Thursday, July 30, 2015

गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम !! ...पर मत भूलो समाज में गुरुघंटाल भी हैं

" !! गुरु पूर्णिमा पर गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम !! ...पर मत भूलो समाज में गुरुघंटाल भी हैं ...शिक्षा के दलाल भी हैं ...गुरुओं को युगों से आदर दे रहे इस देश में शिक्षा और कोचिंग क्लास की दुकाने खुल गयी हैं जहां न जाने कितने प्रतिभासंपन्न किन्तु गरीब एकलव्यों के अंगूठे कटे हुए टंगे हैं --- देखो तो ! ...गुरु पूर्णिमा पर गुरु दक्षिणा का व्यापक कार्यक्रम चलाने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रणेता और अभिनेता अपनी सक्रियता के बीच इस सवाल का जवाब भी दे दें कि शिक्षा के बाजारीकरण के लिए अटल सरकार ने दरवाजे क्यों खोले थे ? ...अटल सरकार में क्यों शिक्षा के बाजारीकरण के लिए "अनिल अम्बानी -कुमारमंगलम बिरला समिति" का गठन किया था ? ...सभी जानते हैं की अनिल अम्बानी या कुमार मंगलम बिरला का शिक्षा से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है पर व्यापार की दूरदृष्टि या यों कहें कि गिद्ध दृष्टि तो है ..."सामान शिक्षा" का नारा आज़ादी के बुजुर्ग हो जाने के बाद भी मुंह बाए खड़ा है ...ग्रामीण स्कूलों और शहर के अभिजात्य स्कूलों में शिक्षा के स्तर के बीच असमानता की गहरी खाई है ...ऐसे में शिक्षा का मानकीकरण संभव ही नहीं है . भारत में हर युग में गुरुओं को बहुत सम्मान दिया गया ...क्या गुरूजी की जवाबदेही कोई नहीं ?...भारत के कोनो में ज्ञान /शिक्षा का अन्धकार क्यों है ? ...क्यों आज़ादी के इतने साल बाद भी मिशनरी स्कूल हमारे स्कूलों पर गुणवत्ता में भारी हैं ? ... गुरु पूर्णिमा पर आपको गुरु की सिद्ध दृष्टि मिले, गिद्ध दृष्टि न मिले .--- शुभकामना !" ----- राजीव चतुर्वेदी

"इल्म बड़ी दौलत है
तू भी स्कूल खोल
इल्म पढ़ा
फीस लगा
दौलत कमा
फीस ही फीस
पढाई के बीस
बस के तीस
यूनिफार्म के चालीस
खेलो के अलग
वैरायटी प्रोग्राम के अलग
पिकनिक के अलग
लोगो के चीखने पर ना जा
दौलत कमा
उससे और स्कूल खोल
उनसे और दौलत कमा
कमाए जा, कमाए जा
अभी तो तू जवान ह..यह सिलसिला जारी है
जब तक गंगा-जमाना है
पढाई बड़ी अच्छी है
पढ़
बही खता पढ़
टेलीफोन डायरेक्टरी पढ़
बैंक अस्सेस्मेंट पढ़
ज़रूरते-रिश्तो के इश्तिहार पढ़
और कुछ मत पढ़
मीर और ग़ालिब को मत पढ़
इक़बाल और फैज़ को मत पढ़
इब्ने इंशा को मत पढ़
वर्ना तेरा बेडा पर न होगा
और हम में से कोई
नताएज़ * का ज़िम्मेदार न होगा।
"
- इब्ने इंशा
( पाकिस्तान के मशहूर लेखक और व्यंगकार )
*नताएज़ = नतीजे का बहुवचन / परिणाम

Tuesday, July 21, 2015

यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?

