Thursday, July 31, 2014

फिर परिभाषा ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो

"अक्षर वह हैं , शब्द वही हैं , भाषा वह है
फिर परिभाषा ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो
रिश्ते वह हैं , देह वही है बस उम्र बही है चट्टानों से दरिया सी
फिर मिलने की चाहत ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो
मैं भी वह हूँ , तुम भी वह हो अक्स वही है दर्पण में

फिर मिलने की अभिलाषा ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो
जनता वह है , देश वही है , मुद्दे वह हैं
फिर नेताओं की भाषा ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो
कातिल वह है, लाश वही है , खंजर वह है , मंजर वह है
फिर मुलजिम के नामों की सूची ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो
अक्षर वह हैं , शब्द वही हैं , भाषा वह है
फिर परिभाषा ही क्यों बदली है ? --- बोलो तो .
"
----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, July 27, 2014

कविता की समझ की श्रंखला

"कविता किसे कहते हैं ? कविता की परिभाषा क्या है ? क्या आवृत्यमय गद्यखंड को कविता कहते हैं ? कविता के लिए क्या तुकबंदी जरूरी है ? … और वह तुकबंदी विचारों की हो या शब्दों की ? कविता आभाष है या पारिभाष ? आदि सवालों के उत्तर साहित्य की समझ को देने ही होंगे। " ---- राजीव चतुर्वेदी  
कविता -1

"कुछ कविता की पैरोडी कहने के आदी हैं
पहले कविता का गबन किया
फिर वमन किया कुछ शब्दों का
मौलिकता का सौंधापन तो स्वाभाविक समझा जाता है
शब्दों की सामर्थ्य, शास्त्र की समझ, प्रतीकों का पैनापन
अंगारों की आग, झुलसती बस्ती,
दावानल से दूर पिघलती वर्फ पहाड़ों की
छा जाती है जब अंतर्मन में कोलाहल सी
तो कविता आहट करती है खामोशी से
जो इत्र दूसरों से ले कर ही महके हैं
बेचारे इतने हैं कि हर विचार पर बहके हैं
कागज़
के फूल टिके हैं बरसों तक पर हर बसंत में बेबस है
हम तो जंगल के पौधे से हैं खिले यहाँ मिट जाएँगे
चर्चे मेरी मौलिकता के बंगले के गमले गायेंगे
ये पैरोडी के गीत गुनगुनाने वाले सुन
कोयल की पैरोडी कौओं के बस की बात नहीं
कुछ चिंगारी, कुछ अंगारे, कुछ तारे,
कुछ सूरज , थोड़ा सा चन्दा, शेष चांदनी
धूल गाँव की, शूल मार्ग के, भूखा पेट,
उदास चूल्हे की चीख चीरती है जब दिल को
इतिहासों के उपहासों के तल्ख़ तस्करे,
वह महुआ की तरुणाई, प्यार का मुस्काना,
वह नागफनी का दंश, वंश बबूलों का
वह नाव नदी मैं तैर रही आशंकित सी,
दूर चन्द्र के आकर्षण से लहरों का शोर मचाते सागर का भी इठलाना
वह देवदार के पेड़, चिनारों के पत्ते,
वह मरुथल की झाड़ी में खरगोशों का छिप जाना
वह बहनों की मुस्कान अमानत सी मन में,
वह बेटी का गुड़िया पर ममता जतलाना
वह नन्हे से बच्चे को ममता का घूँट पिलाती माताएं
वह बाहर जाते बेटे को बूढ़ी आँखों का उल्हाना
वह संसद में बेहोश पड़ा सच भी देखो
मकरंदों की बातें भौरों को करने दो
इन सब तत्वों पर तेज़ाब गिराओ अपने मन का
जो धुंआ उठेगा वह कविता बन जाएगी
जो रंग बनेगा वह तेरी कविता का मौलिक रंग कहा जाएगा
जो राग उठेगा उसको पहली बार सुना होगा तुमने
यह राग रंग की आवाजें जब गूंजेंगी तो शब्द बहेंगे
उन बहते शब्दों को लोग कहेंगे कविता है यह.
"
----राजीव चतुर्वेदी

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कविता -2
" मैं मुक्तक से मुक्त हुआ अब कविता तुम ही कर लेना ,
मैं चेतना और वेदना का अनुवाद करने जा रहा हूँ
तुम शब्दों में तुकबंदी ढूंढो
तुकबंदी में सत्य सदा तुतलाता रहता
भाषा के व्याकरण तलाशो

