Thursday, June 28, 2012

गाय को माता कहा जाता है क्यों ?



"पढ़ सको तो पढ़ भी लो इस प्यार को,
यह भावनाएं शहर में सहमी हैं क्यों ?

गाँव में उस बूढ़े नीम के नीचे जो मीठा स्नेह है,

शहर के लोगों के अन्दर का जहर मधुमेह है.

माँ की ममता तुम क्या जानो 

मत खंगालो शब्दकोशों से विकसित अपने ज्ञान को 

गाय को माता कहा जाता है क्यों ?

पढ़ सको तो पढ़ भी लो इस प्यार को,

यह भावनाएं शहर में सहमी हैं क्यों ?" -----राजीव चतुर्वेदी

सत्य के सारे सितारे सो गए सागर किनारे

"सत्य के सारे सितारे सो गए सागर किनारे,
झूठ के झंखाड़ सत्य के साहिल पे सिंचित हैं.
चरित्र की चट्टाने सभी अब रेत बन कर राह में बिखरी पड़ी है,
दौर ऐसा है कि हर शातिर को सुविधा है और संत चिंतित हैं."

-----राजीव चतुर्वेदी  

Tuesday, June 26, 2012

मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में



" मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में
जो गमले दो चार पड़े हैं --तुमने रख्खे हैं
इन गमलों में पानी तुम ही डाला करते बेहतर होता
गमलों के ये बौने पोधे पानी पीकर
पढ़ते होंगे उस बसंत की परिभाषा भी जिसको तितली तुमसे बेहतर जान रही है
गमलों में तुम फूल उगा कर भूल गए हो
गमलों और बंगलों में जो रहते हैं जड़ होते है
चेतन की चर्चा मत करना वेतन की मारामारी है

और घूसखोरी के अवसर बंगलेवालों को गमले पर बरसे मानसून जैसे लगते हैं
इनकी जड़ें जमीनों से रिश्ता भी कम रखती हैं
जड़ें नहीं जिनकी गहरी वह बहकेंगे
मिट्टी से रिश्ता रख्खेंगे वह महकेंगे
गमले के पौधे बंगले के बच्चे जल्दी खिलते, मरते भी जल्दी हैं
मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में
जो गमले दो चार पड़े हैं --तुमने रख्खे हैं
इन गमलों में पानी तुम ही डाला करते बेहतर होता
गमलों के ये बौने पौधे पानी पीकर
पढ़ते होंगे इस बसंत की परिभाषा भी जिसको तितली तुमसे बेहतर जान रही है ."------ राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 25, 2012

यह कौन सी अर्थ व्यवस्था है कि देश की आर्थिक अर्थी ही निकल गयी ?