"आंधी आयी
आंधी से पेड़ गिरा ...पेड़ से आम गिरे
कहीं समाचार नहीं था
पेड़ से घोंसला गिरा
घोंसले से होंसला गिरा

उल्का गिरी ...जहाज गिरा ...सेंसेक्स गिरा
कल्पना चावला गिरी
सरकार गिरी
संसद में गांधी का चित्र गिरा
समाज का चरित्र गिरा
बोर वैल में बच्चा गिरा
बस खाई में गिरी
बिल्डिंग गिरी ...पुल गिरा
आसमान से पानी गिरा ...ओले गिरे ...युद्ध में शोले गिरे
ऐक्ट्रेस रेम्प पर गिरी ...बिजली कैम्प पर गिरी
अरे यार !
यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?
"

----- राजीव चतुर्वेदी

Monday, July 20, 2015

मैकॉले को कोसने से कुछ नहीं होगा ...आत्मवंचना कीजिये

" मैकॉले को कोसने से कुछ नहीं होगा ...आत्मवंचना कीजिये ...गुजरे 1000 सालों में हिन्दू राजाओं ने या मुग़ल बादशाहों ने अपनी प्रजा के लिए किया ही क्या था ? ...हिन्दू राजाओं /मुग़ल बादशाहों ने कभी अपने लिए या अपनी प्रजा के लिए कोई लिपिबद्ध आचार संहिता बनायी ? -- नहीं . कोई शिक्षानीति बनायी ? -- नहीं . कोई सर्व शिक्षा अभियान चलाया ? --- नहीं . कोई जनस्वास्थ्य की बात की ? -- नहीं .कभी किसी देश की कल्पना की ? -- नहीं . कभी राष्ट्र की कल्पना की ? -- नहीं ? अपने राज्य के लिए कभी कोई संविधान बनाया ? -- नहीं ....केवल असमर्थों पर अत्याचार करते रहे ...लूटते रहे ...लडकियाँ उठाते रहे ...लुटेरों की तरह लूटते रहे ....डकैत गिरोहों की तरह लूटते रहे ...भारी पड़े तो लूट लिया , दूसरों की जर/जोरू /जमीन पर कब्ज़ा कर लिया और कोई भारी पड़ा तो भाग लिए ...अपनी सत्ता को स्थाइत्व देने के लिए जनता को कुछ राहत तो देनी पड़ती है ...हिन्दू राजाओं की चरित्रहीनता से ऊबी जनता को मुग़ल बादशाहों ने थोड़ी राहत दे कर लूटा ...क्या बात थी कि कर्मवती को पूरे भारत में कोई भाई चरित्र नहीं दिखा और हुमायूं भारत में राखी के बहाने आ डटा ? ...मुगलों ने भारत में भरपूर अत्याचार किये पर आम जनता को कुछ नागरिक सुविधाएं भी दीं ...न्याय के लिए नियमित अदालतों की व्यवस्था हुयी ...वकील,मुंसिफ ,मुद्दई ,मुलजिम ,जिरह,बहस ,जमानत , गिरफ्तार , फैसला आदि सारे उर्दू के शब्द हैं . इनका एक भी प्रचलित हिन्दी /संस्कृत/ बंगाली / कन्नड़ /तमिल /तेलगू /उड़िया में शब्द नहीं है . चूंकि मुगलों के पहले व्यवस्था ही नहीं थी तो शब्द कहाँ से होता ? ...सोशियल पुलिसिंग चालू हुयी कोतवाल , दरोगा , हवलदार ,दीवान ,मुन्सी ,बयान और पुलिसिया रोज नामचों में दर्ज होने वाले तमाम तकनीकी शब्द उर्दू के हैं , अरबी के हैं पर भारतीय भाषाओं के नहीं .-- क्यों ? ...क्योंकि नागरिकों को पुलिस व्यवस्था देने के लिए भारतीय मूल के राजाओं ने सोचा ही नहीं . मुगलों ने सड़कें बनवाईं , पुल बनवाये ...अदालतें बनवाईं ...जन स्वास्थ्य के लिए सफाखाने (अस्पताल ) बनवाये ...भारतीय जनता खुश हुयी होगी ...एक लुटेरे को खदेड़ कर दूसरा लुटेरा आया था पर वह उसे ही तो लूट रहा था जिस पर कुछ था ...लुटी पिटी जनता को अब कुछ जन सुविधाएं भी थी ... जन विश्वास खो चुके और पूर्ण शोषक हो चुके क्षत्रीय राजाओं की मूंछें और उनके मंत्री पण्डित जी की शिखा और यज्ञोपवीत मुगलों ने बेरहमी से नोच ली थी ...अब लुटेरे बन कर आये मुगलों ने लूट कर भागने के बजाय यहीं पैर जमा लिए ...सत्ता जमाते हुए उन्होंने सरकार को स्वरुप दिया ...न्यायव्यवस्था कायम हुयी ...स्वास्थ सेवायें शुरू हुईं ...पुलिस अस्थ्त्व में आयी ...परिवहन के लिए सड़कें बनीं ...जमीनों के नक़्शे बने ...राज्य चलाने के लिए राजस्व वसूली की व्यवस्था हुयी ...