Monday, December 30, 2013

आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है

"आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा
शैतान ईसा को और समय कलेंडर को सूली पर टांग देता है
और देखता है तवारीख और तारीख लहूलुहान
कलेंडर में दर्ज हैं कितने ही निशान जरूरत और जख्मों के
रगड़ते समय की खराशें ख्वाहिश और खलिश सारी
दूध का हिसाब , अखबार , त्यौहार ,
परीक्षा, प्रतीक्षा शादी जन्मदिन की तिथियें सारी

बहता हुया समय दिन सप्ताह महीना
गुजरते हुए लोग ठहरा हुआ सपना
दर्ज करते हैं कलेंडर पर
और फिर बदल देते हैं हर साल एक नए कलेंडर से

बिलकुल वैसे ही
जैसे पीढियां बदल जाती हैं खूबसूरत खामोशी से

सीढियां और पीढियां समय के सफ़र के सूचकांक हैं
दर्ज हैं इन्हीं कलेंडरों में
इन कलेंडरों में तारीखे गुनगुनाती हैं ...कराहती हैं कभी
नदियाँ और सदियाँ बहती हैं कलेंडर में
आशा के साथ टंगता है हर कलेंडर खूंटी पर
और आशीर्वाद देता गुज़र जाता है

इन कलेंडरों में दर्ज हैं सीमित साधन और सपने सारे
इन कलेंडरों में दर्ज हैं गुजर गए वह अपने सारे
इन कलेंडरों में दर्ज हैं सैकड़ों बार अस्त हो कर उगते सूरज
वर्ष भर फैला उजाला, बिखरी चांदनी,
कुछ बादल, आशा का आकाश बड़ा सा

थोड़ा चन्दा ...जोश पर गिरती ओस वक्त की
कुछ अपने, कुछ सपने जो सो गए समय का कफ़न ओढ़ कर
आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा
एक दिन मैं भी कुछ कलेंडर याद में लेकर गुज़र ही जाऊंगा
मेरी तरह यह भी ...इसकी तरह मैं भी
आज यह खूंटी पर टंगा कलेंडर खामोश सा है
कल सुबह यह गुज़र ही जाएगा ." ------- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 26, 2013

ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा


"ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा
काँप जाता है ज़िंदा आदमी
तुम अहिंसक गांधी को पराक्रम से नहीं, पैर छू कर गोली से मार सकते हो
तुम ईसा को सूली पर चढ़ा सकते हो ...तो चढ़ा दो उसे
ठोक दो कीलें उसके दिल दिमाग हाथ और पैरों पर
क़त्ल कर दो उसे सरेआम
उसकी मौत तुम पर भारी पड़ेगी एक दिन
वातावरण में व्याप्त हो जाएगा कातिलों को कफ़न उढाता उसका नाम
मंडेला से मिश्र तक क्यूबा से कुवैत तक हर क्रान्ति पर दर्ज होगा उसका नाम
राजनीतिक भूगोल में क़त्ल कर दिए गए लोग कातिल से अधिक कामयाब हैं
तुमने गांधी को मारा था
और चुनाव लड़ते में तुम्हारी जुबान पर गांधी का दिया ही नारा था
स्वदेशी हो रामराज्य या स्वराज्य गांधी का दिया नारा था
जो आज भी तुम्हारा सहारा था
गांधी की ह्त्या करनेके के बाद तुम एक नारा भी नहीं गढ़ सके ?
जब कातिलों ने सूली पर टांगा था ईसा को तो उन्हें नहीं पता था
खंडित हो जाएगा काल
और फिर वह "काल-खंड" कहलाएगा
टांगा था ईसा को तो देखलो यह सच लटकता हुआ ...खंडित काल खंड
युग बाँट गया "ईसा पूर्व" और "ईसा बाद" में .
पर याद रखो
ईसा मसीह के अनुयायी
साल दर साल सलीब सजाते हैं
लाखों नयी सलीब बनाते हैं
और उसपर ईसा को टांग कर जश्न मनाते हैं
सलीबें तोड़ते नहीं देखे
याद रहे
ईसा के अनुयाईयों ने ही टांगा था गैलीलियो को मौत के सलीब पर
गैलीलियो सच था और फिर ब्रम्हांड बाँट गया
सलीब पर टंगे लोगों की आह से
दुनिया बाँट गयी पहली दूसरी और तीसरी दुनिया में
सलीब पर टंगा असहाय दिखता सच
काल खंड को बाँट देता है
क्योंकि सच के लिए मर चुका आदमी दोबारा मर नहीं सकता
इसलिए निर्भीक होता है ...पूरी तरह एक मुर्दा मृतुन्जय
सच के लिए सचमुच मर चुके लोगो
अब तुम्हारे ज़िंदा होने का समय आ गया है
पहले से भी ज्यादा ज़िंदा और धड़कते हुए
ईसा पूर्व ...ईसा बाद, ...शताब्दी, ...साल महीने ..सप्ताह ..दिल में धड़कते हुए
बता दो उन्हें क़ि तुम जिन्हें वक्त की सूली पर टंगा मरा हुआ सा असहाय समझते थे
वह सभी सत्य ज़िंदा होगये हैं
तारीख बदलेगी तो तवारीख भी बदलेगी ...तश्दीक कर लेना
जब जब दमन होगा तुमको गांधी याद आयेंगे गौडसे नहीं
बदल दो नए साल का केलेंडर
कितना बदलोगे कितनी बार बदलोगे
विश्व के क्रान्ति पटल पर गांधी ज़िंदा है
विज्ञान में गैलीलियो और अभिमान में सूली पर टंगा ईसा ज़िंदा है
मुर्दा कातिलों को कफ़न उढाओ,
यह सभ्यता इनकी करतूत से शर्मिंदा है .
" ----राजीव चतुर्वेदी