अलंकार के हर प्रकार में उलझाओ तुम सच को जितना
दोराहे पर खड़ी वेदना चीख रही है
शब्दों के सांचे में उसको ढाल रहे हैं वह तो 'सच' को सचमुच मार रहे हैं
वेदना के सांचे में शब्दों को ढालो
चीख उठोगे जिस भाषा में कविता उसमें बन जायेगी
इस शब्दों को पीटो अपनी पीड़ा से तुम ...पैने थोड़े बन जायेंगे
उनसे तुम तलवार बनाओ
शब्द ढलें तो ढाल बनाओ
तितली से कह दो वह तलवारों की धार पर बैठे
फूलों पर ही नहीं वह उपवन के हर खार पर बैठे
युद्ध क्षेत्र मैं पतझड़ की पैमाइश करता है बसंत जब ...कविता की खेती होती है
ऐसी कविता शंखनाद का घोष करेगी
तुकबंदी में तुतलाती कविता तर्क तथ्य और सत्य से कितनी दूर खड़ी है
अंगारों पर श्रंगारों की खेती मत कर
शब्दों के संकोचित सहमे से हर रिसाव में बहती कविता जन कविता है
तुम तुकबंदी कर चापलूस से चालीसे लिखना
मेरे शब्द समर्पित उसको
मैं मुक्तक से मुक्त हुआ अब कविता तुम ही कर लेना ,
मैं चेतना और वेदना का अनुवाद करने जा रहा हूँ .
" ----- राजीव चतुर्वेदी


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कविता -3

"मेरी बहने कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से
कविता बुनना नहीं जानती
वह बुनती हैं हर सर्दी के पहले स्नेह का स्वेटर
खून के रिश्ते और वह ऊन का स्वेटर
कुछ उलटे फंदे से कुछ सीधे फंदे से
शब्द के धंधे से दूर स्नेह के संकेत समझो तो
जानते हो तो बताना बरना चुप रहना और गुनगुनाना
प्रणय की आश से उपजी आहटों को मत कहो कविता
बुना जाता तो स्वेटर है, गुनी जाती ही कविता है
कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से कविता जो बुनते हैं
वह कविताए दिखती है उधड़ी उधड़ी सी
कविता शब्दों का जाल नहीं
कविता दिल का आलाप नहीं
कविता को करुणा का क्रन्दन मत कह देना
कविता को शब्दों का अनुबंधन भी मत कहना
कविता शब्दों में ढला अक्श है आह्ट का
कविता चिंगारी सी, अंगारों का आगाज़ किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
कविता बूढ़े सपनो की शेष बची कुछ आशें  हैं
कविता सहमी सी बहन खड़ी दालानों में
कविता  बहकी सी तरूणाई
कविता चहकी सी चिड़िया, महकी सी एक कली  
पर रुक जाओ अब गला बैठता जाता है यह गा-गा कर
संकेतों को शब्दों में गढ़ने वालो
अंगारों के फूल सवालों की सूली
जब पूछेगी तुमसे--- शब्दों को बुनने को कविता क्यों कहते हो ?
तुम सोचोगे चुप हो जाओगे
इस बसंत में जंगल को भी चिंता है
नागफनी में फूल खिले हैं शब्दों से
शायद कविता उसको भी कहते हैं." -----राजीव चतुर्वेदी
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कविता -4
"जो शब्दों से लिखी जाती है वह दरअसल कविता नहीं होती कविता जैसी एक चीज होती है ...कविता महसूस की जाने वाली एक अनुभूति है ...बेटी को गौर से देखो कविता दिखेगी ...बहन को गौर से देखो कविता लगेगी ...माँ को गौर से देखो कविता महसूस होगी ...एक मुजस्सम सी दीर्घायु कविता ...यों तो प्रेमिका या पत्नी भी कविता जैसी कोई चीज होती है कविता का चुलबुला सा बुलबुला जिसमें दिखता है इन्द्रधनुष पर फूट जाता है ...कविता स्त्रेण्य अभिव्यक्ति है और उसके तत्व आत्मा, भावना,कल्पना,करुणा भी स्त्रेण्य अभिव्यक्ति है." ----राजीव चतुर्वेदी
"कविता पारिभाष है या आभाष ?---मुझे क्या मालुम
मैंने जो लिखा उसमें शब्द की तुकबंदीयाँ तो थीं नहीं
लय थी प्रलय की और उसमें विचारों का बसेरा था
सांझ थी साझा हमारी और चुभता सा सबेरा था
देह से मैं दूर था पर स्नेह के तो पास था
मेरा प्यार भी था प्यार सा सुन्दर सलोना
एक गुडिया का खिलौना ...एक बच्चे का बिछौना ...एक हिरनी का हो छौना
प्यार का मेरे बहन उनवान लिखती थी
प्यार का मेरे खिड़कियों से झांकती खामोशियाँ अरमान रखती थीं
काव्य में मेरे महकते खेत थे,...खेतों में खडी इक भूख थी...गाय का बच्चा और उसकी हूक थी
नागफनी के फूल परम्परा से कांटे थे
घाव मिले थे हमको वह भी तो बांटे थे
कविता में मेरी तैरा करती नाव नदी में आशंकित सी
कविता में मेरे सर्द हवाएं थी...तूफानों को लिए समन्दर था
मेरे शब्दों में सिमटा था कोलाहल मेरे अन्दर था
कविता में मेरी आंधी थी...देवदार के पेड़, चिनारों की चीखें थीं
केसर की क्यारी में अंगारों की खेती थी
तितली थी फूलों पर बैठी आंधी से बेख़ौफ़ प्यार की परिभाषा सी
आंसू की वह बूँद पलक पर टिकी हुयी भूगोल दिखाती सी
मेरे आंसू की वह बूँद पलक पर कविता जैसी झलक रही है
झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा."
----राजीव चतुर्वेदी
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कविता -5
"अँधेरे में उजाले और भूख में निवाले के बीच संवेदना की भगदड़ है,
कुछ शब्द बिखरे हैं, कुछ निखरे हैं उन्हें समझो तो कविता समझ लेना.
"

