Saturday, March 31, 2012

उन बहते शब्दों को लोग कहेंगे कविता है यह

"कुछ कविता की पैरोडी कहने के आदी हैं
पहले कविता का गबन किया फिर वमन किया कुछ शब्दों का
मौलिकता का सौंधापन तो स्वाभाविक समझा जाता है
शब्दों की सामर्थ्य, शास्त्र की समझ, प्रतीकों का पैनापन
अंगारों की आग, झुलसती बस्ती, दावानल से दूर पिघलती वर्फ पहाड़ों की
छा जाती है जब अंतर्मन में कोलाहल सी तो कविता आहट करती है खामोशी से
जो इत्र दूसरों से ले कर ही महके हैं
बेचारे इतने हैं कि हर विचार पर बहके हैं
कागज़ के फूल टिके हैं बरसों तक, पर हर बसंत में बेबस है
हम तो जंगल के पौधे से हैं खिले यहाँ मिट जाएँगे
चर्चे मेरी मौलिकता के बंगले के गमले गायेंगे
ये पैरोडी के गीत गुनगुनाने वाले सुन
कोयल की पैरोडी कौओं के बस की बात नहीं
कुछ चिंगारी, कुछ अंगारे, कुछ तारे, कुछ सूरज , थोड़ा सा चन्दा, शेष चांदनी
धूल गाँव की, शूल मार्ग के, भूखा पेट, उदास चूल्हे की चीख चीरती है जब दिल को
इतिहासों के उपहासों के तल्ख़ तस्करे,
वह महुआ की तरुणाई, प्यार का मुस्काना, वह नागफनी का दंश, वंश बबूलों का
वह नाव नदी मैं तैर रही आशंकित सी,
दूर चन्द्र के आकर्षण से लहरों का शोर मचाते सागर का भी इठलाना
वह देवदार के पेड़, चिनारों के पत्ते, वह मरुथल की झाड़ी में खरगोशों का छिप जाना
वह बहनों की मुस्कान अमानत सी मन में, वह बेटी का गुड़िया पर ममता जतलाना
वह नन्हे से बच्चे को ममता का घूँट पिलाती माताएं
वह बाहर जाते बेटे को बूढ़ी आँखों का उल्हाना
वह संसद में बेहोश पड़ा सच भी देखो
मकरंदों की बातें भौरों को करने दो
इन सब तत्वों पर तेज़ाब गिराओ अपने मन का
जो धुंआ उठेगा वह कविता बन जाएगी
जो रंग बनेगा वह तेरी कविता का मौलिक रंग कहा जाएगा
जो राग उठेगा उसको पहली बार सुना होगा तुमने
यह राग रंग की आवाजें जब गूंजेंगी तो शब्द बहेंगे
उन बहते शब्दों को लोग कहेंगे कविता है यह." ----राजीव चतुर्वेदी

सवा अरब की आबादी में प्यार की कविताए कहते लोग सुनो तुम



"सवा अरब की आबादी में प्यार की कविताए कहते लोग सुनो तुम

सच्चाई से आँख मूँद कर बेतुक से हेतुक साध रहे
हर कायर शब्दों के शिल्पकार को कवि न समझो
ध्यान रहे धृतराष्ट्र यहाँ था, सौ बच्चों को नाम दे गया
देखो नेताओं के भाषण के धारें समय के शिलालेख पर पैनी होती जाती हैं
और कतारें राशन की गलियाँ लांघ सड़क की पैमाइश करती हैं असली भारत की
जहां हमारे देश की सूरत और घिनौनी होती जाती है
भूखी गरिमा सहमी सी मर्यादा में कैद
तुम्हारी नज़रों के हर खोट भांप
महगाई की अब चोट से घायल झीने से कपड़ों में कातर कविता सी दिखती है
कामुकता की करतूतों को जो प्रेम कहा करते हैं
उनसे पूछो सच बतलाना
घर की दहलीजों के भीतर सहमी सी बेटी पिता की आँखों में क्या- क्या पढ़ती है ?
वात्सल्य का शल्य परीक्षण कर डालोगे, कलम तुम्हारी कविता लिख कर काँप उठेगी
शब्दों की अंगड़ाई में सच की साँसें सहमेंगी फिर हांफ उठेंगी  
बहन सहम के क्यों ठहरी हैं दालानों में ?
भाई, भाई के मित्र निगाहों से किस रिश्ते की पैमाइश करते हैं
फब्तियों के वह झोंके और झपट्टा हर निगाह का,... एक दुपट्टा जाने क्या क्या सह जाता है
और गाँव का वह जो गुरु है गिद्ध दृष्टि उसकी भी देखो
पढ़ पाओ तो मुझे बतान--- वात्सल्य था या थी करुणा या श्रृंगार था
कामुकता को कविता जो समझे बैठे हैं मटुकनाथ से हर अनाथ तक
हर भूखा वक्तव्य काव्य की अभिलाषा में बाट जोहता शहरों के अब ठाठ देख कर खौल रहा है 
और सभ्यता के शब्दों की पराक्रमी पैमाइश करते
छल के कोष शब्दकोषों की नीलामी करते भी देखो तो कविता दिखती है
अपनी माँ का दूध न पी पा रहे गाय के बछड़े की निगाहों में भी देखो झाँक कर
कविता में वात्सल्य गुमशुदा है वर्षों से
कविता में सौन्दर्य था तो फिर क्यों गुमनाम हो गया
गौहरबानो को देखा था कभी शिवा ने वह बातें क्यों अब याद नहीं आती हैं हमको
कामुकता को आकार दे रहे शब्दों के संयोजन को संकेतों से कहने वालो
सहमी है बुलबुल डालों पर और गिद्ध वहीं बैठा है
सहमी है बेटी घर पर अब पिता जहां लेटा है
गाँव के बच्चे शहरों से सहमे हैं
सिद्धो के शहरों में गिद्धों के वंशनाश के क्या माने पर गौरईया पर गौर करो तो कविता हो
सहवासों, बनवासों, उपवासों  में उलझा आद्यात्म यहाँ
यमदाग्नी से जठराग्नी तक की बात करो तो कविता हो
कामुकता को कविता कहने वालो
सवा अरब की आबादी में क्या तुमको यह अच्छा लगता है ?" ------राजीव चतुर्वेदी  

