Thursday, March 27, 2014

"राज्य" और "राष्ट्र " की अवधारणा, परिभाषा और अंतर

"मने "राज्य" और "राष्ट्र " की अवधारणा, परिभाषा और अंतर को समझा है ? क्या "राज्य" की राजनैतिक परिभाषा हम जानते हैं और क्या "राष्ट्र " की आध्यात्मिक अवधारणा हम जानते हैं ? ---याद रहे, आध्यात्म में परिभाषा नहीं होतीं केवल अवधारणा ही होती हैं , मेरे मित्र !!
भारत ,फिलिस्तीन , इजराइल आदि संप्रभु देश या यों कहें कि "राज्य" बनने के पहले ...बहुत पहले "राष्ट्र " थे ...जबकि पाकिस्तान कभी भी राष्ट्र नहीं थ
ा . राष्ट्रवाद "स्व " का विकशित सांस्कृतिक बोध है जबकि वैश्वीकरण (वह वैश्वीकरण जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं ) एक शातिर शब्दावली का शातिर रहस्यमयी जयघोष जिसमें यह स्पष्ट नहीं कि वैश्वीकरण किसका ? गरीबी का कि अमीरी का कि पूंजी का ? भावनाओं का या भौतिकता का ? व्यापार का कि राजनीती का ? वैश्वीकरण किसका ---शिक्षा का ? सुरक्षा का ? चिकित्सा का ? भूगर्भ के संसाधनों का ? न्याय का ? विश्व की आय का ? परमाणु बमों का दहशत का ? पोषण का या कुपोषण का ? ...या हम गुलामों का . --- यह विश्वीकरण राजनीतिक नारा है . --- इसके पहले कार्ल मार्क्स ने -- "दुनियाँ के मजदूरों एक हो ' का भौतिक नारा लगाय था . ...और इसके पहले ...बहुत पहले "वसुधैव कुटुम्बकम" और "कुर्वन्ते विश्वं आर्यम " जैसी आध्यात्मिक अवधारणायें आयीं थी . आप "वैश्वीकण" जैसे शब्द संबोधन कह कर किसे इंगित कर रहे हैं ? --- कूटनीतिक /राजनीतिक परिभाषाओं को या आध्यात्मिक परिकल्पनाओं को ? आध्यात्मिक परिकल्पनाओं के रस्ते में "राष्ट्र" मिलेगा और राजनीतिक द्वंद्व में "राज्य " की परिभाषा गूंजेगी ."
                                                                                                 ---- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, March 22, 2014

इश्क की इमारत तेरे जुल्म की इबारत भी है



(सन्दर्भ -- ताज महल बनाने वाले कारीगर के हाथ ताज महल बनवाने बाले शाहजहाँ ने कटवा दिए थे ताकि वह दुबारा ऐसी कोई इमारत न बनवा सके )

"मैं दस्तकार था तो उसने हाथ कटवा लिए मेरे दोनों ,
मैंने ताज महल बनाया था यह गुनाह था मेरा
वो ताज महल उसके इश
्क की इमारत है
वो ताज महल मेरी हक़तलफी की इबारत है
मेरे हाथ कट गए थे मैं दुआ को उठाता तो उठता कैसे ?
खुदा ने खुद कभी मुझको देखा ही नहीं
खुदा खुदगर्ज था रहमत की जहमत उठाता तो उठाता कैसे ?
मेरी फ़रियाद उसके फसानो में फंसी थी बेवश
इश्क की इमारत तेरे जुल्म की इबारत भी है
गुजरते लोगों ने इस गुजारिश से कभी देखा ही नहीं
ताज तुझपे नाज़ करती हो तो मुमताज़ करे
मेरी बीबी की मायूस निगाहों की मोहब्बत को समझ
ये खुदा !!
किसी शहंशाह के इश्क के उनवान समझ तो कारीगर की ग़ुरबत भी समझ
मेरे हाथ कट गए थे मैं दुआ को उठाता तो उठता कैसे ?
खुदा ने खुद कभी मुझको देखा ही नहीं
मैं दस्तकार था तो उसने हाथ कटवा लिए मेरे दोनों ,
मैंने ताज महल बनाया था यह गुनाह था मेरा
." ----- राजीव चतुर्वेदी

