Monday, February 25, 2013

तुम उसे कविता क्यों समझ बैठे


"मेरे जज़बात मेरे जख्मों से वाबस्ता थे ,
मैं कराहा था तुम उसे कविता क्यों समझ बैठे ."

             ---राजीव चतुर्वेदी

वह तेरी आहट थी या मेरी बौखलाहट मौन टूट गया

"वह तेरी आहट थी
या मेरी बौखलाहट
मौन टूट गया
मौन ने तनहाई से तंग आकर तरन्नुम का तराना छेड़ा
मौन मुझको देखा तो कुछ लोगों ने फ़साना छेड़ा
मौन मेरे मन से टकराया तो आहट निकली
और उस आहट से जो अक्षर निकले
मौन से भयभीत से लोगों की वही भाषा थी
कहीं भड़का वह लावा बन कर
भूगोल में ज्वालामुखी की तरह फूट गया
कहीं अंगार ...कहीं श्रृगार ...कहीं संसार के सदमे
कहीं दहका ...कहीं महका ...
कहीं चहका वह चिड़ियों जैसा
ओस की बूँद में नहाया वो तितलियों जैसा
जमा तो दर्द हिमालय की वर्फ बन बैठा
उड़ा तो वह जलजले की गर्द बन बैठा
मेरे अन्दर के समंदर से वो उठता रहा भाप बन बन कर
गिरा तो बंजर भी बरसात में सरसब्ज हुए
मौन मेरा मेरे मन में पिघला
आँख से टपका था ...गाल से हो कर गुजरा
वह तेरी आहट थी
या मेरी बौखलाहट
मौन टूट गया ." 
   ----राजीव चतुर्वेदी

Sunday, February 24, 2013

आज आतंकवाद का एक मजहब है या यों कहें पूरी दुनिया में एक ही मजहब का आतंकवाद है और वह है इस्लाम


"जबसे पाकिस्तान के एक लाख से अधिक अत्याधुनिक अमरीकन हथियारों से लैस सैनकों ने भारतीय सेना के आगे बिना एक भी गोली चलाये आत्म समर्पण किया (1971) तबसे पाकिस्तान भारत से प्रत्यक्ष युद्ध से कतराता है और परोक्ष युद्ध करता है ... इस परोक्ष युद्ध के लिए पाकिस्तान की ISI भारतीय मुसलमानों का मजहब के नाम पर इस्तेमाल करती है . जगह-जगह  हर संवेदनशील स्थान पर स्लीपिंग मोड्यूल देशद्रोह का काम कर रहे हैं ...जहां -जहां सैन्य छावनीयाँ हैं वहाँ के निकासी द्वार के मुहाने की सड़क पर एक मज़ार रातों रात उग आती है जहां से भारतीय सैन्य गतिविधियों की पाकिस्तान को मुखबिरी होती है ...हर सैन्य छावनी बाले  स्थान के रेलवे स्टेशन पर गौर करें उसके एक सिरे पर सरकारी जमीन में एक मज़ार बना दी गयी होगी .यहाँ से भारतीय सैन्य गतिविधियों  पर नज़र रखी जाती है और जरूरत पड़ने पर सूचना पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं को दी जाती है ...मस्जिदें  हमला करने के अड्डे बन चुकी हैं अलविदा की नवाज़ के बाद मुम्बई में शहीद स्मारक पर हमला ...लखनऊ में बुद्ध पार्क में बुद्ध प्रतिमा पर हमला ...वह भी क्यों ?--- केवल इस आक्रोश को व्यक्त करने के लिए कि पड़ोसी देश म्यांमार (वर्मा ) में बलात्कार करते पकडे जाने पर वहाँ की जनता ने दो मुसलमान युवकों को पीट -पीट कर मार डाला था लेकिन यह लोग किसी मस्जिद किसी मजलिस से भारतीय सैनिक हेमराज का सिर पाकिस्तान द्वारा काट लिए जाने पर कभी कोई बयान नहीं दिया . मुहर्रम पर पाकिस्तान के समर्थन के मस्जिदों मजलिसों से नारे सभी ने सुने हैं ...बस वोट बैंक की लालच में राजनीति ने नहीं सुने ...इसी स्लीपिंग मोड्यूल में एक वर्ग सक्रीय आतंकवाद में --तोड़फोड़ में भागीदारी करता है और दूसरा वर्ग उसे छिपाने का समाज और पुलिस को भ्रमित करने का और आतंक की परोक्ष हिमायत करने का काम करता है ...यह वह लोग हैं जो कथित तौर पर पढ़े लिखे हैं जो तमाम तरह के मीडिया पर जा कर यह कहते सुने जा सकते है कि --"आतंकवादीयों का कोई मजहब नहीं होता ." जबकि सभी जानते हैं कि भारत में आज आतंकवादीयों का एक ही मजहब है-- "इस्लाम" ...भारत ही नहीं पूरी दुनियाँ इस्लामिक आतंकवाद से  आक्रान्त है ...यह आतंकियों के स्लीपिंग मोड्यूल कभी अफज़ल गुरू को महिमा मंडित करते हैं क़ि मरते समय उसने कुरआन माँगी ,उसको मरने के पहले अपने पांच साल के बच्चे से भी मिलने नहीं दिया जबकि सभी जानते हैं कि जब वह गुजरे 11 साल से जेल में था तो उसका 5 साल का बेटा कैसे था आदि आदि ...जो लोग इस्लाम के प्रति वास्तव में सजग हैं और अपने आपको मुहम्मद का वंशज मानते हैं वह इस निर्णायक मोड़ पर अपना दीन और ईमान सम्हालें वरना यजीद और सूफियान के विचार वंशज तो दहशतगर्दी में लगे हैं और आज आतंकवाद का एक मजहब है या यों कहें पूरी दुनिया में एक ही मजहब का आतंकवाद है और वह है इस्लाम."--राजीव चतुर्वेदी                    