Friday, March 30, 2012

ख्वाब में दर्ज हैं ख्वाहिश की इबारत यारो

"खामोश सी दिखती खला को खंगालो तो कोई ख्वाब दिखे
ख्वाब की तासीर पहचानो तो कुछ बात बने

रूह जब जागती और देह सोती हो जहाँ
ख्वाब खामोशी से उनवान लिखा करते हैं
देह वह पुल है जिसके ऊपर तारों से चमकते हैं ख्वाब
और इस पुल के नीचे बहुत दूर तलक
जिन्दगी दरिया सी बहा करती है
तुमने जाजवात के जख्मों को संजोया तो समझलो इतना
ख्वाब जब रूह से मिलते हैं तो इह्लाम हुआ करते हैं
ख्वाब जब देह से मिलते हैं तो इल्जाम हुआ करते हैं
ख्वाब जब आँख में हों तो आंसू बन कर
अपने अहसास को अकेले में नमी दिया करते हैं

ख्वाब गर हों तेरी आँख में तो सहेजो इनको
ख्वाब में दर्ज हैं ख्वाहिश की इबारत यारो
हकीकत जब हाशिये पर हो, हसरतें हांफती हों
ख्वाब में खोजो कोई उनवान पढो
ख्वाब की तासीर पहचानो तो कुछ बात बने
जिन्दगी हर ख्वाब की ख्वाहिश ही हुआ करती है ."
  ---- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, March 29, 2012

सत्य की शव यात्रा में भीड़ के चेहरे चतुर से हैं

"समंदर की सतह पर ओस की बूँदें तलाशी जा रही हैं
सत्य की शव यात्रा में भीड़ के चेहरे चतुर से  हैं
हलवाहे और हलवाई के द्वंदों में जो उलझा है वही एक अन्न का दाना
विश्वासों और विवशता की बीच जो उपजा है विश्व उसको मत कहो
शब्दकोषों से न समझो आचरण का व्याकरण
अनुभूतियों के अक्षांश को विस्तार दे दो
फिर समझ लो समंदर जोश है तो ओस कैसी 
शातिरों की सांख्यकी में सत्य के कातिल कहाँ पर हैं
और वह अन्न का दाना, हलवाहे की भूख और हलवाई की कमाई
शब्दकोषों से न समझो आचरण का व्याकरण
अनुभूतियों के अक्षांश को विस्तार दे दो."     ----राजीव चतुर्वेदी

समय की सूखी नदी मैं याद की नावें


" समय की सूखी नदी मैं याद की नावें
लोकलाजों से सहमते सत्य से रिश्ते
हमारी आँख की सरहद पे सिमट आया है ये आंसू
शब्द सच के सारथी अब हैं नहीं
शब्द के काँधे पे हैं अर्थ की अब अर्थियां
देह के इन रास्तों से रिश्ते गुजरे हैं बहुत
नाप पाओ तो बताना भावना को भौतिकी से
समय की सूखी नदी और भावना भयभीत है
लोकलाजों से सहमते सत्य का संगीत सुनलो
हमारी आँख की सरहद पे सिमट आया है ये आंसू
भावना भूगोल की होती नहीं है
सोचना फिर सच बताना
रिश्ते जो आकार लेना चाहते थे
होठ पर सहमे खड़े खड़े गुमनाम क्यों थे." ----राजीव चतुर्वेदी

ओस और आंसू का अस्तित्व गिरने में ही है

"ओस और आंसू का अस्तित्व गिरने में ही है,
उठो तुम खौलते पानी से जैसे भाप उठती है.
बता दो आसमां को अश्क का उपहास मत कर ,
नज़र नीचे करो और देख लो
दहकता है जो दिल में वो जज्वा है,
ज्वालमुखी से जैसे आग उठती है.
"---- राजीव चतुर्वेदी