                                         -----राजीव चतुर्वेदी
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कविता -6
" यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे ,
अमावस को तारे भी अवकाश में हैं
मुसाफिर सो गए हैं सोचते सुनसान से सच को
यह सच है कि सूरज डूबा था महज हमारी ही निगाहों में
 चीखती चिड़िया का चेहरा और गिद्धों का चरित्र
फूल की पत्ती पे वह जो ओस है अक्स आंसू का
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे
सहेजोगे तो कविता कागजों पर शब्द बन कर वेदना का विस्तार नापेगी
वह जो घर पर आज सहमी सी खड़ी है छोटी बहन सी भावना मेरी
आसमान को देखती है एक चिड़िया सी
उसकी निगाहों में सिमटा आसमान शब्दों में समेटो तो नदी की मछलियाँ भी मुस्कुरायेंगी
पीढियां भी संवेदना की साक्षी बन कर तेरी कविता गुनगुनायेंगी
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे, अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे.
ये कविता मेरी है गर वेदना तेरी हो तो बताना तू भी मुझको
यह विम्ब बिखरेंगे तो अखरेंगे अखबार बन जायेंगे
समेटोगे तो आंसू पलकों पे गुनगुनाएगे." ----राजीव चतुर्वेदी
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कविता -7

"शब्दों में भावना डाल कर मैंने फेंटा
अनुप्राश का दिया लपेटा
कुछ ऐसा कह डाला जिसकी गुंजाइश गुमनाम यहाँ थी
जीवन दर्शन में वह हरकत वैसे तो बदनाम यहाँ थी
मैंने बांटा
तुमने चाटा
लडकी ने कविता लिख डाली
लड़कों ने फिर करी जुगाली
वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद
होगयी कविता
कविता अब डेटिंग करती है
मित्रों की सैटिंग करती है
साहित्यों की बात करो मत
फेसबुक का पन्ना है यह
यहाँ उल्हाना और लुभाना दो ही काम किये जाते हैं
प्यार की संभावना संकोच करती है
तो कविता के नीचे ईलू -ईलू पैगाम दिए जाते हैं
लिखा हुआ है --सुन्दर -सुन्दर
सोच रहा हूँ ताक झाँक कर कौन है सुन्दर ?
कविता या वह बबिता कविता लिखने वाली
कविता पढ़ ली ख़ास नहीं है
कविता से सुन्दर तो वह है फर्जी प्रोफाइल का फोटो
वह ही सुन्दर दीख रहा है
कविता से सुन्दर है बबिता
कविता डेटिंग पर आयी है
पाठक सैटिंग पर आया है
सुन्दर -सुन्दर ,वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद

शब्दों में भावना डाल कर मैंने फेंटा
अनुप्राश का दिया लपेटा
कुछ ऐसा कह डाला जिसकी गुंजाइश गुमनाम यहाँ थी
जीवन दर्शन में वह हरकत वैसे तो बदनाम यहाँ थी
मैंने बांटा
तुमने चाटा
लडकी ने कविता लिख डाली
लड़कों ने फिर करी जुगाली
वाह -वाह और अद्भुद -अद्भुद .
" ----- राजीव चतुर्वेदी


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कविता -8
"सुबोध और अबोध के सौन्दर्यबोध के बीच
कविता लफंगों की बस्ती से गुजरती सहमी लडकी सी
साहित्यिक सड़क पर चल रही है
कुछ के लिए श्रृंगार है
कुछ के लिए प्रतिकार है
कुछ के लिए अंगार है
कुछ के लिए प्यार का इजहार है
कुछ के लिए साहित्य की मंडी या ये बाजार है
कुछ शब्द अभागन से
कुछ शब्द सुहागन से
कुछ सहमे से सपने
कुछ बिछड़े से अपने
कुछ दावानल से दया मांगते देवदार के बृक्ष काँखते कविता सा कुछ
कुछ की गुडिया
कुछ की चिड़िया
कुछ नदियाँ कलकल बहती सी
कुछ सदियाँ पलपल गुजर रहीं
वह हवा ...हवा में तितली सी इठलाती सी वह याद तुम्हारी
वह तुलसी का पौधा ...पौधे की पूजा करती माताएं
वह गोधूली में घर आती वह गाय रंभाती सी
वह बहनों का अंदाज़ निराला सा
वह भाभी का तिर्यक सा मुस्काना
वह दादी की भजनों में भींगी बेवस कराह
वह बाबा का प्यार में डांट रहा खूसट चेहरा
कविता में अब लुप्तप्राय सी माँ बहनों और याद पिता की
बेटी पर तो इक्का दुक्का दिखती हैं
पर बेटों पर प्रायः नहीं दिखी कविता
कुछ काँटों से चुभते हैं
कुछ प्रश्न यहाँ हिलते हैं पत्तों से
कुछ पतझड़ में सूखे पेड़ यहाँ रोमांचित से
कुछ मुरझाये पौधे गमलों में सिंचित से
वह गौरैया के झुण्ड गिद्ध को देख रहे हैं चिंतित से
इन परिदृश्यों के बीच गुजरती एक परी सी शब्दों की
---वह कविता है .
"
----राजीव चतुर्वेदी
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कविता -9
"कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अनहदों को गुनगुनाना
मरा हुआ व्यक्ति कविता नहीं समझता
मरे हुए शब्द कविता नहीं बनते
ज़िंदा आदमी कविता समझ सकता ही नहीं
ज़िंदा शब्द कविता बन नहीं सकते
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना
इस लिए भाप में नमीं को नाप
अनहद की सरहद मत देख हर हद की सतह को नाप
कविता संक्रमण नहीं विकिरण है
आचरण का व्याकरण मत देख
शब्देतर संवाद सदी के शिलालेख हैं
उससे तेरी आश ओस की बूंदों जैसी झिलमिल करती झाँक रही है
जैसे उड़ती हुयी पतंगें हवा का रुख भांप रही हैं
नागफनी के फूल निराशा की सूली पर
और रक्तरंजित सा सूरज डूब रहा है आज हमारे मन में देखो
उसके पार शब्द बिखरे हैं लाबारिस से
उन शब्दों पर अपने दिल का लहू गिराओ
कुछ आंसू ,मुस्कान, मुहब्बत, मोह, स्नेह, श्रृंगार मिलाओ
शेष बचे सपने सुलगाओ उनमें कुछ अंगार मिलाओ
अकस्मात ही अक्श उभर आये जैसा भी
गौर से देखो उसमें कविता की लिपि होगी 
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना ." ----- राजीव चतुर्वेदी
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"यह साहित्यकारों का नहीं 'शब्द हलवाईयों' का दौर है और कविता एक अपरिभाषित सा जुमला है ।"
"शब्द जलेबी को कविता जो समझे बैठे
मेरा उनसे आग्रह है आशय समझाओ
फूल कली मकरंदों की तुम बात न करना
कविता में सम्प्रेषणता कितनी यह बतलाओ ?
"