केन्या में आतंकवादी ने एक हिन्दू से मोहम्मद की माँ का नाम पूछा, न बता पाने पर गोली मार के मार डाला
ये सब आप ख़ुद भी रट लीजिए अपने बच्चों को रटा दीजिए, किसी आकस्मिकता में काम आएगा..
कुछ महत्वपूर्ण नाम---
मोहम्मद के दादा - अब्दुल-मुत्तलिब ,नाना - वहाब ,चाचा – अबू तालिब ,दाई – हलीमा (जिसने मोहम्मद को अपना दूध पिलाया था) .
पिता – अब्दुल्लाह , माता – अमीना .
पत्नियाँ: ---खदीजा, सावदा, आयशा, हफ़्सा, ज़ैन
ब, हिन्द, ज़ैनब, जुवैरिया, राम्ला, रेहाना, सफ़िया, मैमुना, मारिया।
बेटे --- क़ासिम, अब्दुल्लाह, इब्राहिम।
बेटियाँ: --- ज़ैनब, रुक़ैय्याह, उम्म कुल्थूम, फ़ातिमा, ज़हरा
गोद लिया बेटा - ज़ायद
पहले ख़लीफ़ा - पत्नी “आयशा” के पिता “अबू बकर” , दूसरे ख़लीफ़ा - पत्नी “हफ़्शा” के पिता “उमर” , तीसरे ख़लीफ़ा – दो बेटियों “रुक़ैय्याह” और “उम्म कुल्थूम”के पति “उथ्मान” , चौथे ख़लीफ़ा - चाचा “अबू तालिब” का बेटा, चचेरा भाई और बेटी फातिमा के पति “अली”--.
हम केवल आशा कर सकते हैं कि आतंकवादी आपसे इनमें से ही कोई नाम पूछे, आगे आपका नसीबा...बेस्ट ऑफ़ लक।
---(जनहित में जारी ...जन -जन तक पंहुचाएं )

*सू-सू करने के जायज इस्लामिक तरीके*
(यह लेख एक मुस्लिम युवा के दिल की आवाज है जो आई ब्रो बनाने से लेकर नाखून काटने पर फ़तवे जारी करने वाले मुल्लाओं से अजिज आ चुका है। पेश है इंसान और इस्लाम के बीच दलाल बन खड़े और इस्लाम के नाम पर अवाम को लूटने वाले पाकिस्तान के मुल्लाओं पर एक जबरदस्त व्यंग्य।)