अरमानो के वीरानों में वक्त जो चीखा इक चिड़िया सा

"अरमानो के वीरानों में वक्त जो चीखा इक चिड़िया सा,
खामोशी कुछ कहती जब तक 
आहत आहों की आहट ने
दिल के दरवाजों पर दस्तक दी थी  
खोलो तुम भी द्वार और फिर बोलो
सत्य हमेशा ही सहमा सा क्यों रहता है
शाम ढले चिड़िया क्यों शोकाकुल सी है
और वहाँ बूढ़े  बरगद की टहनी क्यों हिलती है
और उदासी तेरी-मेरी
कलकल बहती नदियों में अब कालखंड सी क्यों कंपती है
शब्द हमारे होठों पर जो सहमे थे गुमनाम होगये
चाँद छिपा उस  झुरमुट में तुम देख रहे हो
हर किनारा वक्त का संकेत पढता तो 
सहम कर क्यों खड़ा होता 
निगहबानी कर रही हर आँख आहत है
आज सूरज सोचता है शाम के खोये ख्यालों में  
सत्य के संकेत ओझल हैं क्यों निगाहों में    
और तारों टिमटिमा कर पूछते हैं,--- टूट कर बिखरे थे कैसे ?
बिखर कर निखरे थे कैसे ?
आँधियों के हौसले को देख क्यों घोंसले घबरा रहे हैं  
और सुगंधों के सौदागर से तर्क कर रही तितली देखो 
उत्तर के आरोप सवालों की सूली पर   
हर चिड़िया मुडेर पर बैठी पूछ रही है 
खामोशी में खोगये मकानों की अब गिनती." ---- राजीव चतुर्वेदी 

मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में

" मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में
जो गमले दो चार पड़े हैं --तुमने रख्खे हैं
इन गमलों में पानी तुम ही डाला करते बेहतर होता
गमलों के ये बौने पोधे पानी पीकर
पढ़ते होंगे उस बसंत की परिभाषा भी
जिसको तितली तुमसे बेहतर जान रही है
गमलों में तुम फूल उगा कर भूल गए हो
गमलों और बंगलों में जो रहते हैं जड़ होते है
चेतन की चर्चा मत करना वेतन की मारामारी है
और घूसखोरी के अवसर बंगलेवालों को
गमले पर बरसे मानसून जैसे लगते हैं

इनकी जड़ें जमीनों से रिश्ता भी कम रखती हैं
जड़ें नहीं जिनकी गहरी वह बहकेंगे
मिट्टी से रिश्ता रखेंगे वह महकेंगे
गमले के पौधे बंगले के बच्चे जल्दी खिलते, मरते भी जल्दी हैं
मेरी बंजर भावनाओं के गलियारों में
जो गमले दो चार पड़े हैं --तुमने रख्खे हैं
इन गमलों में पानी तुम ही डाला करते बेहतर होता
गमलों के ये बौने पौधे पानी पीकर
पढ़ते होंगे इस बसंत की परिभाषा भी
जिसको तितली तुमसे बेहतर जान रही है .
"
                               ------ राजीव चतुर्वेदी

यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा..

गौहर रज़ा की नज़्म-
जलियांवाला बाग़

"कभी तो स्वर्ग झुक के पूछता ही होगा ए फलक.
ये कैसी सरज़मीन है, ये कौन लोग थे यहाँ,
जो जिंदगी की बाजियों को जीतने की चाह में,
लुटा रहे थे बेझिझक, लहू की सब अशर्फियाँ.
यहाँ लहू, लहू के रंग में, नया था किस तरह,
न सब्ज़ था, न केसरी, न था सलीब का निशां,
न राम नाम था यहाँ, न थी खुदा की रहमतें,
न जन्नतों की चाह थी, न दोजखों का खौफ था,
न स्वर्ग इनकी मंजिलें, न नर्क का सवाल था,
मसीह-ओ-गौतम-ओ-रसूल, कृष्ण, कोई भी नहीं,
कि जिसके नाम जाम पी के मस्त हो गए हों सब,
ये कौन सी शराब थी, कि जिसका ये सुरूर था,
ये किस तरह की मस्तियों में इसकदर गुरुर था,
ये किस तरह यकीन हो, कि एक मुश्त-ए-खाक है,
जो जिंदगी की मांग में, बिखर गयी सिन्दूर सी,
इन्हें यकीन था कि इनके दम से ही बहार है,
ये कह रहे थे, हम से ही बहार पर निखार है,
बहार पर ये बंदिशें इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं,
इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं ये गैर की हुकूमतें,
ये क्या हुआ कि यकबयक सब खामोश हो गए,
यहाँ पे ओस क्यों पड़ी, ये धूल तप गयी है क्यों,
वो जिससे फूल खिल उठे थे, ज़ख्म भर गया है क्यों,
मुझे यकीन है कि फिर यहीं इसी मक़ाम से,
उठेगा हश्र, जी उठेंगे सारे नर्म ख्वाब फिर,
बराबरी का सब जुनूं सिमटके फिर से आएगा,
बिखेर देगी जिंदगी की हीर अपनी ज़ुल्फ़ को,
यहीं से उठेगी सदा कि खुद पे तू यकीन कर,
यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा..."