जमींदारी व्यवस्था ने पैर जमाये ...मुगलों ने भारतीय मूल के राजाओं का सैनिक बन कर लड़ने वाले गरीब कुचले हुए विपन्न लोगों को पहली बार नागरिक सुविधाएं दीं . इससे मुगलों के विरुद्ध भारतीय मूल के राजाओं को सैनिक मिलना बंद हो गए ...अब संपन्न की हिफाजत विपन्न ने करना बंद कर दी थी ...क्षत्रीय राजाओं की शान और उनके पुरोहित बने पण्डितजीयों का ज्ञान मुगलों का गुलाम बन चुका था ....फिर पैर स्थाई जमते ही मुग़ल लुटेरे बादशाह बन बैठे और उन्होंने भी क्रूरता से शोषण जारी किया तो अंग्रेज आये . अंग्रेजों ने व्यापार का कल्याणकारी मुखौटा लगाया और वार किया ...अंग्रेज सत्ता की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने भारतीय मूल के शेष या यों कहें कि अवशेष राजाओं की मूंछें , पंडितों की मुगलों से शेष बची शिखा तो उखाड़ ही ली साथ ही मुग़ल बादशाहों की और उनके साथी मुल्लों की दाढ़ी भी उखाड़ ली ...ठाकुर साहब की मूंछें , पंडितों की शिखा और मुगलों की दाढी अब अंग्रेजों के दरबार में कालीन बन कर बिछी थी ...पददलित ...भारतीय मूल के या मुग़ल राजाओं ने स्कूल नहीं खोले थे ...दूर दराज के आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनरी स्कूल खोले गए ... झाबुआ, बस्तर, जगदलपुर जैसी जगह अंगरेजी स्कूल और अस्पताल खुलने लगे ...गरीबों के बच्चे साक्षर हो रहे थे माध्यम वर्ग के बच्चे समझदार और उच्च वर्ग के बच्चे शिक्षित ...न्याय और प्रशासन की भाषा अंगरेजी हो चली ...सड़कें बनी ...आज के न्यायालयों /विधान सभाओं /संसद /विश्वविद्यालयों की इमारतें अंग्रेजों की बनवाई हैं ...रेलवे अंग्रेजों की बनवाई है ....हम तो अंग्रेजों की बनायी व्यवस्था पर अंग्रेजों को खदेड़ कर बस बैठ गए हैं ...न हमने व्यवस्था बनायी है न क़ानून ...लगभग 2800 केन्द्रीय कानूनों ( Central Act ) में 2635 अंग्रेजों के बनाए हुए हैं ... आज भी आपके स्कूलों से ईसाई स्कूलों की फीस कम और स्तर बहुत अच्छा है... क्यों ? ...मिशनरी स्कूल के प्रिंसपल का बच्चा मिशनरी स्कूल में पढता है पर सरकारी स्कूल में सरकारी कर्मचारियों के बच्चों का पढना अनिवार्य नहीं है ...भारत में चन्द्रगुप्त -चाणक्य ने जन सुविधाओं / न्याय की निश्चितता / लिखित क़ानून / जन शिक्षा के अभिनव प्रयोग किये थे पर बिन्दुसार का अतिसार उन्हें ले बीता ...आपने जब कुछ दिया ही नहीं और मैकोले ने उस शून्य को भरा तब आप मेकॉले को कोस कर क्या कहना चाहते हैं ? ....मेकॉले ने तुम्हारी व्यवस्था ...तुम्हारी न्यायपालिका , तुम्हारे क़ानून , तुम्हारी अदालतें हटा कर अपनी नहीं दी ...मैकॉले ने तुम्हारे स्कूल हटा कर अपनी शिक्षा पद्धति नहीं दी ...मैकॉले ने तुम्हारी दंड सहित /साक्ष्य अधिनियम /प्रक्रिया संहिता हटा कर अपनी नहीं स्थापित की मैकॉले ने तो जब कोइ व्यवस्था ही नहीं थी तब एक व्यवस्था की नीव डाली जिस पर आपने अपने आधुनिक भारत की इमारत बुलंद की हैं ...मैकॉले आपकी निरंतर बुलंद होती भारत की इमारत का नींव का पत्थर है ...नालायक संतानों की पहचान होती है कि वह खुद कुछ नहीं करते और कुछ करने वाले को पुरजोर कोसते हैं ... हम भारतीय मूल के लोगों ने या काबुल कंधार से आये मुगलों ने किया ही क्या है ? .... अव्यवस्था में मेकॉले व्यवस्था स्थापित कर गया ...हम पर आज भी मेकॉले से बेहतर कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है ....ऐसे में हम अपने पुरखों की अकर्मण्यता को कोसें इससे बेहतर है मैकॉले को धन्यवाद दें ." ----- राजीव चतुर्वेदी