पाकिस्तान नामक महान इस्लामिक रियासत में एक मुत्तकी (संयमी, pious) शहरी ने शिकायात दर्ज कराई कि रियासत द्वारा सू सू (पेशाब) करने के मजहबी, मशरू (शरिया कानून के अनुसार) तरीका तय न करने की वजह से मुल्क में मनमानी और आजादी खयाली बढ़ रही है। पेशाब घरो में बोहरान मचा हुआ है शहरी ने याद दिलाया कि इस्लामिक रवायात की अगर पासदारी न की गयी तो अवाम को दोजख में अनेक कष्ट झेलने पड़ सकते हैं। गलत तरीके से अपना गुर्दा खाली करने पर अल्लाह की नाराजगी मोल लेनी पड़ सकती है। इन शिकायात पर फ़ौरन तवज्जो देते हुये मजहबी उल्मा की तरफ़ से फ़ौरन इजलास (मीटिंग) बुलाया गया। रियासत के सरबराह(मुखिया) द्वारा बजाबता (कानूनी) तौर पर सबको इसमे मुनाकिद (उपस्थित) होने का हुक्म फ़रमाया गया। साथ ही उल्मा को फ़ैसला होने तक सू-सू न करने का आदेश सुनाया गया। आखिर बिना जायज तरीके को तय किये सू-सू करना इस्लाम की खिलाफ़वरजी होती। जिसकी सजा पत्थर मार मार कर मौत होती है। एक अखबार ने बड़ी होशियारी का मुजहिरा करते हुये लिखा कि इसे किडनी-स्टॊन- मौत कहा जा सकता है।

अब मामला फ़ौरी तौर पर हल किया जाना जुरूरी था, खास कर इजलास के प्रमुख के लिये जो इसलास में आने से पहले फ़ारिग होने में नाकाम रहे थे। गौर करने वाली बातें अनेक थीं मसलन किस तरह सू-सू करना जायज है? खड़े होकर, बैठ कर, दौड़ते/चलते हुये या किसी दीगर पोजीशन में। क्या किसी खास दिशा में करना चाहिये? किस वक्त करना चाहिये? किस जगह करना जायज है? हफ़्ते के किन दिनों में करना चाहिये? सुबह करना चाहिये या शाम को? क्या काम करने की जगह पर करें, जैसे की मीटिंग में माफ़ी मांग कर निकल कर? क्या कोई खास अवसर ऐसे है जिनमें सू-सू करना जरूरी है? क्या उस समय सीटी बजाई जा सकती है या पूरा गाना ही गाया जा सकता है? सू-सू करने के बाद पैंट तो चढ़ाना ही है लेकिन क्या उसके पहले आखिरी बूंद तक जमीन मे गिराना जुरूरी है? क्या गिराने के लिये हिलाना जायज है? कितनी जोर से हिलाने तक की इजाजत है?

इजलास के प्रमुख ने मामले को जल्द से जल्द निपटाने के लिये दो प्रमुख मसले तय कर दिये। पहला था छिपाव(कोई देखे न) दूसरा था तहरात (पवित्रता)। वहाबी नजरिये के उल्मा का खयाल था कि जमीन से जितना नजदीक हो सके करना चाहिये(उकड़ू बैठ कर) और खड़े होकर करने वालों को दोजख नसीब होगा। क्योंकि जन्नत में पेशाब घर का कोई जिक्र नहीं दिया गया है। इसके अलावा किसी की नजर में नही आना चाहिये, खुद भी नीचे नही देखना चाहिये। यदि आप किसी ऐसी जगह मौजूद नही है तो सू-सू करने के बजाये खुदा से प्रार्थना करनी चाहिये कि वह तकलीफ़ बर्दाश्त करने की सलाहियत(काबिलियत) दे।