----- गौहर रज़ा

Wednesday, March 28, 2012

उसके हाथ में कांटे और सपनों में गुलाब था



"उसके हाथ में कांटे और सपनों में गुलाब था,
जिन्दगी में खालीपन जुबां पे इन्कलाब था
पाँव में जूते नहीं वह मंजिलें पहने चला था
उसकी सूखी सी आँखों में उफनता सैलाब था
रास्ते रिश्तों को लेकर चल पड़े थे मकानों से दूर
भावना सदमें में थी भीतर भी एक फैलाब था
रिश्ते सर्द हो चले थे, सांस सहमी थी, दिशाएं शून्य थी
समंदर की थी ख्वाहिश उसे, मेरे दिल में तो  तालाब था."  ----राजीव चतुर्वेदी

मेरे जिस्म को मत देख जख्मों का जखीरा है यहाँ

"मेरे जिस्म को मत देख जख्मों का जखीरा है यहाँ,
मेरी हंसी में सिमटी है रिश्तों की हकीकत सारी ."
                      --- राजीव चतुर्वेदी

जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे


"जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे
गुजरे रास्तों पर लौट कर आती ही नहीं

पत्थरदिलों के बीच नदियों सा बहा मैं,
कुछ पत्थरों ने चीर डाला था मुझे
कुछ को रगड़ कर रेत मैंने कर दिया
कुछ बह गये बहाव में
कुछ थे खड़े तटस्थ साक्षीभाव में
कुछ घाट से स्थिर खड़े ही रह गए
याद है वह नाव मुझमें तैर कर अपने किनारे खोज फिर क्यों खो गयी
जिन्दगी बहती है बहती हैं नदियाँ जैसे
गुजरे रास्तों पर लौट कर आती ही नहीं." ---- राजीव चतुर्वेदी

तेरे मेरे बीच का दरिया खामोशी से बहता था


" तेरे मेरे बीच का दरिया
खामोशी से बहता था
आज तो पुल भी टूट गया है
जज्बातों के सैलाब में.

... वख्त का सूरज सहम गया है
अंधों के अधिकारों से
आज तो दिल भी ड़ूब गया है
आंसू के तालाब में." --- राजीव चतुर्वेदी

Monday, March 26, 2012

मैंने वह बोला जो खुरचा था ह्रदय के पंकिल तलों से

" मैंने वह  बोला जो खुरचा था ह्रदय के पंकिल तलों से
   तुम ये बोले सच तो था पर संजीदा नहीं था
    मैने पूछा वह भी कभी इतना तो पाकीज़ा नहीं था
    मैंने भेजे शब्द सच के सैनिकों से रक्त रंजित
    तुम ये बोले शब्द तो थे पर उनका उचित श्रिंगार नहीं था
मैं तो बोला था तरुणाई के माने युद्धों की अंगड़ाई है
मैं करुणा की पैमाइश करके क्रान्ति लिखा करता था
तुम कविता में कामुकता का रस घोल रहे थे
शब्दों का सौन्दर्य समझते तुम भी थे
शब्दों से मैं शौर्य उकेरा करता था
प्यार की प्यारी परिधियों की परिक्रमा कर तुम कहाँ पहुंचे ?
मैं केंद्र में था हर पराक्रम के
   शब्द मेरे युद्धरत थे जिन्दगी की शाम को घायल से आते
उस समय तुम प्यार की पेंगें बढाने जा रहे थे
    तुमने चाहा दुल्हनो से शब्द ही स्वीकार करलूं
मैं ये बोला जनपथों की वेदना का अनुवाद करदूं
मैं ये बोला राजपथ पर युद्ध लड़ना है मुझे." ------राजीव चतुर्वेदी 

Sunday, March 25, 2012

बिल्लियों ने रास्ता काटा बहुत


"बिल्लियों ने रास्ता काटा बहुत,
मैं मुसाफिर था मगर बढ़ता गया."
---- राजीव चतुर्वेदी

Saturday, March 24, 2012

उन्हें समझो तो कविता समझ लेना

"अँधेरे में उजाले और भूख में निवाले के बीच संवेदना की भगदड़ है,
कुछ शब्द बिखरे हैं, कुछ निखरे हैं उन्हें समझो तो कविता समझ लेना."

                             
                              -----राजीव चतुर्वेदी

Friday, March 23, 2012

समंदर की सतह पर एक चिड़िया ढूंढती है प्यास को

"समंदर की सतह पर एक चिड़िया ढूंढती है प्यास को
अब तो जन - गण - मन  के देखो टूटते विश्वास को

वर्फ से कह दो जलते जंगलों की तबाही की गवाही तुम को देनी है

और कह दो साजिशों से सत्य का चन्दन रगड़ कर अपने माथे पर लगा लें

और जितना छल सको तुम छल भी लो

लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ
वख्त का सूरज अभी डूबा नहीं है

एक भी आंसू हमारा आज तक सूखा नहीं है.
" --- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, March 22, 2012

"सोच लूं सजदे के पहले, वह इस काबिल है भी क्या ?"