"अमेरिका ने भारत को अपना गुलाम (उपनिवेश ) बनाने के लिए मनमोहन सिंह को भारत का प्रधान मंत्री बना दिया, मोंटेक सिंह अहलूवालिया के सुपुर्द योजना आयोग कर दिया और प्रणव मुखर्जी को वित्त मंत्री बनवा दिया. यह सभी जानते हैं कि इसके पहले मनमोहन सिंह अमेरिका के वेतनभोगी कर्मचारी थे और प्रणव मुखर्जी अम्बानी घराने के पालतू प्राणी थे. मनमोहन सिंह आज तक कोई लोक सभा का चुनाव नहीं  लड़े फिर भी वह गुजरे आठ साल से प्रधान मंत्री हैं और प्रणव मुखर्जी अपने पूरे राजनीतिक जीवन में मात्र एक बार लोक सभा के लिए चुने गए वह भी इस बार ममता बनर्जी की राजनीतिक ममता की कृपा से.यह कैसा लोकतंत्र है ?...यह कौन सा किसका जनादेश है कि जिसे हमने कभी नहीं चुना वह आठ साल से प्रधान मंत्री बना बैठा है और जिसे देश की जनता चाहती ही नहीं वह अम्बानी खानदान का पानदान राष्ट्रपति बन गया  है ?--- यह किस बात का पुरुष्कार है ? यह अमेरिका के गुर्गे हैं जो भारत की अर्थ व्यवस्था को ध्वस्त कर भारत को अमेरिका का गुलाम बनाने की भूमिका निभा रहे हैं. तभी तो देखिये भारत की कृषि और ऋषि परम्परा सुनियोजित तरीके से नष्ट की जा रही है. देश की अर्थ व्यवस्था में कृषि की भागीदारी में चिंताजनक कमी आई है. औद्योगिक विकाश दर अब ऋणात्मक हो कर विनाश दर हो चुकी है जो -3.5 % है. देश की मुद्रा डॉलर के आगे उसी मुद्रा में है जैसे मनमोहन / मोंटेक /प्रणव अमेरिकी ओबामा के आगे नतमस्तक. भारत के आर्थिक परिदृश्य पर गौर करें,--- --हर घंटे किसान आत्म ह्त्या कर रहे हैं. खेती अलाभकारी व्यवसाय हो चुका है. उद्योग की विकास दर 8%  से घट कर 0% हुयी और अब  -3.5% हो चुकी है. उत्पादक ही नहीं शेयर बाज़ार के दलाल तक हलकान हैं. यह कौन सी अर्थ व्यवस्था है कि देश की आर्थिक अर्थी ही निकल गयी ?" -----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, June 24, 2012

देह तो दहलीज है रूहों के सफ़र की यारो


"भीगती देह जज्वात सुलगते हों जहां,
प्यार निगाहों मैं तैरता आँखों में डूब जाता है.
देह पर प्यार से अब रूह का उनवान लिखो,
प्यार के वार से पत्थर भी टूट जाता है.
देह तो दहलीज है रूहों के सफ़र की यारो,
हमसफ़र किसको कहें ?-- कुछ  दूर चले फिर साथ छूट जाता है."
                   ---राजीव चतुर्वेदी  

इस देश में सीता और सत्य अग्नि परिक्षा देते हुए ही चुक जाते हैं

"सचिवालय की फाइलें सबसे ज्यादा ज्वलनशील हैं ...महाराष्ट्र के बाद अब दिल्ली का नोर्थ ब्लोक ...लगता है इस देश में घोटालों की होली प्रहलाद को साथ लेकर ही जलने पर आमादा है. राष्ट्रपति बन्ने के पहले आखिर प्रणव मुखर्जी को भी काफी फाइलें निपटाना थीं सो निपट गयीं. इस देश में सीता और सत्य अग्नि परिक्षा देते हुए ही चुक जाते हैं." ----राजीव चतुर्वेदी

इस बरसात में...



====बरसात--1====== 
"
इस बरसात में भावनाओं का भू स्खलन हो रहा है,
जिन्दगी के रास्तों पर जो मलवा गिरा है
उन्ही को लांघ कर मैंने सफ़र पूरा किया

जिन्दगी में खरासों की ख्वाहिश कौन करता है ?
तलासे थे जो मकसद मैंने खो दिए है

आँख के सपने कभी के रो दिए हैं
चरागों की रौशनी अब रौशनाई बन तारीकियों की तस्दीक करती है

माना मैं पत्थर था, तराशा तूने था
पर सच ये है कि मेरा जिस्म जिसने तोड़ा वह हथौड़ा तू ही था

अब रोक न मुझको मुझे जाना है बहुत दूर तुझसे
ख्वाहिसों में खामियां थीं ...इतनी तो न थीं कि खलिश खोजती घूमे खला में मुझको 

जिन्दगी में खरासों की ख्वाहिश कौन करता है ?
तलासे थे जो मकसद मैंने खो दिए है

आँख के सपने कभी के रो दिए हैं
चरागों की रौशनी अब रौशनाई बन तारीकियों की तस्दीक करती है 
इस बरसात में भावनाओं का भू स्खलन हो रहा है,
जिन्दगी के रास्तों पर जो मलवा गिरा है