------ राजीव चतुर्वेदी
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कविता -10

"सवा अरब की आबादी में प्यार की कविताए कहते लोग सुनो तुम

सच्चाई से आँख
मूँद कर बेतुक से हेतुक साध रहे
हर कायर शब्दों के शिल्पकार को कवि न समझो
ध्यान रहे धृतराष्ट्र यहाँ था, सौ बच्चों को नाम दे गया
देखो नेताओं के भाषण के धारें समय के शिलालेख पर पैनी होती जाती हैं
और कतारें राशन की गलियाँ लांघ सड़क की पैमाइश करती हैं असली भारत की
जहां हमारे देश की सूरत और घिनौनी होती जाती है
भूखी गरिमा सहमी सी मर्यादा में कैद
तुम्हारी नज़रों के हर खोट भांप
महगाई की अब चोट से घायल झीने से कपड़ों में कातर कविता सी दिखती है
कामुकता की करतूतों को जो प्रेम कहा करते हैं
उनसे पूछो सच बतलाना
घर की दहलीजों के भीतर सहमी सी बेटी पिता की आँखों में क्या- क्या पढ़ती है ?
वात्सल्य का शल्य परीक्षण कर डालोगे, कलम तुम्हारी कविता लिख कर काँप उठेगी
शब्दों की अंगड़ाई में सच की साँसें सहमेंगी फिर हांफ उठेंगी  
बहन सहम के क्यों ठहरी हैं दालानों में ?
भाई, भाई के मित्र निगाहों से किस रिश्ते की पैमाइश करते हैं
फब्तियों के वह झोंके और झपट्टा हर निगाह का,... एक दुपट्टा जाने क्या क्या सह जाता है
और गाँव का वह जो गुरु है गिद्ध दृष्टि उसकी भी देखो
पढ़ पाओ तो मुझे बतान--- वात्सल्य था या थी करुणा या श्रृंगार था
कामुकता को कविता जो समझे बैठे हैं मटुकनाथ से हर अनाथ तक
हर भूखा वक्तव्य काव्य की अभिलाषा में बाट जोहता शहरों के अब ठाठ देख कर खौल रहा है 
और सभ्यता के शब्दों की पराक्रमी पैमाइश करते
छल के कोष शब्दकोषों की नीलामी करते भी देखो तो कविता दिखती है
अपनी माँ का दूध न पी पा रहे गाय के बछड़े की निगाहों में भी देखो झाँक कर
कविता में वात्सल्य गुमशुदा है वर्षों से
कविता में सौन्दर्य था तो फिर क्यों गुमनाम हो गया
गौहरबानो को देखा था कभी शिवा ने वह बातें क्यों अब याद नहीं आती हैं हमको
कामुकता को आकार दे रहे शब्दों के संयोजन को संकेतों से कहने वालो
सहमी है बुलबुल डालों पर और गिद्ध वहीं बैठा है
सहमी है बेटी घर पर अब पिता जहां लेटा है
गाँव के बच्चे शहरों से सहमे हैं
सिद्धो के शहरों में गिद्धों के वंशनाश के क्या माने पर गौरईया पर गौर करो तो कविता हो
सहवासों, बनवासों, उपवासों  में उलझा आद्यात्म यहाँ
यमदाग्नी से जठराग्नी तक की बात करो तो कविता हो
कामुकता को कविता कहने वालो
सवा अरब की आबादी में क्या तुमको यह अच्छा लगता है ?"
                                                               
------राजीव चतुर्वेदी

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कविता -11  
"जहाँ एक के हाथ में हीरा हो और दूसरों के जिश्म पर जख्मों का जखीरा हो, तब क्या करोगे कलमकार ? ...चीखोगे या चुप रहोगे ? ...चीख को किसी भाषा, किसी परिभाषा, किसी अनुवाद की जरूरत नहीं ...वह मुकम्मल संवाद है .---इस संवाद का सूचकांक तय करेगा कि लेखक कितना सार्थक है ?"
"
कविता कुछ के लिए कथा है
कविता कुछ के लिए प्रथा है
कविता मेरे लिए व्यथा है
वारिश में भींगे कुछ लावारिश से शब्द हमारी सिसकी हैं ,
साहित्य का प्रयोजन
और आयोजन उनका
तुम्हारे लिए मनोरंजन है
और हमारे लिए
चीख का दस्तावेज़
व्याकरणों से दूर आचरणों को आकार दे रहा शब्दों से
आग्रह की अकादमी में तुम संग्रह करते हो विग्रह की कथित कवितायें
है कर्ज तो तुम पर करुणा का
पर फर्ज तुम्हारा फ़र्जी है
कविता की गुणवत्ता की यह भी तो एक कसौटी है
हर सिसकी पर सिसमोग्राफ हिले थोड़ा
शब्दों की सम्प्रेषणता से रिक्टर स्केल सहम जाए
सिंथेटिक साहित्य शून्य का सृजन किया करता है
तब अंतिम चीख प्रथम कविता का उनवान लिखा करती है ."