"सोच लूं सजदे के पहले,
वह इस काबिल है भी क्या ?
----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, March 21, 2012

मैंने कुछ शब्द खरीदे हैं बाज़ार से खनकते से हुए

"कुछ शब्द भेजे थे तुम्हारे पास
राह में बैठे अभी वह हाँफते होंगे
जिन्दगी की राह में यादों के तुम पौधे लगाओ
आंसुओं की खाद दो, सींचो उन्हें तुम विवशताओं से अभी
एक दिन वह पेड़ बन कर छाओं देंगे भावनाओं को कभी
शब्द सौंदर्य का असीमित राग होते हैं
शब्द भावनाओं का भागीरथी प्रयास होते हैं
शब्द संस्कारों के हैं सारथी
शब्द हर मंदिर के हैं प्रार्थी
शब्द आराधना के रूप मैं हैं आरती
योजना वह भावनाओं की हों या भय की रूप रेखा
शब्द की सामर्थ्य समझो भी कभी
शब्द हर सभ्यता का आख़िरी हथियार होते हैं." ---- राजीव चतुर्वेदी (4April11)
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"
मैंने जो शब्द तौले थे पलकों पर कभी
उन्हें तुम बोल पाए क्या ?
न बोलो,
चुप रहो,
हमारे बीच में शब्दों की जरूरत है भी क्या ? " ----- राजीव चतुर्वेदी
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" सहमे सुलगते शब्द सड़कों पे क्यों आने लगे,
गर्मियों में झुग्गीयाँ हर साल जलती हैं.      ----- राजीव चतुर्वेदी
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" शब्द सिहर गए है
ठहर गए हैं
ठण्ड लग गयी है उन्हें
आग जलाओ शब्दों को तपाओ
आग में वह पिघलेंगे
आँख से वह निकलेंगे
जुबान पर आयेगे
होठ मुस्कुराएंगे
कलम से वो छलकेंगे
गीत से वो चहकेंगे
आग को सुलगाओ
समय की उदास भट्टी में
शब्दों को तपाओ
पिघलते शब्द अगर बहे तो सुलग जायेंगी शांत बस्तियां
शब्द लड़ाई की शुरूआत करते हैं
शब्द लड़ाई का आख़िरी हथियार होते हैं.
भाषा को लोरियां मत सुनाओ  
ठन्डे शब्दों को सुलगाओ
एक और क्रान्ति करनी है इन्ही शब्दों को अभी." --- राजीव चतुर्वेदी
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" शब्द भूखे ही लौट आये हैं चरागाहों से इस शाम
और नदी भी हमारे बीच रेंगती है इस रात को
  बांस के झुरमुट के सहारे खेत के उस ओर मेड़ों पर
   चाँद रोटी सा सुन्दर नज़र आने लगा है."----राजीव चतुर्वेदी
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" शब्द छलके हथेली में रखे पानी की तरह,
अफ़सोस ये कि पूरे अफ़साने में जुबां खामोश रही." -- राजीव चतुर्वेदी
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"शब्द सत्ता के जब शामिल हों जरूरत के जनाजे में,
सत्य को ललकारता जब सायरन का शोर हो
न्याय के मंदिर की मैना मौन की मुद्रा में हो
और धृतराष्ट्र की नज़रों पे निर्भर यह हमारा राष्ट्र हो
तो समझ लो क्रांति अब बेचैन है भूगर्भ में भूकंप सी गाव की पगडंडीयों से तुम ये कह दो राजपथ से पूछ्लें अब वह हिसाब."---- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, March 18, 2012

तू अगर खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ

"मेरे हक को तू नकार दे
मेरे हौसले का हिसाब दे
जो फासला था दरमियां
वह आज भी घटा नहीं
तू अगर खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ
में मजहबों में बंटा नहीं इबादतों से हटा नहीं
तू है देवता तो ये बता ये रास्ता क्यों अजीब है
गुनाह तो मेने नहीं किया फिर ये क्यों मेरा नसीब है
जहान में तू जहां भी है मुझे आज तक तू दिखा नहीं कभी तू कहीं मिला नहीं
तेरे बिना में कल भी था तेरे बिना में अब भी हूँ
ये वहम था मेरे जहन का जो आज तक मिटा नहीं ."
--- राजीव चतुर्वेदी

कासी के अमीरों से कबीरों का पता पूछा


"कासी के अमीरों से कबीरों का पता पूछा
ध्रुव तारा और लहर तारा के बीच
शंकर के शहर में सड़क क्यों हांफती है ?

