Wednesday, June 26, 2013

तुलसी रामायण --दृष्टांत यदि दुष्ट के कान में चला जाए तो दुष्टान्त हो जाता है


" ज्ञान की वैदिक धारा के प्रारम्भिक दौर में समझदार लोगों ने आगाह किया था कि ज्ञान "कुपात्र" को नहीं देना चाहिए किन्तु ज्ञान की गंगा में नाले गटर गिरते गए और प्रदूषण होता गया . उदाहरण देखिये तुलसी रामायण की कुपड्डढी व्याख्या से कैसे अर्थ का अनर्थ हो गया --
"ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,

सकल ताड़ना के अधिकारी ."

( सकल = Gross , ताड़ना =Assessment )
"Drum, Rustic, Down Trodden, Women ;---They all deserve gross assessment ."

तुलसी दास जी संस्कृति के महान विद्वान् थे . उन्होंने उर्दू का कोई शब्द उपयोग में नहीं लाया तब "सकल यानी शक्ल " को क्यों उपयोग में लाते ? संस्कृति के महान विद्वान् को विकृत के दुर्दांत शैतानो ने किस तरीके से समझा डाला कि अर्थ का अनर्थ हो गया . समझाया गया कि तुलसी दास जी ने कहा है --- ."ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना यानी शक्ल देखते ही प्रताड़ित किये जाने के अधिकारी हैं ." जब कि तुलसी दास जी इनकी सकल ताड़ना यानी कुल भावनात्मक मूल्यांकन /समीक्षा यानी gross assessment की बात कर रहे हैं . ज्ञान कुपात्र के कान में जाता है तो जुबान से विष वमन और दिमाग से वैचारिक गबन होता है ...दृष्टांत यदि दुष्ट के कान में चला जाए तो दुष्टान्त हो जाता है ."


ता नहीं वो कौन से अज्ञानी और मूर्ख हैं, जिन्होंने तुलसीदास की चौपाई

"ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ।
ये सब हैं ताड़न के अधिकारी।।
"

में "ताड़ना" शब्द को प्रताड़ित किए जाने से परिभाषित कर डाला।

भारतीय भाषाएं, चाहें "संस्कृत" हो या फिर "लोकभाषाएं", इतनी समृ्द्ध हैं कि एक-एक शब्द के सैकड़ों अर्थ और अभिव्यंजनाएं हैं। कुछ पढ़-लिख भी लो मित्रों।


"अमरकोष" में ताड़न शब्द का अर्थ, "शिक्षित" करना, पालना है। लालना और ताड़ना। भारतीय संस्कृति की "शिक्षा परंपरा" में शिक्षित करने के लिए "शारीरिक दंड" का तो कहीं जिक्र ही नहीं मिलता। फिर ये ताड़ना का मतलब शारीरिक दंड के तौर पर कहां से ले आए नवसाक्षर चिंतक लोग...? जहां तक मेरी जानकारी है। यदि ऐसा कहीं है तो जरूर सामने आएं।

बीते कई सालों से अधकचरे वामपंथी और दलितपंथी "ताड़ना" शब्द को अभिव्यंजना और अर्थ, को शारीरिक तौर पर प्रताड़ित किए जाने के संदर्भ में करते आ रहे हैं। जिसका कोई "ऐतिहासिक तथ्यात्मक" आधार ही नहीं है इनके पास। यदि है तो सामने आएं...


यहां इतिहासबोध का प्रश्न भी खड़ा होता है, तुलसी के रामचरित मानस में करीब 50 हजार चौपाइयां हैं। यदि मान भी लें कि वामपंथी और दलितपंथी दुरुस्त हैं, तो फिर तुलसी की हजारों चौपाइयों में फिर कहीं क्यों नहीं अन्य जगह पर नारी, शूद्र के लिए अवमानना के संदर्भ में चौपाइयां मिलती हैं? कम से कम, एक-दो और भी मिलनी चाहिए ना...? -----राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 24, 2013