Sunday, July 19, 2015

भाषाएँ कहाँ से शुरू हुईं ? कब और कैसे शुरू हुईं ? ...पर इतना तो तय है कि सभी भाषाओं में परस्पर कोई रिश्ता है

"आप उसे आत्मा कहें या एटम ...परमात्मा कहें या प्रोटोन ...त्रासदी कहें या ट्रेजडी ...भाषाएँ कहाँ से शुरू हुईं ? कब और कैसे शुरू हुईं ? ...पर इतना तो तय है कि सभी भाषाओं में परस्पर कोई रिश्ता है . भाषाओं पर एक नए शोध के मुताबिक हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी जैसी कई ज़बानों का मूल प्राचीन अनातोलिया या आज के तुर्की में है.न्यूजीलैंड के ऑकलैंड विश्वविद्यालय की विकासवादी जीवविज्ञानी क्विनटिन एटकिंसन ने अपने शोध के दौरान पाया कि इंडो-यूरोपीयन समूह की भाषाएँ पश्चिमी एशिया के एक ही इलाके में पैदा हुई हैं. उनके अनुसार ऐसा क़रीब 8000 से 9500 हज़ार साल पहले हुआ था. शोध के दौरान उन्होंने क़रीब 100 से ज़्यादा प्राचीन और समकालीन भाषाओं का कंप्यूटर के माध्यम से अध्यन किया और पाया कि यह सभी भाषाएँ अनातोलिया के इलाकों में पैदा हुई हैं. प्राचीन अनातोलिया का ज़्यादातर हिस्सा आज के तुर्की में है. आज इस इलाके से निकली भाषाएँ दुनिया में तीन अरब लोगों द्वारा पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती हैं. वैसे इन भाषाओं को लेकर दो तरह के मत विज्ञानियों में प्रचलित हैं. एक मत को मानने वालों का मानना है कि यह भाषाएँ मध्य एशिया में काले सागर के इर्द गिर्द पैदा हुईं और वहां से आगे बढ़ते योद्धाओं के तलवारों के साथ पूरी दुनिया में फैलीं. वहीं क्विनटिन एटकिंसन जैसे शोध कर्ताओं का मानना है कि यह भाषाएँ अनातोलिया में पैदा हुईं और वहां से खेती करने वाले किसान इसे अपने हलों के साथ लेकर पूरी दुनिया को बीजते आगे बढ़ गए. अपने शोध के लिए उन्होंने कई भाषाओं के मिलते जुलते शब्दों का कंप्यूटर के माध्यम से विश्लेषण किया. मसलन हिंदी का 'माँ', जर्मन में 'मुटर', रूसी में 'मात', फारसी में 'मादर' और लैटिन में 'माटेरी' बन जाता है...और भारत के ग्रामीण इलाकों में "म्ह्नतारी" . इन सभी शब्दों की जड़ में है इंडो यूरोपीयन भाषाओं का एक ही शब्द 'मेहतर'. वहीं दूसरी तरफ़ इस नई खोज के विरोधियों का कहना है कि यह भाषाएँ रथ और चक्कों के आविष्कार के बाद ही फ़ैल सकतीं थीं और यह क़रीब 3500 सालों पहले ही इजाद हुआ है.
वर्ष 2050 तक 90% मानव-भाषाएँ अपना अस्तित्व खो चुकी होंगी और कुल मानव-भाषाओं की 2/3 तो 22वीं शताब्दी में ही मारी जाएँगी। इसमें भारत की 197 भाषाएँ सम्मिलित हैं।
" ---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, July 15, 2015

