Thursday, May 31, 2012

दूर... बेहद दूर जिन्दगी की उन जख्मी सी मुडेरों पर



"तेरी याद की धुंधली सी तश्वीर में जो आंसू के धब्बे हैं ...मेरे हैं,
याद कर तैने जमाने की नज़रें चुरा कर एक दिन इसको पोंछा था अपने ही आँचल से
सफ़र में गुमशुदा मुझको न कहना
गुमराह तुम थीं सोच कर मुझको बताना सपने में
दूर... बेहद दूर जिन्दगी की उन जख्मी सी मुडेरों पर
फकत एक फाख्ता सी याद थी तेरी
न देखूं तो शर्माती और देखता था तो उड़ जाती थी कहीं
मैं जानता हूँ तुम नहीं हो
तेरी याद तो है जुगनुओं सी टिमटिमाती रोज कहती है मुझे अब भूल जाओ
मत कुरेदो अब इन्हें यह जख्म हैं मेरे जिन्हें रखा है मैंने बेहद हिफाज़त से
इस जख्म से जो रिस रहा है खून मत कहना उसे वह याद है तेरी
अमानत हैं तेरी वह याद जो तैरती हैं मेरी आँखों में तारों सी
मत कहो आंसू उसे... मैं रो दूंगा
तू अब महज तश्वीर है और में मुजस्सम तश्विया, ---यह दौर ऐसा है." -----राजीव चतुर्वेदी


Monday, May 28, 2012

भगवान् वही बन पाया जिसके हाथों में हथियार बहुत थे

"क़यामत तो उस दिन होगी
जिस दिन पूरी कायनात के क़त्ल हो चुके लोग एक साथ खड़े हो जायेंगे
और चीख कर पूछेंगे ---
भगवान् तू क्यों था कातिलों पर मेहरवान
किसी खुदा का खौफ अब मुझको नहीं
खून से सना यह खुदा तेरा है मेरा नहीं

फूल कली मकरंदों की तुम बात न करना,
इस कोलाहल में हत्यारे हमको हैं प्यारे
भगवान् वही बन पाया जिसके हाथों में हथियार बहुत थे
ह्त्या का अधिकार उसे था
शान्ति कभी पूजी थी हमने ?--- यह बतलाओ
भय का यह भूगोल समझ लो
सफदरजंग बड़ा कातिल था उसके नाम अस्पताल है
अल्लाह उनके लिए महान है घर- घर उनके सूफियान है
इतिहासों में दर्ज इमारत को तुम देखो
हर मजहब की दर्ज इबारत को तुम देखो
मजहब का हर हर्फ़ लहू से लिखने वालो
आंधी की दहशत से दीपक सहमे तो हैं
सच्चाई की शहतीरों पर तहरीरों को दर्ज करो तुम
क़त्ल हो चुके लोगों की रूहें चीख रही हैं
मंदिर की आवाज़े मस्जिद की नवाज की नैतिकता नृशंस है कितनी
कातिल को भगवान् बताने वालो बोलो ---यह मजहब तेरा है
मेरा कैसे होगा ?---मैं तो क़त्ल हुआ था
मेरे खून के धब्बे धर्म तुम्हें लगते हैं
शब्द हैं तेरे , संसद तेरी, शास्त्र तुम्हारे, शर्त तुम्हारी, सूत्र हैं तेरे ,शरियत तेरी
तुम शातिर हो, सूफियान हो, अल्लाह तुम हो, भगवान् हो
मैं ज्ञानी हूँ, मैं ही दानी बब्रूवाहन का आवाहन कौन करेगा ?
हर प्रबुद्ध के युद्ध को देखो ...हर टूटी प्रतिमा जो टूटी प्रेम की प्रतिमा सी दिखती है
क़त्ल कर दिए बच्चों पर जो बिलख रही हर औरत मुझको फातिमा सी दिखती है
क़त्ल हो चुके कर्ण से पूछो
धर्म -कर्म के बीच की दूरी आज उत्तरा के आंसू में उत्तर खोज रही है.
क़यामत तो उस दिन होगी
जिस दिन पूरी कायनात के क़त्ल हो चुके लोग एक साथ खड़े हो जायेंगे
और चीख कर पूछेंगे ---
भगवान् तू क्यों था कातिलों पर मेहरवान
किसी खुदा का खौफ अब मुझको नहीं
खून से सना यह खुदा तेरा है मेरा नहीं." ----राजीव चतुर्वेदी