मैं जी कर भी तुम्हारा था, ... मैं मर कर भी तुम्हारा हूँ

" ज़िंदा विश्वासों में लाशों सा अहसास ,
संवेदना के शब्द बोझिल हैं बहुत ,-- ढोए नहीं जाते
मैं थक कर सो गया था
मेरे कैदी से कोलाहल को शान्ति की चादर उढाओ 
कफ़न जो कह रहे हैं लोग
उनको नादान समझ कर माफ़ कर देना
यह सफ़र पूरा हुआ ...
जब हवा का कोई झोंका तुम्हें स्पर्श करके गुजर जाए
मेरी याद को तुम याद कर लेना
तुम जहाँ  थे मैं वहाँ पहले भी नहीं था
एक आकार का अहसास था
और अब
एक अहसास का आकार हूँ
मैं जैसा हूँ स्वीकार कर लो
मैं जी कर भी तुम्हारा था
मैं मर कर भी तुम्हारा हूँ .
" ----राजीव चतुर्वेदी  

Sunday, June 16, 2013

इतिहास में यह भी शायद इस बार लिखा जाए क़ि ...

"ताब्दियों बाद जब इस देश का इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहासकारों द्वारा इस देश के उपहासकारो का चर्चा होगा ...लिखा जाएगा भारत मुगलों, अंग्रेजों के अलावा इटली का भी गुलाम रहा ...सभी सरदार राष्ट्र भक्त और स्वाभिमानी नहीं होते कुछ मनमोहन सिंह जैसे भी होते हैं ...नीतिश कुमार बिहार का और कोई अखिलेश उत्तर प्रदेश का आख़िरी मुग़ल शासक था ...मुलायम सिंह सत्ता का हसीन सपना देखने वाले  आख़िरी मुंगेरी लाल थे  … उत्तर प्रदेश की नवाजवादी पार्टी की सरकार ने जेल में बंद आतंकवादीयों की रिहाई की पुरजोर कोशिश की और इस दौरान मानवाधिकार आयोग का यह आरोप था कि उत्तर प्रदेश में 80% गिरफ्तारियाँ गलत की जा रही हैं  ...दिग्विजय सिंह को अपने मुग़ल होने का मुगालता था और मुगलों का मानना था कि अपनी कौम से दगा करने वाला किसी का सगा नहीं हो सकता ...बच्चे निबन्ध लिखेंगे कि आतंकियों के मुकदमें वापस लेने के प्रयास से अखिलेश अल -कायदा को क्या फ़ायदा दे सके . इनकी समाजवादी सरकार में 'समाज' सहमा हुआ था और 'वाद' बकैती कर रहा था . क़ानून व्यवस्था में आम आदमी आतंकित था और आतंकियों को सरकार जेल से बाहर निकालने की जुगत में थी जैसे जेल आतंकियों के लिए नहीं आतंकितों के लिए बनी हो   ...कश्मीर भारत का हिस्सा कम मुग़ल सल्तनत अधिक थी  ...रजिया सुलतान की तरह एक थीं कांसीराम की बहन मायाबती किन्तु रजिया की तरह वह गुण्डों में कभी नहीं फंसी सिवा गेस्ट हाउस काण्ड के ...उच्च न्यायालय का जज बनाने की जुगत जिस्मानी भी थी रूहानी भी और कहानी भी . महेश्वरी आढ़त के अलावा अभिषेक मनु सिंघवी के योग शिविर में भी चरित्र का अनुलोम विलोम करना पड़ता था ...लश्कर -ऐ -तैयबा की आत्मघाती इशरत जहाँ को मार गिराने वाले पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाया गया था ...मंहगाई से त्रस्त हरजिंदर का थप्पड़ खाने के बाद शरद पवार का राजनीतिक पतन शुरू हो गया था ...ह्त्या कर रहे नक्सलियों के मानवाधिकार सब पर भारी थे ...भारत देश में दूसरे नम्बर के बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यक कहा जाता था ...संविधान जातिप्रथा को वर्जित करता था किन्तु जाति के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा था ... सामाजिक न्याय से प्रेरित भेंसों और गधों ने घुडदौड़ में अपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण की माँग की थी ...