उस चाय के प्याले में ...

" उस चाय के प्याले में शामिल थी
मुस्कराहट के लिबास में शाम की उदासी
डूबते सूरज की शेष बची आश
एक गुमशुदा सा अहसास ...हमारे आस पास ...बेहद ख़ास
धीरे से दबे पाँव आ कर हमारे बीच बैठा संकोची सा चंदा
चाय के कप से उठती रिश्तों की ऊष्मा की भाप
थोड़ी आशा, थोडा प्राश्चित, थोड़ी उदासी,
कुछ शेष बचे सपने

कुछ अवशेष से अपने
और एक लावारिस सा अहसास ...बेवजह पर बेहद ख़ास
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने
उस चाय के प्याले में जो खालीपन है वह अपना है
जो भाप बन कर उड़ गया वह सपना है
चाय का खाली प्याला अब रिश्ते की तरह ठंडा है
छलक जाते हैं जो अहसास वह धब्बे से दिखते हैं
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

Tuesday, July 14, 2015

"भूत" भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा है

"भूत की भभूत तुम्हारे माथे पर लगी है ... "भूत" भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा है । तुम उसकी कभी प्रतिभूति हो, कभी अनुभूति, कभी अभिभूत ।... "वर्तमान" तुम हो ...तुम्हें अपना सफ़र तय करना है प्रतिमान बनो या कीर्तिमान ... वर्तमान का नितांत वर्तमान समय ही तुम्हारे हाथ में है । भविष्य तुम्हारे हाथ में नहीं है ... भविष्य के विराट में तुम होगे भी इसमें संदेह है ... होगे भी तो कितने छोटे से होगे यह भी नहीं पता । भविष्य भविष्य के हाथ में है जिसमें ब्रम्हांड के सम्पूर्ण सृजन की हिस्सेदारी है ...सभी प्राणी ...सभी पदार्थ ...सभी के परस्पर रिश्ते तय करेंगे की भविष्य में किस स्थान पर ,कितने किराए पर, कितने दिनों को तुम्हारी स्मृतियों को स्थान दिया जाए."----- राजिव चतुर्वेदी

प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था


"प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था
मैं तुमसे मिलना चाहता था
पर किसी पार्क में नहीं


मैं चाहता था राजनीति की रणभूमि में हम मिलते
पर तुम्हें राजनीति पसंद नहीं
मैं चाहता था किसी शोध में हम मिलते
पर तुम्हें शोध पसंद नहीं
मैं कल्पना करता था कि
मैं रिक्शा चला रहा हूँ
और तुम मुट्ठी में बंद
अपने पिता की दौलत का एक नन्हा सा टुकड़ा लिए
घर से निकलती हो कॉलेज जाने को
मुझसे तय करती हो जिंदगी की दूरी के हिसाब से भाड़ा
पर तुमको मेहनत से कमाने वाले लोग पसंद नहीं
जिंदगी में मेहनत की गंध पर तुम मंहगा डियो स्प्रे करती हो