शंखनादों से सुबह सहमी है

"शंखनादों से सुबह सहमी है
आर्तनादों से शाम
अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
सच की दुनिया अब अखबारों को अखरती है
झूठ का झंडा उठाये दूरदर्शन दौड़ आया

सुना है गिद्ध की नज़रें हमारे गाँव पर हैं
सुना है चहकती चिड़िया आज चिंतित है
सुना है गाय का बच्चा अपनी मां के दूध से वंचित है
सुना है यहाँ कलियाँ सूख जाती हैं नागफनीयाँ सिंचित हैं
सुना है फूल तोड़े जा रहे हैं मुर्दों पे चढाने को
सुना है कांटे तो खुश हैं पर राहें रक्तरंजित हैं
सुना है शब्द सहमे हैं साँसें थम गयी हैं
सुना है न्याय की देवी की आँखें बंद हैं
सुना है सत्य की श्मशान संसद बन चुकी है
सुना है मां की ममता खिलौनों की दुकानों से डरती है
सुना है एक मछली प्यासी हो कर पानी में ही मरती है
सुना है प्यार भी भी बिकने लगा है अब दुकानों पर
सुना है सड़क सहमी हैं रिश्ते भी कलंकित हैं अब मकानों पर
सुना है मां न बनने का सामान अब बिकने लगा है दुकानों पर
सुना है अब शहर में सड़कें चौड़ी और दिल संकरे हो रहे हैं
सुना है संत सकते में हैं और शातिर शोर करते हैं
सुना है कातिलों ने अब खंजर पर अहिंसा लिख लिया है
सुना है कोई पूतना अब डेरी चलाने जा रही है
सुना है सभ्यता बैठी है ज्वालामुखी के मुहाने पर
सुना है मोहनजोदाड़ो बह आया है गंगा के दहानो तक
सुना है हर कोलंबस अपनी भूल पर पछता रहा है
सुना है इस खुदा का प्यार कम पर खौफ ज्यादा है
सुना है आदमी अब आदमी के खून का प्यासा है

अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
घर पे आया सबको हंसाया
छत पे जाके अपने आंसू पोंछ आया
आवाज़ देकर फलक से मुझे किसने बुलाया
भूकंप से काँपे घर की देहरी पर दिया किसने जलाया
शंखनादों से सुबह सहमी है
आर्तनादों से शाम
अमन के नाम पर कफ़न किसने उढ़ाया ?
एक सहमी सी सुबह से मैंने पूछ था ये सच
शाम होते शहर शोकाकुल सा नज़र आया
आवाज़ देकर फलक से मुझे किसने बुलाया
भूकंप से काँपे घर की देहरी पर दिया किसने जलाया. " -----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, May 22, 2012

यह संसद है शमसान हमारे सपनो की



" अखबारों में बिखरी हर आह दर्ज करो अब दस्तावेजों में,
सपनो की शवयात्रा का अब शोर यहाँ क्यों करते हो ? 
यह संसद है शमसान हमारे सपनो की,
अगले चुनाव का इंतज़ार क्यों करते हो ?
राष्ट्रगान की धुन में घुन सा राष्ट्रपति,
इन चाटुकार का चर्चा तुम क्यों करते हो ?
लाल किले के कंगूरों पर चमगादड़ से लटके हैं
यदि आज़ादी अपनी है तो इनका इंतज़ार क्यों करते हो ?
काले धन को खा कर गोरे जो बन बैठे हैं लोग यहाँ
इन देश द्रोहियों का आदर  तुम क्यों करते हो ?
 बेटा
किसान का सैनिक बन मरता है सीमा पर जा जा कर
नौकरशाही के गद्दारों के अधिकारों से तुम क्यों डरते हो ?" -----राजीव चतुर्वेदी 