                                                   ---- राजीव चतुर्वेदी

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कविता -12 
"यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है
भाषा के पहले शब्दों के नाद हुए अनुवाद जहां
कविता उसके पहले भी आई थी
वह दस्तक दर्ज हुयी है दस्तावेजों में
कुछ अपने आंसू
कुछ खुशियाँ , कुछ खून की बूँदें
शब्दों की नज़रों से ओझल प्यार तुम्हारा
लिख पाओ तो मुझे बताना
कह पाओ तो मुझे सुनाना
जीवन की इस पृष्ठ भूमि पर कविता और लिखी जानी है
यह राग रंग की आवाजें
यह शब्दों की अंतरध्वनियाँ
यह खून शिराओं से चल कर दिल पर दस्तक जो देता है
स्मृतियों की पदचाप सुनो तुम अपने बीराने में
आहत मन की आहट का आलेख ----यही कविता है ." -----राजीव चतुर्वेदी

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कविता -13 
"शब्दों पर रहम करो
उन्हें ठोक पीट कर कविता न बनाओ
बाहें न मरोड़ो शब्द की
तुम्हारी मुस्कुराती कविता में शब्द कराहेंगे
घायल शब्द अकेले में विलाप करेंगे

एक दूसरे से मिल कर सुबकेंगे
किसी शीर्षक की डोरी पर टंगे शब्द सूख जाते हैं
मुर्गीयों के व्यापारी जैसे मुर्गीयों को पिंजड़े में भर कर रखते हैं

कुछ लोगों ने वैसे ही कुपोषित शब्दों को पिंजड़े नें बंद कर रखा है
तुम्हारे वीराने में पड़े शब्द आपस में टकराते हैं
आपस में टकरा कर खड़कते हैं
शब्दों में सामंजस्य होगा तो संगीत निकलेगा
शब्द आपस में टकराएंगे तो शोर करेंगे
शब्द चहकेंगे तो महकेंगे
शब्दों को प्यार दो
शब्दों को उनके स्वाभाविक प्रवाह का अधिकार दो
शब्द नृत्य करेंगे, संगीत देंगे
शब्द अपनी ही लय पर थिरकेंगे
उन शब्दों में
एक कविता थिरकेगी .
" ----- राजीव चतुर्वेदी




