Monday, March 26, 2012

मैंने वह बोला जो खुरचा था ह्रदय के पंकिल तलों से

" मैंने वह  बोला जो खुरचा था ह्रदय के पंकिल तलों से
   तुम ये बोले सच तो था पर संजीदा नहीं था
    मैने पूछा वह भी कभी इतना तो पाकीज़ा नहीं था
    मैंने भेजे शब्द सच के सैनिकों से रक्त रंजित
    तुम ये बोले शब्द तो थे पर उनका उचित श्रिंगार नहीं था
मैं तो बोला था तरुणाई के माने युद्धों की अंगड़ाई है
मैं करुणा की पैमाइश करके क्रान्ति लिखा करता था
तुम कविता में कामुकता का रस घोल रहे थे
शब्दों का सौन्दर्य समझते तुम भी थे
शब्दों से मैं शौर्य उकेरा करता था
प्यार की प्यारी परिधियों की परिक्रमा कर तुम कहाँ पहुंचे ?
मैं केंद्र में था हर पराक्रम के
   शब्द मेरे युद्धरत थे जिन्दगी की शाम को घायल से आते
उस समय तुम प्यार की पेंगें बढाने जा रहे थे
    तुमने चाहा दुल्हनो से शब्द ही स्वीकार करलूं
मैं ये बोला जनपथों की वेदना का अनुवाद करदूं
मैं ये बोला राजपथ पर युद्ध लड़ना है मुझे." ------राजीव चतुर्वेदी 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतना गहरा बोल पाना बहुत कठिन होता है।

राजेंद्र अवस्थी. said...

वाह...अति सुंदर.....वाह.....