उसमें तू अपनी जिन्दगी के उजाले न तलाश

"शब्द जो मेरी कलम से छलके थे श्याही बन कर,
उसमें तू अपनी जिन्दगी के उजाले न तलाश.
शाम को सूरज ढला था खेत की जिस मेंड़ पर,
आने वाली पीढ़ियों के उसमें निबाले न तलाश.
हांफती सी जिन्दगी के रास्ते सुनसान से हैं,
इस सफ़र की शाम को पैरों में छाले न तलाश. "
                                     ------राजीव चतुर्वेदी

Friday, May 18, 2012

शहनाईयाँ क्यों सो गयीं इस रात को



"शहनाईयाँ क्यों सो गयीं इस रात को
मर्सीये मर्जी से क्यों गाने लगे,
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे
इस शहर में लोग तो भयभीत थे
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे
मैंने तो पूछा था अपने वोटों का हिसाब
वो नोटों का हिसाब क्यों बतलाने लगे
घर का चौका चीखता है खौफ से, खाली कनस्तर कांखता है
हमारी कंगाली का हिसाब शब्दों की जुगाली से संसद में वो बतलाने लगे
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे
इस शहर में लोग तो भयभीत थे
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे."
-----राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, May 16, 2012

पतिताओं की कविताओं पर वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...




"पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
यहाँ लफंगे जन-गण-मन का जश्न मनाते मैंने देखे
हर कायर शायर बन कर संसद पर फायर कर देता है
और शातिरों की हर शर्तें सत्यों को संगीत सुनाती मैंने देखीं
कर्तव्यों के वक्तव्यों में बकवासों के रूप बहुत हैं
यहाँ गली का हर आवारा ईलू -ईलू काव्य कर रहा
प्रोफाइल पर उसकी फर्जी फोटो देख मुग्ध है इतना
देह को उसके भांप रहा है, दर्शन में वह नाप रहा है, शब्दों से वह काँप रहा है
पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
और यहाँ पर प्रौढ़ उम्र में प्रणय निवेदन करती कविता
सत्य यहाँ शातिर सा दिखता अधिकारों के श्रृंगारों में
कुछ की हिन्दी रति से नहीं विरत हो पाई रीतिकाल में फंसी पड़ी है
श्रृंगारों का श्रेय ले रहे अंगारों की आढ़त उनकी
आत्म मुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगे की ख्वाहिश धरती की पैमाइश की है
करुणा की कविता कातर सी कांख रही है
यहाँ ग्रुपों में बंटा सा अम्बर आडम्बर से अटा पड़ा है
लिख पाओ तो मुझे बताना,
पढ़ पाओ तो मुझे सुनाना,
-- कविता की परिभाषा क्या है ?
" ---- राजीव चतुर्वेदी


हमसफ़र बनने चले थे हम जुदा क्यों हो गए ?



"रास्तों का इस तरह इस्तेमाल कुछ हमने किया,
हमसफ़र बनने चले थे हम जुदा क्यों हो गए ?"
           