मैं तुमसे मिलना चाहता था
किसी चिंतन शिविर गोष्ठी या सेमीनार में
जहाँ राष्ट्र की दशा और दिशा पर चिंता हो
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं तुमसे मिलना चाहता था युद्ध के मैदान पर घायल लौट कर
मुझे अच्छा लगता कि
युद्ध से शेष बचा मैं जब लौटूँ
तो तुम कमसे कम अपना रूमाल मेरे घाव पर रख दोगी
मैं भरना चाहता था तुम्हारी माँग में अपने लहू के रँग
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं जानता हूँ तुम भी मुझे प्यार करती हो
पर अपनी माँग में
दूसरों का रँग मेरे लिए भरना चाहती हो
पर मुझे यह पसंद नहीं
मैं अपनी ख्वाहिशें अपने ख्वाब अपने ही खून के रंग से भरूंगा
और उसके लिए ताजिंदगी तिल तिल मरूँगा
विडम्बना यह कि
तुम मेरे साथ जीने आयी हो
और
मैं तुम्हारे साथ मरने आया हूँ .
"
---- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, July 8, 2015

अंतरजातीय,अंतर क्षेत्रीय विवाह और प्रेम सम्बन्ध हों ...जातिवाद अपने आप टूट जाएगा



"ब्राह्मणों के तिरोहितवाद ने राष्ट्र को जितना जोड़ा है उतना ही ब्राह्मणों के पुरोहितवाद ने तोड़ा है ...कभी ब्राह्मणों के पुरोहितवाद ने ...कभी छत्रियों के भौतिकवाद के विवाद ने ... कभी वैश्यों के पूंजीवाद ने ...कभी मुलायम/ लालू /शरद के यादववाद ने ...कभी नीतिश / बेनी आदि के कुर्मीवाद ने ...कभी काँसी /मायावती के दलितवाद के नाम पर जाटववाद ने ...कभी किसी पासवान के पासीवाद ने ...कभी नेताओं के अवसरवाद ने मैकॉले से अधिक इस देश को डिवाइड एण्ड रूल यानी जातियों में बांटो और राज्य करो के हथकंडे से तोड़ा है । यहाँ मुसलमान और ईसाई इसलिए शामिल ही नहीं कर रहा हूँ क्योंकि इस राष्ट्र के बाहर उनकी आस्था के सभी केंद्र हैं तो वह राष्ट्रीय नहीं हैं । यहाँ हिन्दू सिख जैन बुद्ध और प्रबुद्ध शामिल हैं... अब अगर जोड़ना है तो हिन्दू सिख जैन बुद्ध में अंतरजातीय , अंतर क्षेत्रीय विवाह और प्रेम सम्बन्ध हों ...जातिवाद अपने आप टूट जाएगा ।"---- राजीव चतुर्वेदी

Friday, July 3, 2015

निशा निमंत्रण के निनाद से हर सूरज के शंखनाद तक

"निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?
दूर दिलों की दीवारों से तुम भी देखो वहां झाँक कर
वहां हाशिये पर वह बस्ती राशनकार्ड हाथ में लेकर हांफ रही है
और भविष्य के अनुमानों से माँ की ममता काँप रही है
सिद्ध, गिद्ध और बुद्धि सभी की चोंच बहुत पैनी हैं
घमासान से घायल बैठे यहाँ होंसले,... वहां घोंसले
नंगे पाँव राजपथ पर जो रथ के पीछे दौड़ रहा है
वह रखवाला राष्ट्रधर्म का राग द्वेष की इस बस्ती में बहक रहा है
और दूर उन महलों का आँगन तोड़ी हुई कलियों के कारण महक रहा है
निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?"------राजीव चतुर्वेदी