Saturday, July 19, 2014

बलात्कार की घटनाओं की आड़ में लिंग युद्ध को बढ़ावा न दें



"स्त्री और पुरुष के बीच परस्पर प्राकृतिक आकर्षण के सम्बन्ध रहे हैं . आदिम युग में आकर्षण नहीं एक पक्षीय अतिक्रमण होता था ...देवता सुन्दर कन्याओं को देख कर और कुछ नहीं बस पुत्रवती होने का आशीर्वाद ही देते थे...वर्जन मेरी क्वारी माँ थीं तो मोहम्मद की महिलाओं के प्रति हरकतें ठीक नहीं थीं . ...सभ्यता का क्रमशः विकास हुआ ...धार्मिक कानूनों की जगह सभी समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप समतावादी क़ानून आये ....स्त्री पुरुष के उपभोग की चीज यानी "भोग्या" नहीं रही ...अब स्त्री पुरुष के परस्पर आकर्षणजन्य दैहिक सम्बन्धों को "उपभोग " या "विषय भोग " नहीं "सम्भोग" कहा जाने लगा यानी "भोग की समता" ...यानी राग इधर भी हो उधर भी ...आग इधर भी हो उधर भी . इसके लिए जरूरी थे स्त्री -पुरुष के सामंजस्यपूर्ण रिश्ते ...आकर्षण पैदा करने के नैतिक और भौतिक अवसर .---- क्या हैं ? आज स्त्री और पुरुष परस्पर आकर्षण के अवसरों की तलाश में नहीं एक द्वंद्व में शामिल हैं .... देश के कथित बुद्धिजीवियों ने , व्यथित महिला आंदोलनों ने और पतित पत्रकारों ने स्त्री -पुरुष सामंजस्य और स्वाभाविक आकर्षण की जगह "लिंग युद्ध " यानी Gender War शुरू कर दी . ...स्त्री -पुरुष के बीच परस्पर आकर्षण का वातावरण असंतुलित होने लगा ...."सम्भोग " के लिए आवश्यक स्त्री -पुरुष "समता " जाती रही आदिम युग का स्त्री "उपभोग" चालू हुआ ...स्त्री -पुरुष के बीच लिंग युद्ध यानी gender war की शुरूआत हो चुकी थी ...परस्पर आकर्षण की जगह परस्पर आक्रामकता आ चुकी थी ...समाज में प्रणय निवेदन की जगह प्रणय अतिक्रमण होने लगे " ...आ मेरी गाडी में बैठ जा ..." हन्नी सिंह और टेम्पू -टेक्सी में चीखते भोजपुरी गाने प्रणय निवेदन की जगह प्रणय अतिक्रमण का प्रचार कर रहे थे ...वातावरण बन चुका था ...लिंग युद्ध यानी gender war की रणभेरी गली-गली पूरी गलाजत से गूँज रही थी ...परस्पर आकर्षण और 'सम्भोग' के समीकरण बदल चुके थे अब फिरसे अतिक्रमण और 'उपभोग' की शुरूआत थी . ---- हर बलात्कार की घटना इसका शुरूआती सामाजिक संकेत है . याद रहे पुलिस की भूमिका बलात्कार के बाद शुरू होती है और समाज की भूमिका बलात्कार के पहले, बहुत पहले शुरू हो जाती है . पुलिस को कोसने के पहले हम समाज को क्यों नहीं कोसते ? हम बलात्कार की इन घटनाओं की आड़ में लिंग युद्ध को बढ़ावा न दें ...लिंग युद्ध यानी gender war के कारण ही पुरुष अतिक्रमण बढ़ रहा है जिसका संकेत हैं बलात्कार की बढ़ती वीभत्स घटनाएं ...हमको स्त्री -पुरुष के बीच परस्पर आकर्षण के अवसर और वातावरण को बढ़ाना होगा ताकि प्रणय अतिक्रमण नहीं प्रणय आग्रह हो ." ------ राजीव चतुर्वेदी

Monday, July 14, 2014

सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था

"हमारे और तुम्हारे बीच सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था
सुना है वह अब नहीं रहा
यादों में
वादों में
इरादों में
मुरादों में
वक्त की आरी से झाड़ते बुरादों में
वह अब कहीं भी नहीं है
क्यारी में
आरी में
फ्रिज में रखी तरकारी में
बंगले के गमलों में
फुलवारी में
जिस सभ्यता के हाथों में आरीयाँ थी
जिन्होंने जंगल काटे
आज उन्हीं की जुबान पर आरियाँ हैं
जंगल काटने के हर आरोप को काटती हुयी
सुना है जंगल काटने से बहुत चिंतित हैं
वह सभी लोग
जिनके घर पर सोफे हैं दीवान है
चौखटें हैं दरवाजे हैं
आयुर्वेदिक औषधियां हैं
लगता तो है यही
यहाँ हर आरी पर
वन महोत्सव की तैयारी की जिम्मेदारी है
जंगल इस सदी के दाधीच हैं
जिनकी हड्डियों की यानी लकड़ियों की
सभ्यता को बहुत जरूरत है
बरगद की बोनसाई बनते लोग आज जंगल के प्रति संवेदना की बोनसाई उगा रहे हैं
सुना है विश्व वन महोत्सव के बहाने
कुछ अभिजात्य लोग
अपने ही अंतःकरण के गले में टाई बांधे
जंगल में मंगल मना रहे हैं
और दूर
इस साजिश से सहमी तितली तुतलाती है
शब्दकोष में दर्ज बसंत की परिभाषा
उसको साजिश सी लगती है
देवदार के पेड़ जूझते दावानल से उनको देखो
सदियों से जो नदियाँ बहती आतीं देखो
कलकल करती कालखण्ड से क्या कहती हैं ?
हर क्यारी की चौकीदारी
जैसे आरी की हो जिम्मेदारी
जागरूक जंगल के कातिल
आज उसी जंगल का शोक मनाते शोर कर रहे
कातिल आज मसीहा बनने निकल पड़ा है
जंगल के कातिल ने मंगल खूब मनाया
पिछले साल के कितने पौधे पनपे कितने नहीं रहे
इस सवाल का उत्तर लावारिस सा छोड़
टाई बाँध कर सरकारी से इक नौकर ने बकरी के खाने को शायद फिर से पौधा एक लगाया