              ----राजीव चतुर्वेदी

"वह एक कश्ती थी साहिल को तलाशा करती थी,
मैं एक तीर सा हवाओं में उड़ा फिर गुम हो गया .
                  ----राजीव चतुर्वेदी

जन्म पत्र

(प्रस्तुत है --"इंडिया टुडे" साहित्य वार्षिकी 1994 में प्रकाशित संजय चतुर्वेदी की कविता जो आज भी प्रासंगिक है )
जन्म पत्र
" जातक जब इस संसार में आया
विनी मंडेला और इमेल्डा मार्कोस में फर्क करना मुश्किल हो चुका था
और पचासी प्रतिशत जमीन पर पंद्रह प्रतिशत गोरों के बाज़ार ने
नेल्सन मंडेला का प्यार की दुनिया में स्वागत किया
दोनों के पास दूसरा कोई रास्ता बाकी नहीं था
रवांडा की लाशें झील में इकट्ठा होने लगी थीं
विचारों पर हरकतुल हथियार थी
कश्मीर में कभी हरकतुल अंसार थी कभी हरकतुल सरकार
लाखों लोग अपने ही देश में शरणार्थी थे
बुद्धिखोरों में मक्कार चुप्पी थी
या फिर उन्होंने जोर- जोर से बताया
यह हरकतुल संसार है इसे साम्प्रदायिक न माने
ये और बात है कि एक सम्प्रदाय के बहुजन
मैदानी इलाके में पिकनिक मनाने को आमादा हैं

हिन्दुस्तान में कमुनिस्ट एक दुसरे पर थूकने में मशगूल थे
और एक अखबारनुमा माफिया के लफंगों ने
जनता के सामने औरतों को पीट डाला
और कुछ लोगों को अचानक मालूम हुआ
नागरिक कितना निहत्था है
और कस्बे में भले आदमी की तरह रहना
अपराधी की तरह रहने से अधिक दुश्बार है
और अपनी बुनियादी इज्जत को बचाना
एक रोजाना की लड़ाई है
और रोजाना लड़ना दंडनीय है
एक दरोगा चेक से रिश्वत ले कर मुस्कुरा रहा था
कि यह उसकी मॉडर्न सेंसिबिलिटी थी
अपराधी हमारे पैर पर खड़े होकर पेशाब कर रहे थे
और कवियों ने एक कार्यशाला का आयोजन किया था
लौकियों की मोहब्बत और कद्दू के गीत की गहराईयाँ

जिनके पास सब कुछ था
वे अपराधी हो चुके थे
जिनके पास बहुत कम था
उन्हें क़ानून से डरना सिखाया जा रहा था
अस्पतालों में बीमारों की फजीहत थी
सड़कों पर बेकारों को नसीहत
देश के चकलों में फंसी चालीस प्रतिशत स्त्रीयां
अठारह साल से कम उम्र की थीं
और मुट्ठी भर लोगों की पर्चेसिंग पावर बढ़ा कर
जादूगर हमें लिबर्टी की और ले चला
आठ आने की दवा अस्सी रुपये में मिलती थी
और अस्सी करोड़ रुपये एक फोन पर मिल जाते थे
भारतीय संस्कृत की कुछ खाश चीजें
कुछ ख़ास लोगों में कुछ ख़ास तरीके से बिकती थीं
और पद्म्खोरों की हरामखोरी के लम्बे इंतजाम थे
दिल्ली में इंडिया एक सेंटर था
जो इंटरनेशनल था
उधर प्रधानमंत्री ने बिल क्लिंटन से हाथ मिलाया
और अचानक हमने सुष्मिता सेन के बारे में जाना
जो पिछले दस सालों में बदहाल देशों से आई सातवीं विश्व सुन्दरी थी
जादू इंसान की अक्ल पर कादिर था
और मुफलिसों के पिछले दरवाजे से धडाधड हूरें निकल रही थीं
कि सेक्स और संस्कृत
आर्थिक बदलाव में
स्ट्रकचरल एडजस्टमेंट का हिस्सा थे
कि सेक्स में सही होना बहुत जरूरी था
कि सेक्सी होना
सेक्स में सही होना था
कि कितनी बार ऐसा लगता था
कि राजनीति में सही होने का कोई मतलब नहीं रह गया है
और सेक्स में जो विचार है उसको क्या हो जाता है
और इंद्र के किले अगर मजबूत हो गए तो कामदेव एक भडुआ बन कर रह जाएगा