देवबंदी नजरिया-ए- फ़िकर के उल्मा न दिखने पर जोर नहीं दे रहे थे। उनका ख्याल था कि नीचे देखने में कोई हर्ज नही। उनका यह कहना था कि दूसरो को दिख जाये उसमें भी कोई हर्ज नही, खाली दूसरों के उपर सू-सू करना कुफ़्र है। बरेलवी उल्मा खड़े होकर करने पर भी कोई एतराज नहीं कर रहे थे उनके हिसाब से तब तक जायज है जब तक बूंदे खुद पर न गिरे। उनके हिसाब से पोजीशन से कोई खास नही फ़र्क पड़ता है। इजलास के मुखिया ने ध्यान दिलाया कि खड़े होने से बूंदो के जमीन से ऊछल पैरो पर पड़ने का खतरा मौजूद होगा। एक मुफ़्ती ने खड़े होकर करने की सूरत पर एक पैर हवा में उठाकर करने की राय दी। दूसरे का मशवरा था कि ऐसे सूरत में दोनो पैर हवा मे उठाना ज्यादा सुरक्षित होगा। बजाहिर तात्तुल (रूकावट) आ जाने के कारण इजलास प्रमुख ने इस बहस को मुंतकिल (बदल) कर दिया गया।। अगले मुद्दे पर वहाबियो ने फ़िर पहले अपनी राय रखी। उनके हिसाब से किबला (काबा, मक्का) की दिशा में सू-सू नहीं की जा सकती और ना ही उसकी ओर पीठ दिखाई जा सकती है। यहां तक कि किबला को बायीं या दायीं दिशा में भी नही रखा जा सकता क्यों कि ऐसी सूरत में सू-सू करने की कवायद किबला की ओर से देखी जा सकती है जो कि गैर मुनासिब होगा। आखिर इस हरकत के दौरान निकलने वाले नापाक तरंगे पाक जगह की पाकीजगी कम जो कर सकती हैं। लेकिन वहाबियो ने अपने आप को नामुमकिन सूरते हाल में डाल दिया था। आखिर किसी न किसी दिशा में तो सू-सू करना ही पड़ता। इस पर राय देते हुये तबलीगी जमात के मुफ़्ती नें सुझाया कि आसमान की तरफ़ हवा में सू-सू करना बेहतर होगा। लेकिन दूसरे ने मशवरे का विरोध करते हुये कहा कि ऐसा से करने वाले के चेहरे पर वापिस कर गिरने इमकान ( संभावना) मौजूद होगा। इस पर एक मुफ़्ती नें राय दी की चारो तरफ़ बिना रूके चक्कर लगा कर करने को जायज करार दिया जा सकता है। इससे किसी भी पाक दिशा की तरफ़ लगातार करने से बचा जा सकता है।

इस पर सारे उल्मा चक्कर का अहसास करने लगे और उन्होने मशवरे को सू-सू करने की कवायद की ओर मुंतकिल कर दिया। एक उल्मा की राय थी कि आदमी को अपने उजू तनासुल ( प्रजनन के हथियार) को दायें हाथ से नहीं पकड़ना चाहिये। दूसरा उसे बायें हांथ से पकड़ने के खिलाफ़ था। तीसरा उसे किसी भी हाथ से पकड़ने को कुफ़्र करार दे रहा था। लेकिन इस में बूंदो के शरीर पर गिरने का खतरा लाजिमी था सो तबलीगी जमात के मुफ़्ती ने सबसे मशवरा मांगा कि क्या किसी और को पकड़ाना जायज होगा। लेकिन इस मशवरे को सुनते ही सभी उल्मा ने तुरत मसले को मुंतकिल कर दिया। बिना किसी को दिखे सू-सू करने के मसले पर फ़िक्रमंद एक मुफ़्ती ने शंका जाहिर कि आखिर हर बार सू-सू करने के लिये के लिये सिविलाईजेशन किस तरह छोड़ी जा सकती है और गुफ़ा किस तरह तलाशी जा सकती है? इस भीड़ भाड़ वाली दुनिया में दीवाल की तरफ़ मुंह कर लाईन बना सू-सू करने को जायज करार दिया जाना ही चाहिये। लेकिन ज्यादा कदामत (इस्लाम को शुद्ध तरीके से मानने) वाले उल्मा ने पब्लिक टायलेट की संभावना को ही खारिज कर दिया। हालांकि अब तक सब के गुर्दे भर चुके थे और वे सब इस पहली बात पर सहमत थे कि चलती सड़क के बीच में सू-सू करना कुफ़्र है।

सब्र एक नेमत है और कितनी भी तकलीफ़ में आदमी हो पर पूरे मामले सुलझे बिना इजलास खत्म नही हो सकता था। रियासत के सरबराह की बाते भी सब को याद थी। अल्लाह सब्र का इम्तेहान तो लेता ही है। सब्र रखना अच्छे मुसलमान की निशानी जो है। एक मुफ़्ती ने सुझाया के सू-सू करने के लिये अपनी बारी का इंतजार करते हुये “अरे भाई क्या पूरा दिन लगाओगे” या ” दूसरों को भी जाना है भाई” कहना जायज करार देना चाहिये। लेकिन बाकि मुफ़्ती इसके खिलाफ़ थे आखिर सब्र कि खिलाफ़वरजी करना सच्चे मुसलमान को शोभा जो नही देता। उन्होने तय पाया कि अपनी बारी का इंतजार करते हुये तीन बार हौले से दस्तक देना ही सही है। सू-सू करते हुये सलाम दुआ करना भी कुफ़्र करार दिया गया। साथ ही संडास मे बढ़ती हुई तेल की क़ीमतों या ताज़ा तरीन सियासी स्कैंडल के बारे में कोई बातचीत नाजायज ठहरा दी गयी। केवल बेहद जुरूरी बातो को करने की ही इजाजत फ़रहाम की गयी। मसलन “क्या आप बाहर निकलेंगे” या “मै नही समझता कि इस कमोड का इस्तेमाल एक साथ दो लोग कर सकते है।”।

