गिरने लगे
आँख की बस उस नमीं में आंसुओं का अक्स है

आँसुओ मजहब बताओ
कुछ केशरिया से आँसू हैं
तो कुछ आँसू हरे भी हैं
यहाँ हर हड़ताली की आँखों में घड़ियाली से आंसू हैं
कुछ सरकारी आँसू हैं
विछोहों की विवशता से बिलखती आँख के आँसू
बहू की मौत पर पाखण्ड करती सास के आँसू.
"

------ राजीव चतुर्वेदी

भूख की प्रतिद्वन्द्विता को सभ्यता कहते हैं लोग

"दरिंदे और परिंदे के बीच
एक दाना
जो दया का दिख रहा था
पर दाँव निकला
सभ्यता के बीच में फैला हुआ विस्तार है

वही एक जाल है
भूख उसकी हो या मेरी
भूख का सहअस्तित्व हो सकता ही नहीं है
भूख की प्रतिद्वन्द्विता को सभ्यता कहते हैं लोग.
"
-------- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, March 3, 2015

हैप्पी होली – सुलगता प्रहलाद


"हैप्पी होली – सुनकर मैं तो स्तब्ध हूँ। प्रहलाद दुखी ही होगा। आप किसके पाले में हैं, होली के या प्रहलाद के? इसीलिए कि आप छद्‌म नहीं करना चाहते और अपने अंतर्मन की आवाज से बोलते हैं - ''हैप्पी होली'' क्योंकि आपकी भी मंशा कहीं किसी प्रहलाद को षड्‌यंत्र करके मारने की ही है। आप अभी तक सफल प्रतीत होते हैं। ... आगे?
जगह-जगह होली प्रहलाद को गोद में लिए बैठी है। आग भी लगाई जा चुकी है ताकि प्रहलाद जल जाए और डायन राक्षसी होली बच जाए। हुआ यह था कि होली अपने ही षड्‌यंत्र का शिकार हो जल गई थी और प्रहलाद बच गया था पर यह सभ्यता उस खलनायिका होली के यों जल जाने और प्रहलाद के बच जाने से दुखी है सो होली को शुभकामनाएं दे रहे हैं - ''हैप्पी होली''। चुड़ैलों के चंगुल में फंस चुके हैं। हम होली जैसी पिशाचनी राक्षसी खलनायिका के साथ खड़े हैं और प्रहलाद के विरुद्ध चीख रहे हैं।
हर जगह चरित्रवान, ईमानदार प्रहलाद को जलाकर मार डालने के षड्‌यंत्र हो रहे हैं और होली को यह दायित्व है। इस बजट को ही देख लें। प्रहलाद रूपी जन-गण-मन को कहीं मुनाफाखोर तो कहीं मुफ्तखोरअर्थशास्त्र की होली गोद में लेकर बैठ चुकी है। आक्रोश की ज्वाला सुलग रही है और हमारे जैसे लोग उस आग में घी भी डाल रहे हैं पर चिल्ला रहे हैं हैप्पी होली, लावारिस प्रहलाद प्रश्न पूछ रहा है कि किसी के पास वह मरहम है जो मेरे जले जज्बातों के जख्मों पर लगाई जा सके। है किसी के पास बरनॉल जैसी कोई मरहम ? प्राय: हर घर में एक दो बच्चे हैं प्रहलाद जैसे सुन्दर और निश्छल। हमारे देश में नन्हें नागरिक जिनकी उदासी का प्रबन्ध साल दर साल बजट पर हम कर ही लेते हैं। जिस देश के नन्हें प्रहलादों को शिक्षा के लिए भी ऋण लेना पड़ रहा हो वहां तरुणाई के स्वाभिमान पर संदेह के सवाल स्वाभाविक रुप से उठेंगे ही। निश्चय ही वह लोग जो इस तरह होली को अपनी शुभ कामनाएं दे रहे हैं वह प्रहलाद जैसे चरित्रों के वर्ग शत्रु हैं।
हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका बहुत हरामखोर, घूसखोर थे। हिरण्यकश्यप का एक बेटा था प्रहलाद। प्रहलाद युवा वर्ग का प्रतिनिधि था सो उसके सिद्धान्त थे। सिद्धान्त के लिए उसे लड़ना आता था, अड़ना भी आता था। वह समझौतावादी नहीं था। वह अपने घूसखोर, दलाल पिता हरामखोर हिरण्यकश्यप के अनैतिक कामों घूसखोरी, कालाबाजारी का विरोध करता था। सो उसके पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ मिलकर उसको मारने का षड्‌यंत्र बनाया। होलिका का अपने जमाने के किसी फायरब्रिगेड अधिकारी से ईलू-ईलू था सो उसे वरदान था कि वह आग से नहीं जल सकती। इसलिए तय हुआ कि होलिका अपनी गोद में प्रहलाद को लेकर आग में चली जाएगी और होलिका तो जलेगी नहीं पर प्रहलाद जल जाएगा। लेकिन हुआ उल्टा, होलिका ही जल गई और बचा सिद्धान्तवादी नैतिक ईमानदार कर्मठ प्रहलाद। हम हरामखोर होलिका के पक्षधर हैं और कह रहे हैं ''हैप्पी होली''।
एक औसत भारतीय नागरिक जब दिन भर हलाल होता है तो उसकी आमदनी 32 रुपये प्रतिदिन होती है। इसी में उसे अपना और अपने प्रहलाद जैसे बच्चों का भी पेट पालना है लेकिन हरामखोर हिरण्यकश्यपों-होलिकाओं की मौज है...और निरंतर बढ़ती हुयी फौज है । ...और करो हैप्पी होली।
जिन लोगों की जिन्दगी रंगीन है वह आनन्दित है शेष बची देश की जनता बाहरी रंगों से अपनी बदरंग हो चुकी जिन्दगी को रंग रही है। यह ऊपर से पड़ा रंग क्या हमारी जिन्दगी को रंगीन बना सकेगा? खुशियां बाजार में बिक रही हैं और ख्वाहिशें खामोश खीसें निपोर रही हैं। न खुशियों के विक्रेता खुश हैं न क्रेता। दरअसल यह मरीचिका है कि जिसमें हम खुशियों को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए उम्र से अधिक सांसे ले चुके हैं। श्षो बची जिन्दगी पर संशय है और खुशियां अभी भी दूर बहुत दूर क्षितिज के उस पार यही मरीचिका है जिसे इस बजट में मनमोहन शास्त्र ने गढ़ा है।
सोनिया, प्रियंका, अम्बिका सोनी, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी, मायावती यानी कि हैपी होली और आपके नन्हें नागरिक किसी प्रहलाद को पुलिस की गोली। प्रहलाद हमारे चरित्र पर प्रश्न है पहचानो। युवाओं! प्रहलादों!! जला डालो होली को अपने अन्दर के प्रहलाद को प्रखर करो, ...मुखर करो।
हम आसान किस्तों में गरीब बनाए जा रहे हैं। गरीब होंगे तो गुलाम बन ही जाएंगे। गुलाम होंगे तो यह आजादी किस काम की। वह यही चाहते हैं। तमाम राहुल, प्रियंका, सचिन, जितिन जैसे लोगों को अपने यहां नौकर चाहिए इसीलिए इस देश के नागरिक को नौकर बनाने का उपक्रम जारी है। घरेलू नौकर, दुकान का नौकर, कल कारखानों का नौकर, विभिन्न श्रेणी का सरकारी नौकर। स्वतंत्र राष्ट्र में विडंबना है ...हमारे बच्चों का सपना है नौकर बनना।
हमारे बच्चों को गुलामी से गोरे साहब के नौकर बनने से बचाने के लिए गांधी सुभाष भगत सिंह अशफाक जैसे रत्नों का जखीरा जूझा, हमें आजाद किया ताकि हम गुलाम या नौकर न बनें पर हम तो ठहरे प्रवृत्ति से गुलाम सो नौकर बनने में प्रतिभा की पहचान करते हैं। नौकर बनकर चोरी घूसखोरी करते हुए फिर ईमानदारी के प्रहलादों को जलाकर उत्सव मनाते हैं और चाण्डालों की तरह चिल्लाते हैं - ''हैप्पी होली''
." ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, March 1, 2015