बहुजन के नाम पर लफंगई
और क्रांति के नाम पर दलाली स्थापित संस्थाएं थीं
नौकरशाही में अचानक नायक पैदा होने लगे थे
एक बददिमाग और बदजुबान आदमी
जो तिकड़म और कॉलगर्ल चरित्र की बजह से शीर्ष तक पहुंचा था
धीरे -धीरे सारे हिन्दुस्तान को कॉलगर्ल बता चुका था
मजोली समझ के मझोले लोगों को लगा यह आया हीरो हमारा
और उन्हें ठीक ही लगा
एक लगभग अनजान युवती की गर्दन पकड़ कर
उसे प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशें हो रही थीं
एक निर्वस्त्र और प्रजा पीड़ित राजा
अपनी तिकड़म में मार खाने के बाद
अब सुकरात के समाधि लेख की प्रूफ रीडिंग कर रहा था
खून के अंतिम बूँद तक जनता की सेवा करने का ऐलान
करिश्मा कपूर ने किया

मानव समाज में समझदारी की ऊटपटांग स्थिति थी
कुछ दिन पहले बिना किसी व्यापक दबाव के
पोप ने गैलीलियो से मांफी माँगी
और पवित्र पुस्तकों पुनर्व्याख्या होनी चाहिये ऐसा कहने पर
मुल्लाओं ने एक औरत की मौत का फरमान जारी कर दिया
ब्राजील के खिलाफ जो भी खेलता था
खेल को जेल बना कर खेलता था
और गालीयाँ ब्राजील को पड़ती थीं
जैसे कि दूसरों के खेल मैं भी सकारात्मक तर्क का प्रवेश
ब्राजील की ही जिम्मेदारी थी
मुशायरा मंच के पीछे होने लगा था
और कवियों के चेहरे देख कर लगता था
जैसे मुशायरा लूटने में शायरी लुटी हो
धीरे- धीरे विचार की जगह ख़बरें ले चुकी थीं
और ख़बरों की जगह विज्ञापन
यह माना जाने लगा था
कि विचार दो घंटे मैं पुस्तकालय से प्राप्त किये जा सकते हैं
और यह भी माना जाने लगा था
कि उनसे दूर रहना कोस्ट इफेक्टिव रहेगा
फिर भी दक्षिण अफ्रीका के अधिकाँश लोगों ने
गज़ब का धीरज और समझदारी दिखाई
और दुनिया के तमाम लोगों को निराश कर दिया

सुखों और उम्मीदों से भरी इस वसुंधरा पर फैला समर्थ मानव समाज
जो अन्य प्राणियों पर कब्जा कर चुका था
और जिसे सितारों से कोई ख़ास ख़तरा नहीं था
प्लास्टिक को लेकर चिंतित था
जो पर्यावरण में प्रदूषण
और गरीबों के पैर मैं चप्पल बन कर आई थी
समेकित संसार मैं जब संचार ने विश्व को एक गाँव बना दिया था
बहुजन अभिजन के लिए प्रदूषण थे
अभिजन बहुजन के लिए
इनका पेट फाड़ कर निकला मध्य वर्ग
दोनों के लिए प्रदूषण बन चुका था
और ऐसे में जातक ने सांस ली
उसके माता पिता के पास
यह बता पाने की प्रचलित सुविधा नहीं थी
कि रास्ता इधर से है
प्रज्ञा और प्रचुरता के साथ उसे प्रदूषण मिला
उसके हाथों में कुतुबनुमा
पैरों मैं चप्पलें थीं ." -------- संजय चतुर्वेदी

छल चुके हैं लोग मुझको छाँह मैं बैठे हुए

"न गुरूर है ,न गुमान , न गुमनाम ही हूँ,
चल पड़ा हूँ आँख में दीपक जलाए आश का
पैर में जूते नहीं मैं राह को पहने चला हूँ,
छल चुके हैं लोग मुझको छाँह मैं बैठे हुए
रास्ता लंबा है मेरे टूटते विश्वास का ." ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, May 13, 2012