सू-सू करने के दौरान बूंदे शरीर पर गिर जाने की सूरत में क्या करना चाहिये इस पर जुरूर कुछ विवाद हुआ। एक मुफ़्ती का कहना था कि ऐसी सूरत में तीन से जियादा बार धोना चाहिये। एक फ़िरका सम संख्या में धोने की वकालत कर रहा था तो दूसरा विषम संख्या में। एक ने साबुन के इस्तेमाल को जुरूरी करार दिया तो कुछ कपड़ा धोने के पाउडर को गंदगी दूर करने का बेहतर उपाय बता रहे थे। वहाबी फ़िरका सल्फ़्यूरिक एसिड के इस्तेमाल पर आमादा था। लेकिन खुदा का खौफ़ याद कराते हुये उन्हे आखिरकार इस मामले में बाकि फ़िरको से सहमत होने पर मजबूर कर दिया गया। बाकि मामलो मे आम सहमति थी जैसे रूके हुये पानी मे नही करना चाहिये, तेज भड़की आग पर भी नहीं करना चाहिये, बिजली के उपकरणो पर भी नहीं करना चाहिये। तेज तूफ़ान की सूरत में खुले आसमान की नीचे सु सु करने पर भी पाबंदी लगा दी गयी। बशर्ते किसी को अल्लाह से मिलने की जल्दी न हो।

खैर इस तरह इजलास पूरा हुआ, महान इस्लामिक रियासत के सरबराह को आम सहमती वाले मुद्दे भेज दिये गये और बाकि पर कहा गया कि इस का खुलासा तालिबे-ए-इल्म को जुमे की नमाज के बाद मुल्लाओं द्वारा कर दिया जायेगा ताकि शको-शुबहात की गुंजाईश न रहे। एक कौमी अखबार ने खबर छापी कि पाकिस्तान मे कौमी यकययती(एकता) का जबरदस्त मुजाहिरा किया गया। इजलास के बाद इजलास के प्रमुख के पीछे सभी फ़िरकों के उल्मा और मुफ़्ती लाईन बना कर भाईचारे से फ़ारिग होते नजर आये थे। फ़ारिग होने के बाद सब ने एक दूसरे का हाथ पकड़ नारा लगाया “पाकिस्तान जिंदाबाद।”

लेखक – हसीब आसिफ़
हसीब एक जबरदस्त व्यंग्यकार रचनाकार और आलोचक हैं। वे महज पच्चीस साल की उम्र मे अपनी बेबाक राय पाकिस्तान के युवाओं और मुसलमानो का जीवन हराम करने वाली ताकतो पर छींटाकशी करने मे कोई कसर नही छोड़ते। भारत की आउटलुक जैसी अंग्रेजी मैग्जीन मे उनके लेख शाया होते रहते है। हसीब को अफ़सोस था कि वे सोचते और बोलते पंजाबी मे है लेकिन लिख पंजाबी मे नही सकते। इन दिनो वे गुरूमुखी सीख रहे है। फ़िलहाल उनके व्यंग्य अंग्रेजी मे है जो बकौल उनके उन्हे बिल्कुल भी नही आती। पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी मुल्क मे जिस बेबाकी से वे लिखते है वह उनके पाठको को भी उनकी सुरक्षा के लिये चिंतित कर देता है। बरहलाल वे पाकिस्तान के पढ़े लिखे नौजवानो की सोच को उजागर करते है। जो इस्लाम को बदनाम करते और आम मुसलमान के जीवन को त्रस्त करते मुल्लाओ के खिलाफ़ उठ खड़ होने को बैचेन है लेकिन कट्टरपंथियों के भय से खामोश है।