उन्ही को लांघ कर मैंने सफ़र पूरा किया.
" -----राजीव चतुर्वेदी

====बरसात--2======

"उस रात समंदर पर बारिस हुई थी तेज़,
मैं गाँव का छप्पर था सुन कर सहम गया." ----राजीव चतुर्वेदी 
====बरसात--3====== 
"समंदर पर बरसते बादलों से पूछ लेते,
योजनाओं पर रोया है रेगिस्तान कितना ." ----राजीव चतुर्वेदी
====बरसात--4====== 
"आसमान से गिर रही हैं बूँदें
भीग रहे हैं लोग
गिरते चरित्र में भीगते हैं लोग
गिरते चरित्र को भोगते हैं लोग
फिर अपने भीगे चरित्र को पोंछते हैं लोग
जो गिरते हैं ऊंचाई से
नाली नदी और समंदर तक बहते है
जिन्हें पहले थी अपेक्षा उनकी ही उपेक्षा वह सहते हैं
जो कल वख्त की गर्मी नहीं झेल पाए
और भाप बन कर उड़ गए थे आसमानों तक
आज बूँद बन कर गिर रहे हैं
विचित्र है चरित्र का यह मानसून
आसमान से गिर रही हैं बूँदें
भीग रहे हैं लोग
गिरते चरित्र में भीगते हैं लोग
गिरते चरित्र को भोगते हैं लोग." ----- राजीव चतुर्वेदी
====बरसात--5====== 
"वह रुपहली याद बिजली की तरह कौंधी थी अभी,
मन में बादल से जो घुमड़े आँख में बरसात थी." ----राजीव चतुर्वेदी 
====बरसात--6====== 
"कल रात शब्द बरसात में भीगते ही रहे,
तुमने दरवाजा क्यों नहीं खोला ?"----राजीव चतुर्वेदी

Friday, June 22, 2012

इस दौर में हर रोशनी बिकती है

"मैं जानता हूँ इन उदास रातों का उल्लेख अखबारों में नहीं होगा
शब्द चीखेंगे नहीं सुबकेंगे तो
सुबह फिर से ढाढस बंधाती दौड़ आयेगी
जिन्दगी का ठहरा पहिया चरमरा कर चल पड़ेगा
तुम मिलोगे राह में फिरसे गुज़रते वक्त से
निरंतर बढ़ रही इन दूरियों के दरमियाँ मैं देखूंगा तुम्हें मुड मुड़ के
खो रही इस जिन्दगी के सो रहे सपने जगाता
बिक चुका हूँ मैं
जो नहीं बिक पाया इस दुकाँ से उस मकां तक वह तुम्हारा शेषफल हूँ
तारीकियाँ तश्दीक करती हैं कि
चुका पाए नहीं हो तुम गुज़रे माह का बिजली का बिल
और यह भी कि इस दौर में हर रोशनी बिकती है." ----राजीव चतुर्वेदी    

Thursday, June 21, 2012

इस गाँव में अहसास के छप्पर तो बहुत पुराने हैं

"इस गाँव में अहसास के छप्पर तो बहुत पुराने हैं,
पर उस बूढ़ी गाय को कसाई को किसने बेचा ?
खेत अपने थे, खलिहान अपने, आढतें दूसरों की
यह अजीब दौर था जब कीमतें बढ़ती थी ऊसरों की
यह सच है भूख थी और फसल थी फासले पर,
जो शातिर लोग संसद में हैं उनको वोट किसने बेचा ?"
----राजीव चतुर्वेदी

जब भी तुम गुजरोगे वहां से एक झोंके से हवा के



"आसमान जब अपनी बुलंदियों पर इतरा रहा होगा
जमीं भी जब कभी जमीनी हकीकत से रूबरू होगी
मैं दसमलव सा दरमियां की दूरियों के बीच दरख्तों सा खडा
अस्तित्व की अंगड़ाईयों के हर नए आकार को जब उपलब्धियों का नाम दूंगा
जब भी तुम गुजरोगे वहां से एक झोंके से हवा के
मुस्कुरा कर माफ़ कर दोगे मुझे."
                                          -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 18, 2012