और सोया है संस्कारों के गुबारों में शहर यों क्यों ?
सवालों के उत्तर क्यों सर झुकाए खामोश से हैं

घर से मगहर क्यों चला आया कबीर ?
"---- राजीव चतुर्वेदी 


Sunday, March 11, 2012

कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं

"एक बात बताऊँ तुम्हें,
कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं
बिलकुल वैसे ही जैसे किसी नवजात के पैदा होने पर सबसे ज्यादा शोर करते हैं हिजड़े
कवि सदैव तटस्थ भाव के प्रेमी होते हैं
कवियों में प्रायः होता है साक्षीभाव
यह भी समझ लो कि--
जिसमें होतां है साक्षीभाव उसमें होता है संघर्ष मैं शामिल होने के साहस का अभाव
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है वख्त की लोमहर्षक आंधी
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है ओस की बूँदें, गिरती वर्फ
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है धूप मैं तपते खेत खलिहान और किसान
कवि अपने माता पिता का पूरे जीवन तिरष्कार करके करते हैं कागज़ पर कविता में उनकी वेदना का अविष्कार
कवि मुफ्त की दारू पीकर फुफकारता है क्रान्ति
कवि बंद कमरों मैं खुली बहस करता है
कवि के किरदार होते हैं सिंथेटिक और नज़र होती है प्रेग्मैटिक
कविता अगर शिल्प है तो षड्यंत्र का सुन्दर स्वरुप है जो सच में कुरूप है
कविता अगर संवेदना है तो संघर्ष का शेषफल बताओ विभाज्य इकाई की वेदना भी सुनाओ
कविता अगर जागते समाज को सुलाती हुई लोरी है तो वह वैश्या के कोठे पर रखी पान की गिलौरी है
कवि दूसरे को खर्च कर अपनी कविता का कच्चा माल बनाता है तब एक कविता गुनगुनाता है
अगर सापेक्ष हो तो संघर्ष मैं शामिल हो जाओ और निरपेक्ष हो तो कविता सुनाओ
जब सीधी सपाट बातें भी लोगों की समझ मैं न आ रही हों तो कविता की जरूरत है भी क्या ?
बहुत सुन लीं जनवादी कविता से अवसरवादी व्यख्या
अगर समझो तो समझ लो यह भी कविता एक निर्विवाद संवाद भी है
समाज के बीच खींची दीवार का कान भी है
कविता पत्थरों की धड़कन है
कविता तारे का एकाकीपन भी है
कविता जंगल में रोने का संवाद है
कविता एक गुनगुनाया जानेवाला अवसाद है
कविता क्रान्ति की जड़ों की खाद है
अगर हो सके तो लड़ाई मैं शामिल हो जाओ और जब युद्ध मैं घायल हो तब ही कविता गुनगुनाओ." -----राजीव चतुर्वेदी


Saturday, March 10, 2012

त्रिज्या अब सयानी हो गयी है

"त्रिज्या अब सयानी हो गयी है
परिधि का पहरा बहुत गहरा है उस पर 
केन्द्र की भी कशमकश तुम जान लो
क्षितिज के छल से सिमटा है अपनी ही निगाहों में
ज्योमिती की हकीकत जिन्दगी की भी जरूरत है
दृष्टिकोणों की नहीं तुम दर्शनों की भी पड़ताल करलो
शून्य से चल कर हमारे आचरण अब एक सौ अस्सी अंश तक  अंगडाईया ले रहे है
प्यार के रिश्ते नहीं अब देह के रस्ते कहो तुम और यह भी जान लो
आत्मा से नहीं अब देह से स्पर्श रेखा जो खींची है
परिचय की परिधि का प्रश्न है वह
और तुम हो केन्द्र में
क्षितिज के छल को मरीचिका मान बैठे हो
परिधियों की अवधियों की पैमाइश परिक्रमा से जो करते हैं वो कायर हैं
पराक्रमी तो केन्द्र पर अधिकार करते हैं
प्रयोगों की प्रमेयों तक छल एक निश्च्छल सा, अज्ञान को विज्ञान किसने कहा ?
यक्ष हों या मोक्ष सभी ने कोशिशें की है कि सच को जान जाते वह
परिधियाँ नापनेवाले परीक्षा दे के लौटे है
तीर्थ के अर्थों के जैसी त्रिज्या केन्द्र के संपर्क में है
और तुम सत्य की दे कर परिक्रमा खाली हाथ लौट आये."  ----- राजीव चतुर्वेदी

मैं एक लडकी थी, करती भी क्या ?


"मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
गुड़िया के बर्तन मांजे थे फिर
घर के बर्तन भी माँजे
करती भी क्या ?
शोषण -पोषण के शब्द खदकते थे मन में
मैंने भी सब्जी के साथ उबाले हैं कितने
वह प्यार खनकते शब्दों सा खो गया कहीं खामोशी से, फिर मिला नहीं
"ममता-समता" की बात शब्दकोषों तक से पूछी बार-बार
विश्वास नहीं होता था रिश्तों का सच कुछ सहमा, कुछ आशंकित सा
शब्दकोषों से कोसों दूर खड़ा है क्यों ?
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
काबलियत और कातिल निगाहों की निगहबानी में
रास्ते तो थे भीड़ भरे पर उसमें मेरी राह बियावान थी
गिद्धों की निगाहें और
उससे छलकती शिकार के प्रति शुभकामना भी मेरे साथ थी
सहानुभूति का चुगा जब कभी खाया तो
बार बार लगातार उसका कर्ज भी चुकाया
और जब नहीं खाया तो खिसियाया शिकारी सा हर रिश्ता नज़र आया
मुझे सच में नहीं पता कि मैं किसी प्रेम का उत्पाद थी
या प्रेम के हमशक्ल प्रयाश्चित का प्रतिफल पर
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
चरित्र के वह फ्रेम जिसमें
मुझे पैदा करने वालों की तश्वीर छोटी पड़ती थी
मुझे फिट होना था
किसी को क्या पता कि मेरे मन में भी एक अपना निजी सा कोना था
सपने थे
शेष बचे कुछ सालों का समन्दर जो उछलना तो चाहता था पर था ठहरा हुआ
कुछ गुडिया थी ओझल सी
कुछ यादें थी बोझल सी
कुछ चिड़िया अभी चहकती थीं
कुछ कलियाँ अभी महकती थीं
कुछ गलियाँ अभी बुलाती हैं मुझको यादों की बस्ती में
कुछ शब्द सुनायी देते हैं जो फब्ती थे
कुछ गीत सुनायी देते हैं जो सुनती थी तो अच्छा सा लगता था
वर्तमान में जीने की जब चाह करी तो अपनों ने कुछ सपनो से गुमराह किया
कुछ सपने ऐसे भी थे जो गीत सुनाया करते थे फिर ग़ुमनाम हुए
कुछ सात्विक से जो रिश्ते थे पर हम उनमें बदनाम हुए
बचपन में गुडिया के कपड़ों पर पैबंद लगाया करती थी
यौवन मैं अपनी बातों में पैबंद लगाया करती थी
कुछ बड़ी हुई तो संवादों में पैबंद लगाना सीख लिया
वह रिश्ते जो थे आसों के
वह रिश्ते थे विश्वासों के
वह रिश्ते नए लिबासों के
जब थकते हैं तो पैबंद लगाना पड़ता है
मैं सुन्दर सा एक कपड़ा हूँ -- कुछ बुना हुआ,कुछ काढा हुआ,
कुछ उधड़ा सा, कुछ खोया हुआ ख्यालों में
तुम अपनी फटी दरारों में
तुम अपने उलझे तारों में
तुम अपने बिखरे चरित्रों पर
तुम अपने निखरे चित्रों पर
जब भी चाहो चिपका लेना
मैं पाबंदों का दुखड़ा हूँ
मैं पैबन्दों का टुकडा हूँ
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?" ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, March 9, 2012

सपने तो तैरे थे मेरी आँखों में


"सपने तो तैरे थे मेरी आँखों में
कितने ? ---अंदाज़ नहीं,
मेरा हर सपना
घूँघट से चल कर चौखट तक आया
फिर बिखर गया
सपने सच हो जाएँगे इक रोज
इन्ही संघर्षों में
जीवट से जूझा मैं मरघट पर आया
फिर किधर गया
सपनो का हश्र यहाँ होता है यह
कुछ इधर गया, कुछ उधर गया, कुछ बिखर गया
आने वाली पीढी की आँखों में
हर सपना जो था सहमा सा वह ठहर गया."  -----राजीव चतुर्वेदी     

Thursday, March 8, 2012

बोलो मेरी जान !!---तुम्हारे शब्दों में सामर्थ्य बहुत है

"शब्दों का सन्नाटा तोड़ो --कुछ तो बोलो
मैं भी चुप हूँ
तुम भी चुप हो
इत्र फुलेलों और गुलाल से गलियाँ महक रही हैं
और पेड़ की हर डाली पर चिड़ियाँ चहक रही हैं
शब्दों का सन्नाटा तोड़ो --कुछ तो बोलो
तुम्हारी खामोशी ख़तरा लगती है
बोलो मेरी जान !!---तुम्हारे शब्दों में सामर्थ्य बहुत है
खून सर्द जब होता है तो शब्दों से सुलगाता हूँ मैं
आशंकाओं से आहात हो शब्दों को दोहराता हूँ मैं
शब्दों में संगीत पिरोओ कुछ तो बोलो 
मैं भी चुप हूँ
तुम भी चुप हो
कुछ तो बोलो
बोलो मेरी जान !!---तुम्हारे शब्दों में सामर्थ्य बहुत है."  ----राजीव चतुर्वेदी 