हिंदी मे अनुवादित लेखो की यह श्रंखला भारत और पाकिस्तान की अवाम को एक करने और अमन की आशा का एक छॊटा सा प्रयास है।
पाकिस्तान से एक पोस्ट मिली है -----
मैं भी काफ़िर, तू भी काफ़िर
फ़ूलों की खुशबू भी काफ़िर
लफ़्जो का जादू भी काफ़िर
ये भी काफ़िर वो भी काफ़िर
फ़ैज और मंटो भी काफ़िर
नूर जहां का गाना काफ़िर
मैक्डोनल्ड का खाना काफ़िर
बर्गर काफ़ी कोक भी काफ़िर
हंसना बिद्दत जोक भी काफ़िर

तबले काफ़िर ढोल काफ़िर
प्यार भरे दो बोल भी काफ़िर
सुर भी काफ़िर बोल भी काफ़िर
दादरा काफ़िर ठुमरी काफ़िर
वारिस शाह की हीर भी काफ़िर
चाहत की जंजीर भी काफ़िर
जिंदा मुर्दा पीर भी काफ़िर
जीन्स और गिटार भी काफ़िर
उसकी वो सलवार भी काफ़िर
जो मेरी धमकी न छापे
वो सारे अखबार भी काफ़िर
कालेजो के कंप्यूटर काफ़िर
डार्विन का बंदर भी काफ़िर
कुछ मस्जिद के बाहर काफ़िर
कुछ मस्जिद के अंदर काफ़िर
काफ़िर काफ़िर मैं भी काफ़िर
काफ़िर काफ़िर तू भी काफ़िर

----सलमान हैदर


Thursday, February 14, 2013

उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति


"कृष्ण उस प्यार की समग्र परिभाषा है जिसमें मोह भी शामिल है ...नेह भी शामिल है ,स्नेह भी शामिल है और देह भी शामिल है ...कृष्ण का अर्थ है कर्षण यानी खीचना यानी आकर्षण और मोह तथा सम्मोहन का मोहन भी तो कृष्ण है ...वह प्रवृति से प्यार करता है ...वह प्राकृत से प्यार करता है ...गाय से ..पहाड़ से ..मोर से ...नदियों के छोर से प्यार करता है ...वह भौतिक चीजो से प्यार नहीं करता ...वह जननी (देवकी ) को छोड़ता है ...जमीन छोड़ता है ...जरूरत छोड़ता है ...जागीर छोड़ता है ...जिन्दगी छोड़ता है ...पर भावना के पटल पर उसकी अटलता देखिये --- वह माँ यशोदा को नहीं छोड़ता ...देवकी को विपत्ति में नहीं छोड़ता ...सुदामा को गरीबी में नहीं छोड़ता ...युद्ध में अर्जुन को नहीं छोड़ता ...वह शर्तों के परे सत्य के साथ खडा हो जाता है टूटे रथ का पहिया उठाये आख़िरी और पहले हथियार की तरह ...उसके प्यार में मोह है ,स्नेह है,संकल्प है, साधना है, आराधना है, उपासना है पर वासना नहीं है . वह अपनी प्रेमिका को आराध्य मानता है और इसी लिए "राध्य" (अपभ्रंश में हम राधा कहते हैं ) कह कर पुकारता है ...उसके प्यार में सत्य है सत्यभामा का ...उसके प्यार में संगीत है ...उसके प्यार में प्रीति है ...उसके प्यार में देह दहलीज पर टिकी हुई वासना नहीं है ...प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति इसी लिए वासना वैश्यावृत्ति है . जो इस बात को समझते हैं उनके लिए वेलेंटाइन डे के क्या माने ? अपनी माँ से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपने मित्र से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी बहन से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी प्रेमिका से प्यार करो कृष्ण की तरह ... .प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति ." ----राजीव चतुर्वेदी