इस बरसात में भावनाओं का भू स्खलन हो रहा है

"इस बरसात में भावनाओं का भू स्खलन हो रहा है,
जिन्दगी के रास्तों पर जो मलवा गिरा है
उन्ही को लांघ कर मैंने सफ़र पूरा किया
जिन्दगी में खरासों की ख्वाहिश कौन करता है ?
तलासे थे जो मकसद मैंने खो दिए है
आँख के सपने कभी के रो दिए हैं
चरागों की रौशनी अब रौशनाई बन तारीकियों की तस्दीक करती है
माना मैं पत्थर था, तराशा तूने था
पर सच ये है कि मेरा जिस्म जिसने तोड़ा वह हथौड़ा तू ही था
अब रोक न मुझको मुझे जाना है बहुत दूर तुझसे
ख्वाहिसों में खामियां थीं ...इतनी तो न थीं कि खलिश खोजती घूमे खला में मुझको
जिन्दगी में खरासों की ख्वाहिश कौन करता है ?
तलासे थे जो मकसद मैंने खो दिए है
आँख के सपने कभी के रो दिए हैं
चरागों की रौशनी अब रौशनाई बन तारीकियों की तस्दीक करती है
इस बरसात में भावनाओं का भू स्खलन हो रहा है,
जिन्दगी के रास्तों पर जो मलवा गिरा है
उन्ही को लांघ कर मैंने सफ़र पूरा किया." -----राजीव चतुर्वेदी

जब तलक आँख में उनके पानी था मैं पी लेता था

"शाकी, पैमाने ,मैखाने रिंद और जाम न रहे,
मुगलिया सल्तनत ढह गयी और वैसे आवाम न रहे.
जब तलक आँख में उनके पानी था मैं पी लेता था,
अब उनकी आँखों में पानी भी न रहा, ओस में नहाने वाले भी न रहे." -----राजीव चतुर्वेदी  

Wednesday, June 6, 2012

संकेतों से सहमी दुनिया, शब्दों को कैसे पढ़ पाती ?

"संकेतों से सहमी दुनिया, शब्दों को कैसे पढ़ पाती ?
  आभाशों के अहसासों से परिभाषा कैसे गढ़ पाती ?
पत्नी को भी हार गया वह अधम जुआरी धर्मराज क्यों कहलाया ?
जो जीता वही सुयोधन था फिर दुर्योधन क्यों कहलाया ?
बहनों की ससुरालों में हस्तक्षेप करने वाला खलनायक होता है
फिर कृष्ण कहाँ से नायक था और शकुनी क्यों खलनायक है ?
कानी आँखों के दर्शन और लंगडी परिभाषाएं युगों को नाप नहीं पायी हैं
इस सच को सह पाओ तो सहमत हो जाना
वरना चमचे चाटुकारिता का च्यवनप्राश तो चाट रहे हैं
तुम भी चाटो,... दीर्घायु हो,... पर यह भी जानो
चमचे जय जयकार किया करते हैं
चमत्कार क्या कर पायेंगे ?"------राजीव चतुर्वेदी

Saturday, June 2, 2012

शब्द सहमे थे बोलते तो बोलते कैसे ?

"मैं चुप हूँ
तुम भी बोलते क्यों नहीं ?
आओ इस सन्नाटे को जख्मी करें." ----राजीव चतुर्वेदी
"चीख कर चुप हो गया उनवान कविता का,
शब्द सहमे थे बोलते तो बोलते कैसे ?" ----राजीव चतुर्वेदी
"चराग की ही आग से छप्पर जला था गाँव का,
रो रही वह बस्तियां अब रोशनी से डरती हैं." ----राजीव चतुर्वेदी