मां न बनने का सामान जब मिलता हो दुकानों पर


" मां न बनने का सामान जब मिलता हो दुकानों पर
तख्तियां भी टंग गयी हों गली कूचे और मकानों पर
उसी तेरी बदनाम बस्ती में तब से रोज आया हूँ
जहां मुझको फेंक गयी थी मां मैं तुझको खोज आया हूँ
कभी कातिल लोक लाजों का तकाजा मुझसे मत करना
जहां से लोग जाते हैं वो रस्ते छोड़ आया हूँ."-------- राजीव चतुर्वेदी









Saturday, May 12, 2012

मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं



"मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं ,
इन बातों से बल्बों को क्यों रंज हुआ ?
उसकी सुन्दरता ही कुछ ऐसी थी,
हर लक्मे की डिब्बी शर्मा जाती थी
वह गहनों में भी बहनों जैसी लगती थी
हर सौन्दर्य प्रसाधन को उससे क्यों रंज हुआ ?
मैंने तो बस सागर से पानी की परिभाषा ही पूछी थी,
ख़बरें सुन कर हर गागर को क्यों रंज हुआ ?  
कोर्ट कचहरी के बाहर जो दूकाने थी
मैंने उनसे पूछा यह  न्याय कहाँ बिकता है,
मेरी बातें सुन कर सब सदमें में थे,
हर व्यापारी को इस पर फिर क्यों रंज हुआ ?
आत्मा बिखरी है हर घर के दालानों में,
प्यार बिका करता है अब दूकानों में 
भूख तरसती है अब खलियानों में
सेठ मुनाफ़ा गिनता है गोदामों में
मैंने तो बस कह डाला था देश हमारा भी है
यह सुन कर वह नेता था, उसको क्यों रंज हुआ ? 
मैंने तो सूरज से शर्तें पूछी थीं ,
इन बातों से बल्बों को क्यों रंज हुआ ?
उसकी सुन्दरता ही कुछ ऐसी थी,
हर लक्मे की डिब्बी शर्मा जाती थी
वह गहनों में भी बहनों जैसी लगती थी
हर सौन्दर्य प्रसाधन को उससे क्यों रंज हुआ ?"
---- राजीव चतुर्वेदी

राह में सूरज गलीचा क्यों बिछा कर गुम हुआ



"राह में सूरज गलीचा क्यों बिछा कर गुम हुआ,
रात को चन्दा ने चतुराई से पूछा यह सवाल.
सत्य के संकेत आंधी में कहाँ थे उड़ गए
हवाओं का रुख बदलने से पतंगों को है मलाल."
                                     ---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, May 11, 2012

अपनी जिन्दगी का मध्यांतर तलाशती इन पीढ़ियों से पूछ लो

"बच्चों के ज्योमेट्री बोक्स में न सपनो को नापने के यंत्र हैं न सच को,
क्यों पढ़ाते हैं इन्हें और क्या पढ़ाते हैं इन्हें ?
यंत्र से षड्यंत्र को हम बताते हैं इन्हें
झूठ की पैमाइश की ख्वाहिश लिए
दुनिया के अक्षांश और देशांतर के बीच
अपनी जिन्दगी का मध्यांतर तलाशती इन पीढ़ियों से पूछ लो
सच तो सच है वह शिक्षा की इन दुकानों पर बिकता नहीं है
इस अथक सी दौड़ में मिथक का यह बुलबुला
हमारी उम्र से ज्यादा यहाँ टिकता नहीं है." ----- राजीव चतुर्वेदी