हर कला ने सत्य को छला है

" हर कला ने सत्य को छला है मेरे मित्र
तुम्हें संगीत पसंद है क्योंकि उसमें चीख शामिल नहीं
तुम्हारे भरे गोदामों के बाहर खड़े भिखारियों की भीख शामिल नहीं
तुम्हें नृत्य पसंद है क्योंकि वह कामोद्दीपन की कला है
और नाचती हुयी लडकी तुम्हारे लिए बेटी ,बहन नहीं महज एक अबला है
जिनके तबले-सारंगी ने जाने कितनो को छला है
साहित्य की बात करो तो शब्द जलेबी बन जाती है अंतर्मन में
और दिखती है सत्य की हमशक्ल सी
कुछ झिलमिल सी तश्वीर
जिसमें सच की सचमुच शिनाख्त करना कठिन ही होता है
शब्दों के अम्बार सजाये बैठे हैं जो
फुटपाथों पर अखबार लगाए बैठे हैं जो
सिसक रहा सच तो सच में उनके नीचे अब भी दबा पडा है
स्थापत्य भी एक कला है
ताज महल जब भी देखता हूँ, सोचता हूँ
गाँव की मुमताज तो अब भी जाती है खुले में शौच
शहर की आवासीय समस्या से क्या कभी आपका पाला पड़ा है ?
तो फिर इसमें किसका भला है ?
साहित्य , संगीत , नृत्य ,स्थापत्य और बेचारा सत्य यहाँ सहमा सा देखो
यहाँ हर चीख पर संगीत का मुलम्मा चढ़ा है
यहाँ हर भीख पर वैभव का आवरण है
हर साहित्य सच को झुठलाने का आचरण है
हर स्थापत्य झोपडी के खिलाफ किसी शाहजहाँ की शाजिश है
जिसके नीचे दफ़न है कोई सिसकती मुमताज़
जिसने समाज को कुछ भी तो नहीं दिया ख़ास
सिवा एक शहंशाह की बुझाती रही कामुक प्यास
और अपने पीछे छोड़ गयी चौदह बच्चे उदास
साहित्य , संगीत ,कला में कुछ भी नहीं है ख़ास
यह तपते मरुथल की मरीचिका है
कथित कला के दो ही ध्रुव हैं -- एक तरफ सबल है दूसरी तरफ अबला है
मेरे मित्र ,हर कला ने सत्य को छला है .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, March 9, 2014

फातिहा पढ़ के लौट आने दो मुझे तुझे फ़तह कर लूंगा

"शबनम की शरारा से शरारत को सऊर मत समझो ,
समंदर के अन्दर समाया है बहुत कुछ
इसे समंदर का गुरूर मत समझो
मेरी आँखें आक्रोश से सुर्ख सी हैं इसको सुरूर मत समझो
फातिहा पढ़ के लौट आने दो मुझे तुझे फ़तह कर लूंगा
मैं किसी शख्स की नहीं , रियासत की नहीं
मुल्क की ही इबादत करता हूँ , इसे सियासत मत समझो
." ---- राजीव चतुर्वेदी

कुछ शब्द अभी दर्ज होने हैं कागजों पर

"तुम्हारे अन्दर के वीराने और बाहर के कोलाहल के बीच
अभी भी कुछ शब्द पड़े हैं लाबारिस से
उन्हें उठाओ
सूंघो प्यार से
सभ्यता की सुगंध
बजाओ उन शब्दों को तो गूँज उठेगा एक संगीत
शब्दों को चुन चुन कर चिनाई करो तो स्थापत्य होगा
शब्दों से वार करो हथियार होंगे
शब्दों को संस्कार दो साहित्य बनेगा
पर याद रहे हर शब्द की एक आयु होती है

और उसके बाद साहित्य की परिपाटी रोती है
कागजों में दर्ज है शब्दों के वंशजों का तस्करा
कुछ शब्द अभी दर्ज होने हैं कागजों पर
और उसके बाद ऋतुएं ,गंध ,उदासी अपने उनवान खोजेंगी
तुम्हारे अन्दर के वीराने और बाहर के कोलाहल के बीच
अभी भी कुछ शब्द पड़े हैं लाबारिस से
उन्हें उठाओ
."
---- राजीव चतुर्वेदी