Sunday, December 22, 2013

मैं हवा हूँ मेरे मित्र, मेरे साथ चाहो तो बहो वरना घरों में चुपचाप रहो

" मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना घरों में चुपचाप रहो
तुम पर दर ...उस पर बाजे से बजते दरवाजे हैं
हर मौसम में खीसें निपोरती खिड़कियाँ हैं
मौसम को कमरे में बंद करने का दंभ है
सांसारिक सम्बन्ध है ...काम का अनुबंध है ...सुविधाओं का प्रबंध है
संवेदनाओं का पाखंडी निबंध है
जिसमें शब्दों की बाढ़ किनारे छू कर लौट आती है हर बार
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं
न दर है न दरवाजा न खिड़की न रोशनदान कोई
कोई बंधन भी नहीं
बहते लोगों के सम्बन्ध नहीं होती
स्वतंत्र लोगों के अनुबंध नहीं होते
निश्छल लोगों के प्रबंध नहीं होते
निर्बाध वेग का निबंध कैसा ?
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना बाहर के कोलाहल से
अपने अन्दर के सन्नाटे का द्वंद्व सहो
और कुछ न कहो

देखना एक दिन मैं अपने प्रवाह में लीन हो जाऊंगा
और तुम अपने ही अथाह में विलीन हो जाओगे
तब यह दर ...यह दरवाजे ...यह खिड़कियाँ
तुम्हें हर पूछने वाले से कह देंगे
बहुत कुछ सह गया है वह
हवा में बह गया है वह
चुपके से ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 19, 2013

कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना

"कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और अनहदों को गुनगुनाना
मरा हुआ व्यक्ति कविता नहीं समझता
मरे हुए शब्द कविता नहीं बनते
ज़िंदा आदमी कविता समझ सकता ही नहीं
ज़िंदा शब्द कविता बन नहीं सकते
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना
इस लिए भाप में नमीं को नाप
अनहद की सरहद मत देख हर हद की सतह को नाप
कविता संक्रमण नहीं विकिरण है
आचरण का व्याकरण मत देख
शब्देतर संवाद सदी के शिलालेख हैं
उससे तेरी आश ओस की बूंदों जैसी झिलमिल करती झाँक रही है
जैसे उड़ती हुयी पतंगें हवा का रुख भांप रही हैं
नागफनी के फूल निराशा की सूली पर
और रक्तरंजित सा सूरज डूब रहा है आज हमारे मन में देखो
उसके पार शब्द बिखरे हैं लाबारिस से
उन शब्दों पर अपने दिल का लहू गिराओ
कुछ आंसू ,मुस्कान, मुहब्बत, मोह, स्नेह, श्रृंगार मिलाओ
शेष बचे सपने सुलगाओ उनमें कुछ अंगार मिलाओ
अकस्मात ही अक्श उभर आये जैसा भी
गौर से देखो उसमें कविता की लिपि होगी 
कविता के लिए जरूरी है जिन्दगी के पार निकल जाना
और
अनहदों को गुनगुनाना ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Friday, December 13, 2013

मैंने इश्क की इबादत कब की ?

"मैंने इश्क की इबादत कब की ?
ये रवायत थी कवायद कब की ?
मैंने तो सोचा था इश्क से महकेगी फिज़ा
मैंने सोचा था कुछ फूल यहाँ महकेंगे
मैंने तो सोचा था कुछ जज़वात यहाँ चहकेंगे
मैंने सोचा था चांदनी ओढ़े हुए कुछ ख्वाब खला में होंगे
मैंने सोचा था इकरा तेरे रुखसार का उनवान होगी
मैंने सोचा था तेरे बदन की खुशबू मेरी मेहमां होगी
मैंने चन्दा को समेटा था तेरे माथे पे बिंदी की जगह
तू इबादत थी या आदत मेरी,-- सहमी हुयी शहनाई से भी पूछ ज़रा
तू शराफत थी या शरारत मेरी, -- तन्हाई से भी पूछ ज़रा
मैंने इश्क की इबादत कब की ?
यह महज शब्द है अल्फाजों में सिमटा सा हुआ
अब इसे अहसास उढा कर मैं सो जाऊंगा." ----राजीव चतुर्वेदी

Thursday, December 5, 2013

सुनो...तुम पूछती हो न कि तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै...??

"सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
हर रिश्ता एक सीमा है
एक प्रकार है
एक संस्कार है 

एक प्राचीर है जिसकी अपनी ही दीवार है
एक अवधि है
एक परिधि है
यह तुमने क्या किया ?
एक रिश्ते के नाम में एक अहसास को सीमित किया
मैं तुमसे असीम प्यार करना चाहता था
पर यह तुमने क्या किया ?
हमारे अस्तित्व के बीच बहती हवाओं से एक अनवरत अहसास को
एक रिश्ते का नाम दिया --- यह तुमने क्या किया ?
तुम बेटी हो सकती हो
बहन हो सकती हो
पत्नी हो सकती हो
प्रेमिका हो सकती हो
तुम कुछ भी हो सकती हो पर सीमाओं में
इसी लिए मैं तुमसे सीमित प्यार करता हूँ
असीम नहीं

सुनो...
तुम पूछती हो न कि
तुमसे कितना प्यार करता हूँ मै....??

यह तुमने क्या किया ?
मैं कहना तो चाहता था "असीम "
पर रिश्तों की दीवारें लाँघ कर आतीं
। " ---- राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, December 4, 2013

तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा

"तुम कभी भी वह नहीं थे जो मैंने तुम्हें समझा
फिर भी यह मरीचिका और मृगतृष्णा का रिश्ता था और रास्ता भी एक
परिभाषा और अभिलाषा के बीच प्रतीत की पगडण्डी का परिदृश्य प्रश्न है
तो उत्तर कैसा ?
जो लोग सूरज की रोशनी में रास्ता नहीं देखते

वह पूछते हैं ध्रुवतारे से सप्तर्षि की पहेली
सभ्यता की हर शुरूआत में प्रश्न प्रतीकों में अंगड़ाई लेता है
हर सुबह के गुनगुनाते सूरज का गुनाह है यह
तुमने कुछ कहा ही नहीं और मैंने सुन लिया
सत्य के संकेत उगते हैं निगाहों में।
" ----- राजीव चतुर्वेदी