Thursday, May 10, 2012

सभ्यता सदमें में है और सोचती है

"सभ्यता सदमें में है और सोचती है
गुजरी पीढ़ियों से पूछना सीढियां क्यों कम थीं उस दौर में
मकान कच्चे और लोग सच्चे थे वहां
जाने क्यों उस दौर ने फिर करवट सी ली
आज सड़कें चौड़ी और दिल संकरे से हो गए हैं
साहस कुछ सीमित सा हुआ है क्रूरता बढ़ती गयी है
मंदिरों में भीड़ कम पर जेलों में रेलमपेल है
जो दिल में रहा करते थे कभी जजबात अब जेब में क्यों कैद हैं
सभ्यता सदमें में है और सोचती है
गुजरी पीढ़ियों से पूछना सीढियां क्यों कम थीं उस दौर में
मकान कच्चे और लोग सच्चे थे वहां
जाने क्यों उस दौर ने फिर करवट सी ली." ---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, May 4, 2012

हम गुजरते हैं यहाँ परिदृश्य से

"बुलंद इमारत से गिरती हुयी इबारत देख पाओ देख लो,
शब्द सहमे हैं, संवेदनाएं शून्य, सदमें में है सत्य सभी

कल्पनाएँ कांपती हैं मन के चौखट पर यहाँ

भावना को भौतिकी से नापते लोगों से पूछो

आज जो ठहरा यहाँ था वह मुसाफिर कल न आयेगा यहाँ

जिन्दगी के इस सफ़र के वह मुसाफिर हम ही हैं

हम गुजरते हैं यहाँ परिदृश्य से,--- क्या कहूं मैं और ?"
----राजीव चतुर्वेदी

वह चिड़िया थी फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी

" वह चिड़िया थी
फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी
घोंसला टूटा था उसका बारहा ,---होसला टूटा न था
वेदना ...संवेदना के शब्द तो थे शेष मेरे पास
अर्थ के अवशेष भी दिखते नहीं थे
... वह चहकती थी दहकती वेदना से
हम थे शातिर शिल्प थे संवेदना के
मैं खडा हूँ इस पार शब्दों को लिए
और वह उस पार अहसासों के घोंसले में घर बसाए
टूटते पुल देख कर सदमें में हैं
इस पार खड़े शब्द और उस पार खड़े उत्तर
बीच में अहसास की नदी बहती है आस -पास
वह चिड़िया थी
फिर भी टूटते पुल को देख सदमें में थी ." ----राजीव चतुर्वेदी


Thursday, May 3, 2012

दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की



"जुगनुओं को रोशनी की जब जरूरत थी यहाँ, ---तुम नहीं थे,
दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की
उसकी आहट
बौखलाहट
सन्नाटा सृजन का टूटता तो टूटता कैसे ?
शब्द शामिल थे कलह की कूटरचना में
कल्पनाएँ कालबाधित सी कलम से हर कलामों तक क़त्ल होती यहाँ थीं
आहत आस्था की आह को कुछ कह उठे कविता
इस सहमते सत्य के संकेत पढ़ कर जो घुमड़ता था कभी मेरे भी सीने में
अगर पहुंचा नहीं है आज तक तेरे दिलों तक वह
तो समझलो सत्य का साहित्य लिखने की यह कोशिशें कविता नहीं हैं
वास्तविक कविता के कठिन से दौर को जब दर्ज करके आँख मेरी बुझ रही होगी
तुम्हारी आँख भी यह जान कर कुछ नम तो होगी
जुगनुओं को रोशनी की जब जरूरत थी यहाँ ---तुम नहीं थे,
दृष्टिकोणों के किवाड़ों पर जो सांकल थी यहाँ सिद्धांत की
उसकी आहट
बौखलाहट
सन्नाटा सृजन का टूटता तो टूटता कैसे ?" ----राजीव चतुर्वेदी (4May'12)

वह जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है



"वह जो नीहारिका नाराज हो कर गिर रही है,
उससे कह दो आज धरती बांह फैलाए हुए है."
       
           -----राजीव चतुर्वेदी


Wednesday, May 2, 2012

उसे आंसू किसने कहा ?