हमारे और तुम्हारे बीच सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था
सुना है वह अब नहीं रहा." ---- राजीव चतुर्वेदी



कागजों की नाव से सिद्धांत तेरे

"सत्य के समुद्र में
कागजों की नाव से सिद्धांत तेरे
तैरते कुछ दूर तक फिर डूब जाते हैं

सुबह से शाम तक हम
चेहरे बदलते हैं
होठों पर लिपस्टिक की तरह मुस्कान लगाते हैं
फिर खुद से ऊब जाते हैं

सजी संवरी सी शामों में
मुखौटे सजाये घूमते फिरते तो हैं हम
रात होते ही
अपनों से अपनी ही तन्हाई
लुटने से बचाते हैं

और फिर
दिन भर बटोरे थे जो गम हमने
उन्हीं में से कुछ गम हम ओढ़ लेते हैं
और कुछ में डूब जाते हैं

सत्य के समुद्र में
कागजों की नाव से सिद्धांत तेरे
तैरते कम हैं अधिकतर डूब जाते हैं ."
----- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, July 8, 2014

एक दिन... जब तुम

"एक दिन ...
जब मुझसे मिल कर तुम्हें लगा था
कि तुम अकेले नहीं हो
दरअसल मैं उस दिन बहुत अकेला था
लेकिन तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ
तुम्हारी बड़ी सी जिन्दगी में एक दिन ...

एक दिन...
जब तुम रोना चाहो
मुझे आवाज़ देना
मैं वादा नहीं करता
कि मैं तुम्हें हँसा दूंगा
अगर मैं तुम्हें अपने साथ न हँसा सका
तो तुम्हारे साथ रो तो सकता हूँ

एक दिन...
जब तुम्हारा मन सब कुछ छोड़ कर
कहीं दूर भाग जाने का हो
मुझे आवाज़ देना
मैं वादा तो नहीं करता
कि मैं तुमसे कह सकूंगा-- "रुको"
लेकिन मैं तुम्हारे साथ भाग तो सकता हूँ

एक दिन...
जब तुम्हारा मन किसी से भी बात करने का न हो
मुझे आवाज़ देना
मैं वादा करता हूँ
कि तुम्हारे पास जरूर आऊँगा दबे पाँव
आ कर चुपचाप बैठा रहूँगा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर

एक दिन ...
जब तुम्हारा मन बाजार से खरीदना चाहे कुछ खुशी
पर तुम्हारे पास उतने पैसे न हों
मन मत मारना
मुझे आवाज़ देना
मैं आऊँगा और कहूँगा
पागल मैं अभी हूँ
और जब तक मैं हूँ तुझे उदास होने का हक़ नहीं है
मेरी शर्ट में जो जेब है तुम्हारी है

एक दिन...
जब जरूरत पड़ने पर
तुम मुझे आवाज़ दोगे
और उत्तर नहीं पाओगे

एक दिन ...
हर बार की तरह
तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पंहुचेगी
लेकिन मैं नहीं आऊँगा
उस दिन तुम ही जल्दी से चले आना
जान जाना मैं अब नहीं रहा
एक दिन..." ---- राजीव चतुर्वेदी

मैं आसमान का आँचल ओढ़े खड़ी रही

" मैं आसमान का आँचल ओढ़े खड़ी रही
तुम बदल बन का घुमड़े आंधी बन कर उड़े
मैं नदियों सी बहती, धरती सी सहती ,
कुछ गीत हवाओं से कहती
पितृ पहाड़ों से समुद्र तक चल आयी
तुम नाव बने और पार हुए,
मेरे शरीर से टकराए
तुम बाँध बने पर मुझको रोक नहीं पाए
तुम जब आये आंधी बन कर आये और गुजर गए
मैंने जब भी सृजन किया
तब हर विनाश पर तुम कुछ तिर्यक मुस्काए
मैं प्रकृति हूँ मुझको गर्व इसी पर है
पर सच बतलाना
तुम क्या परमेश्वर बन पाए ?" ---- राजीव चतुर्वेदी