हर नया संसदीय सत्र पुराने घोटाले को भूल कर नए घोटाले पर चर्चा करता था और उस अन्जाम तक न पहुँचने वाली चर्चा पर खूब खर्चा करता था ...जिस खेल को विश्व के दस प्रतिशत देश भी नहीं खेलते थे उस क्रिकेट की भारत में लोकप्रियता थी ...क्रिकेट और फिल्म से देश के नायक आ रहे थे और यह क्रिकेट और फ़िल्मी नायक दरअसल एक खलनायक दाउद इब्राहिम के गुर्गे थे ...देश में कुछ घोटालेबाज चटवाल, कुछ घोषित आतंकी , कुछ दाउद की मुम्बईया फ़िल्मी रखेलें भी पद्म पुरुष्कार पा रही थीं ...यों तो इस कालखण्ड देश हत्यारों से आक्रान्त था पर फिर भी कुछ लोग गांधी जी की ह्त्या को जायज ठहरा रहे थे और हत्यारे गौडसे को महिमा मंडित कर रहे थे, तो दूसरे लोग नक्सली हत्यारों को जायज ठहरा रहे थे, तीसरे लोग इस्लामिक आतंकवादीयों के कातिलों के कसीदे पढ़ रहे थे , अपनी सामूहिक हत्याओं से छुब्ध एक समुदाय के लोग स्वर्ण मंदिर में भिण्डरावाले जैसे कातिल को महिमामंडित कर संतों /गुरुओं के समकक्ष रख रहे थे कुल मिला कर पूरे राष्ट्र में कातिलों के पक्ष में क़त्ल हो रहे लोग लामबंद हो रहे थे ...हिन्दुओं के छह हजार मंदिर तोड़ने का कोई चर्चा नहीं था पर इससे उकताए लोगों ने जब एक बाबरी मस्जिद तोड़ दी तो अंतरराष्ट्रीय श्यापा था ...हिन्दूओं में लोग अपनी बेटी का नाम 'रति' रखते थे और मुसलमानों में 'सूफियान' जैसे नाम बहुत प्रचलित थे पर इस्लाम के लिए बहुत कुछ करने वाले नाम 'औरंगजेब' का प्रचलन ही ख़त्म हो चुका था ...कोई अपनी औलाद का नाम 'औरंगजेब' नहीं रखता था ...राष्ट्र में एक महाराष्ट्र भी था जहां जहाँ देश के अन्य प्रान्तों के लोग उतने ही असुरक्षित थे जितने भारतवासी ऑस्ट्रेलिया में ...और ...और इतिहास में यह भी शायद इस बार लिखा जाए क़ि इस बार भी इतिहासकार उतने ही वैचारिक बेईमान थे जितने पहले के इतिहासकार ...इतिहासकार गुजरे समय की सीवर की सफाई करते रहे हैं उन्होंने गुजरे समय के सूरज की समीक्षा ही कब की है ?" ----- राजीव चतुर्वेदी  

Saturday, June 8, 2013

अंतिम चीख प्रथम कविता का उनवान लिखा करती है


"जहाँ एक के हाथ में हीरा हो और दूसरों के जिश्म पर जख्मों का जखीरा हो, तब क्या करोगे कलमकार ? ...चीखोगे या चुप रहोगे ? ...चीख को किसी भाषा, किसी परिभाषा, किसी अनुवाद की जरूरत नहीं ...वह मुकम्मल संवाद है .---इस संवाद का सूचकांक तय करेगा कि लेखक कितना सार्थक है ?"
"
कविता कुछ के लिए कथा है
कविता कुछ के लिए प्रथा है
कविता मेरे लिए व्यथा है
वारिश में भींगे कुछ लावारिश से शब्द हमारी सिसकी हैं ,
साहित्य का प्रयोजन
और आयोजन उनका
तुम्हारे लिए मनोरंजन है
और हमारे लिए
चीख का दस्तावेज़
व्याकरणों से दूर आचरणों को आकार दे रहा शब्दों से
आग्रह की अकादमी में तुम संग्रह करते हो विग्रह की कथित कवितायें
है कर्ज तो तुम पर करुणा का
पर फर्ज तुम्हारा फ़र्जी है
कविता की गुणवत्ता की यह भी तो एक कसौटी है
हर सिसकी पर सिसमोग्राफ हिले थोड़ा
शब्दों की सम्प्रेषणता से रिक्टर स्केल सहम जाए
सिंथेटिक साहित्य शून्य का सृजन किया करता है
तब अंतिम चीख प्रथम कविता का उनवान लिखा करती है ."