Wednesday, March 7, 2012

जिन्दगी के इस सफ़र को रंग रोचक तो बनाता है

 
"जिन्दगी के इस सफ़र को रंग रोचक तो बनाता है
साधकों की साधना का केन्द्र
बच्चों की किलकारी और पिचकारी पूछो
प्यार की बस्ती का रास्ता
होलिका की आग से रोशन हो रंग और राग तक जाता है." ---- राजीव चतुर्वेदी
" साजिशें लगाती जिस शहर में हों गुलाल ,.
उस शहर का नागरिक होने का मलाल है."
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"उनके दिल काले और हाथों में गुलाल है,
यह हादसा देख कर मुझको मलाल है."
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"ये बाज़ार के रंग तो दो दिन का तमासा हैं,
मेरे दिल पर रंग अपना चढाओ तो कोई बात बने."
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"दिल है बदरंग, दिमाग है तंग पर हाथ मै है रंग,
इन रंगरेजों के रिश्ते रूहानी नहीं जिस्मानी हैं ."
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"सुबह रंग डालो शाम को गले मिलो,
पीठ में छुरा कल भोंक लेना .
अगर इससे खुश हो तो बधाई तुम्हें,
वरना पश्चाताप के आंसू पोंछ लेना. " ----- राजीव चतुर्वेदी
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"मैं भी रंगा हुआ हूँ ज़माने के रंग में,
ऐ आईने तू ही बता मेरी असलीयत क्या है ?"----राजीव चतुर्वेदी
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"आओ मेरे यारो
रंग लगा लो
गले लगा लो
भंग जमा लो
गालों पर भी मलो गुलाल
गाली तुम बकते हो तो ऐसा लगता है
मेरा कुत्ता भौक रहा है
यों तो कौओं को भी कुदरत ने हक़ बक्शा है कुछ कहने का
जब भी बोलो इन पर्वों पर
ऐसा बोलो
चिड़िया जैसे कुहुक रही हो
और हमारी हर हरकत को
आने बाली नश्लें देख रही हैं दालानों से
हमारी तरुणाई फूलों की अंगड़ाई जैसी
और हमारा प्यार सुगंधों सा फैला है
बहने, भाभी, प्रिया हमारी प्रेम परिधि में सब आती हैं
नन्हे बेटे, छोटा भाई प्यार हमारा सब पाते हैं
प्यार हमारा फूलों जैसा इस फागुन में भी महक रहा है
और स्नेह बहनों के मुह से चिड़िया जैसा चहक रहा है
प्रह्लादों की औलादों तुम यह बतलाओ
उस होली से इस होली तक
अच्छे लोग हाशिये पर क्यों कातर से खड़े हुए हैं ?"-----राजीव चतुर्वेदी
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"जिन्दगी के रंग जब रूठे हों मुझसे,-- क्या करूँ मैं ?
रिश्ते रास्तों में कहीं छूटे हों मुझसे ,---क्या करूँ मैं ?
ओढ़ कर तनहाई अपनी सांस की शहनाई सुनता हूँ
अपने अथाही मौन को मैं तोड़ता हूँ अपनी कविता से
संविधानो की शपथ के शब्द जब झूठे हों मुझसे --क्या करूँ मैं ?
" ----राजीव चतुर्वेदी

Friday, March 2, 2012

ख्वाब अब कोई नहीं शेष बचा इन आँखों में

"कल वो खुद ही गिरा था
आज गिरा है आंसू बन कर
ख्वाब अब कोई नहीं शेष बचा इन आँखों में."
  ----राजीव चतुर्वेदी  

Thursday, March 1, 2012

कलाम -ऐ- पाक की कसमें, आयत और रवायत भी

 " कलाम -ऐ- पाक की कसमें, आयत और रवायत भी
तुम्हारी शातिराना चुप्पी और मजहब की हिमायत भी
सभी ज़िंदा थीं कल काशी के किनारों पर
उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है
खून के कतरे और बिखरे चीथड़े
आरती के प्रार्थी और अर्थियों के बीच
तंग जहनी और तंग गलियों के पेचीदा सफ़र में
जो गुजरती है वह मुहब्बत की शहादत के सिवा कुछ भी नहीं.

ये सच की सीढियां जो घाटों को जाती हैं
ये सहमी पीढियां जो सच को गुन गुनाती हैं
ये खूनी सीढियां जो सुनती थीं विस्मिल्लाह की शहनाई
यही बैठा था कबीरा और कविता थी गुनगुनायी
उसी काशी की बेटी को तुमने मार डाला है.

खून के कतरे और बिखरे चीथड़े
आरती के प्रार्थी और अर्थियों के बीच
तंग जहनी और तंग गलियों के पेचीदा सफ़र में
जो गुजरती है वह मुहब्बत की शहादत के सिवा कुछ भी नहीं. " -- राजीव चतुर्वेदी
(गुजरे साल २०१० में कासी में गंगा के घाट पर आतंकवादीयों ने बम के धमाके को अन्जाम दिया था जिसमें एक अबोध बालिका भी मारी गयी थी इस पर मैंने उसी दिन यह कविता लिखी थी)
 

लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वख्त का सूरज अभी डूबा नहीं है








"समंदर की सतह पर एक चिड़िया ढूंढती है प्यास को
अब तो जन - गण - मन  के देखो टूटते विश्वास को
वर्फ से कह दो जलते जंगलों की तबाही की गवाही तुम को देनी है
और कह दो साजिशों से सत्य का चन्दन रगड़ कर अपने माथे पर लगा लें
और जितना छल सको तुम छल भी लो
लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वख्त का सूरज अभी डूबा नहीं है
एक भी आंसू हमारा आज तक सूखा नहीं है. " --- राजीव चतुर्वेदी