"मीरा ...जब भी सोचने लगता हूँ बेहद भटकने लगता हूँ ...मीरा प्रेम की व्याख्या है प्रेम से शुरू और प्रेम पर ही ख़त्म ...प्रेम के सिवा और कहीं जाती ही नहीं. वह कृष्ण से प्यार करती है तो करती है ...ऐलानिया ...औरों की तरह छिपाती नहीं घोषणा करती है ...चीख चीख कर ...गा -गा कर ...उस पर देने को कुछ भी नहीं है सिवा निष्ठां के और पाना कुछ चाहती ही नहीं उसके लिए प्यार अर्पण है , प्यार तर्पण है , प्यार समर्पण है , प्यार संकल्प है ...प्यार विकल्प नहीं ...मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं है वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह , न सुविधा , न वैभव , न देह , न वासना केवल उपासना ...उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए ...मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए .मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है . मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता . वह भी मीरा की भावना . मीरा को कृष्ण से कुछ भी नहीं चाहिए ...न भौतिकता और न भावना , न देह ,न स्नेह , न वासना ...मीरा के प्रेम में देना ही देना है पाना कुछ भी नहीं . मीरा के प्यार की परिधि में न राजनीती है, न अर्थशास्त्र न समाज शास्त्र . मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण . मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है ...मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं . जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे ... वह लोग भौतिक हैं ...दहेज़ ,गहने , वैभव , देह सभी कुछ भौतिक है इसमें भावना कहाँ ? प्यार कहाँ ? वासना भरपूर है पर परस्पर उपासना कहाँ ? देह के मामले में Give & Take के रिश्ते हैं ...तुझसे मुझे और मुझसे तुझे क्या मिला ? --- बस इसके रिश्ते हैं और मीरा व्यापार नहीं जानती उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए ...कृष्ण से भी नहीं ...कृष्ण अपना वैभव , राजपाठ , ऐश्वर्य , भाग्वाद्ता , धन दौलत , ख्याति , कृपा ,प्यार, देह सब अपने पास रख लें ...कृष्ण पर मीरा को देने को कुछ नहीं है और मीरा पर देने को बहुत कुछ है विशुद्ध, बिना किसी योग क्षेम के शर्त रहित शुद्ध प्यार ...मीरा दे रही है , कृष्ण ले रहा है .--- याद रहे देने वाला सदैव बड़ा और लेने वाला सदैव छोटा होता है ....कृष्ण प्यार ले रहे हैं इस लिए इस प्रसंग में मीरा से छोटे हैं और मीरा दे रही है इस लिए इस प्रसंग में कृष्ण से बड़ी है . उपभोक्ता को कृतग्य होना ही होगा ...उपभोक्ता को ऋणी होना ही होगा कृष्ण मीरा के प्यार के उपभोक्ता है उपभोक्ता छोटा होता है और मीरा "प्यार" की उत्पादक है . मीरा को जानते ही समझ में आ जाएगा कि "प्यार " भौतिक नहीं विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है . यह तुम्हारे हीरे के नेकलेस , यह हार , यह अंगूठी , यह कार , यह उपहार सब बेकार यह प्यार की मरीचिका है . भौतिक है और प्यार भौतिक हो ही नहीं सकता ...प्यार केवल देना है ...देना है ...और देना है ...पाना कुछ भी नहीं . ---मीरा को प्रणाम !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

Wednesday, February 6, 2013

फ़तवा क्या है ?