"आँख से जो गिरा था मेरी उसे आंसू किसने कहा ?
तश्वीर थी मेरे घर के लोगों की और कुछ मेरे वह दोस्त थे.

न मैं नुमाइश कर सका न तुम पे था पैमाइश का सऊर,

  जख्म थे गहरे मेरे और ख्वाब खून आलूद थे ." 
----- राजीव चतुर्वेदी
(खून आलूद = रक्त रंजित )

एक सूरज आज फिर से रोशनी के साथ आया है



" एक सूरज जो कल ही डूबा था तुम्हारे सामने
आज फिर से रोशनी के साथ आया है
अदालत वख्त की हो या विधानों की बताओ तुम कहोगे क्या ?  
फलक पर दर्ज होते इस उजाले पर फेंक लो जितनी भी स्याही 
तुहारे दिल की तारीकी की दहशत देख कर
तुम ही डूब जाना  अपने चुल्लू भर गुनाहों में

एक सूरज जो कल ही डूबा था तुम्हारे सामने
आज फिर से रोशनी के साथ आया है." ---- राजीव चतुर्वेदी


Tuesday, May 1, 2012

मई दिवस पर गर्व से कहो हम पाखंडी हैं


"मई दिवस पर गर्व से कहो हम पाखंडी हैं ! हमने बचपन में गाय पर निबंध लिखे और बड़े हो कर खूब आधुनिकतम कसाईखाने खोले परिणाम गाय की हालत चिंताजनक है. पोस्टमेन पर निबंध लिखे तो उसकी भी हालत पस्त है. "यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" की रटंत की और हर छः माह में नौ दिन (नौ देवी पर) कन्या पूजीं तो विश्व की हर सातवीं बाल वैश्या भारत की बेटी है और हर साल ५० हजार से ज्यादा दहेज़ हत्याएं हो रही हैं. इसी क्रम में मजदूर की बारी भी हर साल मई दिवस के बहाने आ ही जाती है. साल दर साल पर मजदूर पर प्रवचन देने वाले मस्त और मजदूर पस्त है. मजदूर दिवस वामपंथी एकाधिकार से ग्रस्त जुमला है. तीस साल तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार रही पर जानवर की जगह आदमी को जोत कर रिक्शा कोलकाता में चलता ही रहा--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. देवगोडा जब प्रधानमंत्री थे तब वाममोर्चे के प्रखर नेता चतुरानन मिश्र कृषि मंत्री थे तब कृषि मजदूरों के लिए क्या किया गया ?--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र का मजदूर था और उसका वोट बैंक नहीं था. कोलकाता में वामपंथी सरकार के दौरान तीस साल तक विश्व के सबसे बड़े वैश्यालय (बहू बाजार / सोना गाछी ) धड़ल्ले से चलते रहे और वहां बाल वेश्याएं खुले आम बिकती रही.--- क्योंकि वह असंगठित क्षेत्र की मजदूर थी इसलिए मजबूर थीं उनका वोट बैंक नहीं था. बाल श्रमिकों का भी कोई वोट बैंक नहीं है. लड़ाई ट्रेड यूनियनों के झंडे तले लामबंद होते वोट बैंक की है ताकी उद्योग जगत से धन वसूली की जा सके वरना सच-सच बतलाना महाराष्ट्र में दत्ता सामंत को किसने मरवाया ? दरअसल लड़ाई श्रम के आदर और सम्मान की नहीं, श्रमिक को हथियार बनाने की है. सच तो यह है कि नब्बे प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र का मजदूर है और वह इस लिये मजबूर है कि उसका कोई वोट बैंक नहीं. यह मई दिवस के बहाने तो वोट बैंक का इष्ट साधा जा रहा है."-राजीव चतुर्वेदी               
"सो जाते हैं सड़कों पर अखबार बिछा कर,
हम मजदूर हैं नीद की गोली नहीं खाते."  (---मुनब्बर राना )