शब्दों पर रहम करो --- उन्हें ठोक पीट कर कविता न बनाओ

"शब्दों पर रहम करो
उन्हें ठोक पीट कर कविता न बनाओ
बाहें न मरोड़ो शब्द की
तुम्हारी मुस्कुराती कविता में शब्द कराहेंगे
घायल शब्द अकेले में विलाप करेंगे

एक दूसरे से मिल कर सुबकेंगे
किसी शीर्षक की डोरी पर टंगे शब्द सूख जाते हैं
मुर्गीयों के व्यापारी जैसे मुर्गीयों को पिंजड़े में भर कर रखते हैं
कुछ लोगों ने वैसे ही कुपोषित शब्दों को पिंजड़े नें बंद कर रखा है
तुम्हारे वीराने में पड़े शब्द आपस में टकराते हैं
आपस में टकरा कर खड़कते हैं
शब्दों में सामंजस्य होगा तो संगीत निकलेगा
शब्द आपस में टकराएंगे तो शोर करेंगे
शब्द चहकेंगे तो महकेंगे
शब्दों को प्यार दो
शब्दों को उनके स्वाभाविक प्रवाह का अधिकार दो
शब्द नृत्य करेंगे, संगीत देंगे
शब्द अपनी ही लय पर थिरकेंगे
उन शब्दों में
एक कविता थिरकेगी ."
----- राजीव चतुर्वेदी