Saturday, March 22, 2014

हर कला ने सत्य को छला है

" हर कला ने सत्य को छला है मेरे मित्र
तुम्हें संगीत पसंद है क्योंकि उसमें चीख शामिल नहीं
तुम्हारे भरे गोदामों के बाहर खड़े भिखारियों की भीख शामिल नहीं
तुम्हें नृत्य पसंद है क्योंकि वह कामोद्दीपन की कला है
और नाचती हुयी लडकी तुम्हारे लिए बेटी ,बहन नहीं महज एक अबला है
जिनके तबले-सारंगी ने जाने कितनो को छला है
साहित्य की बात करो तो शब्द जलेबी बन जाती है अंतर्मन में
और दिखती है सत्य की हमशक्ल सी
कुछ झिलमिल सी तश्वीर
जिसमें सच की सचमुच शिनाख्त करना कठिन ही होता है
शब्दों के अम्बार सजाये बैठे हैं जो
फुटपाथों पर अखबार लगाए बैठे हैं जो
सिसक रहा सच तो सच में उनके नीचे अब भी दबा पडा है
स्थापत्य भी एक कला है
ताज महल जब भी देखता हूँ, सोचता हूँ
गाँव की मुमताज तो अब भी जाती है खुले में शौच
शहर की आवासीय समस्या से क्या कभी आपका पाला पड़ा है ?
तो फिर इसमें किसका भला है ?
साहित्य , संगीत , नृत्य ,स्थापत्य और बेचारा सत्य यहाँ सहमा सा देखो
यहाँ हर चीख पर संगीत का मुलम्मा चढ़ा है
यहाँ हर भीख पर वैभव का आवरण है
हर साहित्य सच को झुठलाने का आचरण है
हर स्थापत्य झोपडी के खिलाफ किसी शाहजहाँ की शाजिश है
जिसके नीचे दफ़न है कोई सिसकती मुमताज़
जिसने समाज को कुछ भी तो नहीं दिया ख़ास
सिवा एक शहंशाह की बुझाती रही कामुक प्यास
और अपने पीछे छोड़ गयी चौदह बच्चे उदास
साहित्य , संगीत ,कला में कुछ भी नहीं है ख़ास
यह तपते मरुथल की मरीचिका है
कथित कला के दो ही ध्रुव हैं -- एक तरफ सबल है दूसरी तरफ अबला है
मेरे मित्र ,हर कला ने सत्य को छला है .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

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