"फ़तवा क्या है ? ज़रा इसके क्रमबद्ध विकास की कहानी और क्रम पर तो गौर करें . फतह (जीत), फर्ज (दायित्व ), फरमान (शासनादेश ), फतवा (निर्देश ), फौत (मृत्यु ) और फातिहा (शोक /श्रद्धांजलि गीत या वाक्य ) ... जी हाँ जनाब अब समझ चले होंगे फतह,फर्ज,फरमान,फ़तवा,फौत और फातिहा जैसे शब्द संबोधनों के विकास की क्रमबद्ध कहानी ...यह राज्य करने की आकांक्षा को अपने गर्भ में छिपाए मजहब की भाषा है . फ़तवा, जेहाद और खिलाफत शब्द हर मुसलमान के जेहन में हैं पर उनमें से शायद ही कोई उसका सही प्रयोग करता हो ...सही प्रयोग तो तब करेगा जब उसे सही अर्थ पता हो ...खिलाफत का सही अर्थ है "समर्थन" किन्तु लोग इसे "विरोध" की जगह इस्तेमाल करते हैं जबकि उनको "मुखालफत" कहना चाहिए ...खिलाफत तो हुयी खलीफा की हाँ में हाँ मिलाना या समर्थन . खैर बात एक बार फिर फतवे पर है ...कश्मीर की चार बेटियों ने एक बैण्ड बनाया था किन्तु मुल्लाओं को लगा उनका बैण्ड बज गया ...बैण्ड का नाम था परगास (प्रभात किरण ) .फतवा आया कि बैण्ड पर प्रतिबन्ध है क्योंकि वह इस्लाम के विरुद्ध है ...संगीत से इस्लाम को ख़तरा है ...एक हिंसक मजहब संगीत से खौफजदा है इस लिए खामोश हो जाओ ...बेचारी बेटियाँ खामोश हो गयीं ...अजीब लोग हैं यहाँ जहां खवातीन (महिलायें ) खामोश रहती हैं ...आयशा के आंसू कोई नहीं पोंछता पर फाहिशा का मुजरा हर कोई सुनता है ...शमशाद बेगम , नूरजहाँ , बेगम अख्तर ,सुरैया ,आबिदा परवीन , रूना लैला, नादिया हसन जाने कितने ही नाम हैं जिन पर कभी कोई फतवा नहीं आया ...नकाब और हिजाब की बात करते मौलवियों को फिल्म में काम करती किस्म -किस्म से जिस्म दिखाती फाहिशा नहीं दिखीं ...अभी हाल की बीना मालिक नहीं दिखी ...जीनत अमान की दुकान नहीं दिखी ...भारत -पाकिस्तान -बँगला देश से निकाह के नाम पर अरब देशों के शेखों द्वारा खरीद कर ले जाई जाती हुयी अपनी बेटियाँ नहीं दिखीं ...क्या उनको यह भी नहीं पता कि विश्व की हर चौथी बाल वैश्या भारत -पाकिस्तान -बँगला देश की बेटी है और मजहबी आधार पर यदि देखा जाए तो बाल वेश्याओं के मामले में मुसलमान विश्व के बहुसंख्यक हैं ...इस पर तो कभी फतवा नहीं आया ....जुआ/सट्टा हराम है पर दाउद इब्राहम का काम है ,फिक्सिंग के लिए क्रिकेट बदनाम है पर एक बड़ी तादाद इसमें लगी है सो इस पर भी फतवा नहीं आया ...कल एक मौलवी TV में ही बता रहे थे कि TV देखना हराम है उस पर भी फतवा पर देशद्रोह हराम नहीं है इस लिए उस पर कोई फतवा नहीं ...बेगुनाहों का क़त्ल हराम नहीं है इस लिए उस पर भी कोई फतवा नहीं ...हमारी बेटियों को खरीद कर कोइ शेख /समृद्ध ले जाए उस पर भी कोई फतवा नहीं ...मुजरा सुनने वालों पर भी कोई फतवा नहीं ...बलात्कार करने वालों पर भी कोई फतवा नहीं ....वाह रे मौलवी तेरी फतह की इक्षा और फतवे की समीक्षा ...नीरज ने लिखा था --"अब तो एक ऐसा मजहब भी चलाया जाए जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए ." -----राजीव चतुर्वेदी

Friday, February 1, 2013

मैं मरने के पहले एक बार चीखूंगा जरूर

"मैं मरने के पहले एक बार चीखूंगा जरूर ,
तुम मरने के बहुत पहले ही चीखो
क्योंकि मरने के बाद आदमी नहीं चीखता
और अगर चीखा होता
तो शायद
इतनी जल्दी मरता भी नहीं
तमाम लोग जो ज़िंदा दिखते हैं, मर चुके हैं
इसी लिए चीखते ही नहीं
मैं चीखना चाहता हूँ
क्योंकि अब मैं मरना चाहता हूँ
और बता देना चाहता हूँ
मरना मेरी व्यक्तिगत जिम्मेदारी है
और मरने से पहले चीखना सामाजिक जिम्मेदारी है
मेरा जन्म हुआ था तो तय था अब मुझे एक दिन मरना ही होगा
मेरी चीख में लिपटी है मेरी शेष बची जिन्दगी
जिसे मैं जीना चाहता था
तुम्हारी तरह
मैं अब तुम्हारी तरह जीना नहीं चाहता
मैं अब अपनी तरह मरना चाहता हूँ
आखिर क़त्ल होने के पहले चीखने का हक़ तो है मुझे
मेरी चीख वह अंतिम आवाज़ है जिससे शुरू होती है कातिल की पहचान
तमाम लोग जो ज़िंदा दिखते हैं, मर चुके हैं
इसी लिए चीखते ही नहीं
मैं चीखना चाहता हूँ
मेरे मरने के बाद मेरी शवयात्रा में शामिल लोग कहेंगे
यह शक्स मरने के पहले बेहद ज़िंदा था
और इसका आशय यह भी होगा कि
ज़िंदा लोग मरने के पहले ही बेहद मुर्दा हैं
इसी लिए चीखते ही नहीं ." ----राजीव चतुर्वेदी