                                                   ---- राजीव चतुर्वेदी

Monday, June 3, 2013

क्रान्ति एक नए राजनीतिक आविष्कार का संस्कार है

"कुछ यथावत की पोषक शक्तियाँ भी कभी -कभी क्रान्ति कराहती हैं ...कुछ क्रान्ति को कनस्तर में भरे घूम रहे हैं ...कुछ क्रान्ति के कुटीर उद्योग चला रहे हैं  ...कुछ क्रान्ति के कीचड में किलोलें कर रहे हैं ...कौन समझाए कि क्रान्ति हताशा का स्थानान्तरण है ...विवशता का व्याकरण है ...राजनीतिक संक्रमण है ...किसी तानाशाह का अतिक्रमण है ...क्रान्ति का लक्ष्य लोकतंत्र नहीं होता, पड़ाव लोकतंत्र होता है ...यों तो क्रान्ति के नाम पर जो भ्रान्ति है उसमें फ़िल्मी "क्रान्ति " में मनोज कुमार "चना जोर गरम" बेच देते हैं ...साहित्यिक क्रान्ति की भ्रान्ति में लोग साहित्य और संवेदनाएं तक बेच देते हैं ...कुछ शातिर निजी स्वार्थों की खातिर क्रान्ति की भ्रान्ति में समाज की संभावना तक बेच देते हैं ...क्रान्ति एक बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था की परिकल्पना है जिसके लिये पुरानी को ढहाना और नयी व्यवस्था का निर्माण जरूरी है ...क्रान्ति प्रायः तब होती है जब निजी स्वार्थों से ऊपर उठा कोई योद्धा किसी दार्शनिक /संतमना विचारक का साथ पाता है जैसे अर्जुन -कृष्ण का , एलेक्जेंडर (सिकंदर ) सुकरात -प्लेटो की परम्परा का, चन्द्रगुप्त चाणक्य का, फ्रांस की क्रान्ति में रूसो -वोल्टेयर का, लेनिन ,माओ ,फीडल कास्ट्रो को मार्क्स-एंजिल्स (हीगल ) का , गांधी को बाल गंगाधर तिलक का ...ऐसे कई उदाहरण हैं जो स्वयं में महान योद्धा और महान विचारक भी थे पर इन दोनों ऊर्जाओं में परस्पर संतुलन नहीं बैठाल सके और इसीलिए वह महान लोग अपने लक्ष्य नहीं पा सके जैसे भगत सिंह, राम मनोहर लोहिया ...हर क्रान्ति एक नए राजनीतिक आविष्कार का संस्कार है ." -----राजीव चतुर्वेदी  

Saturday, June 1, 2013

तुम्हारा नाम चाँदनी किसने रखा ?

" तुम्हारा नाम चाँदनी किसने रखा ?
भले घर की सी दिखती हो
सो जाओ
मैं थका हारा सा सूरज हूँ
सुबह उठना है मुझे
फिर युद्ध करना है
उजालों की लड़ाई में मैं घायल हूँ
तुम्हारी संवेदना मुझको साजिश सी लगती है
भले घर की सी दिखती हो
सो जाओ
तुम्हारा नाम चाँदनी किसने रखा ?
" ----- राजीव चतुर्वेदी