Sunday, March 11, 2012

कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं

"एक बात बताऊँ तुम्हें,
कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं
बिलकुल वैसे ही जैसे किसी नवजात के पैदा होने पर सबसे ज्यादा शोर करते हैं हिजड़े
कवि सदैव तटस्थ भाव के प्रेमी होते हैं
कवियों में प्रायः होता है साक्षीभाव
यह भी समझ लो कि--
जिसमें होतां है साक्षीभाव उसमें होता है संघर्ष मैं शामिल होने के साहस का अभाव
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है वख्त की लोमहर्षक आंधी
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है ओस की बूँदें, गिरती वर्फ
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है धूप मैं तपते खेत खलिहान और किसान
कवि अपने माता पिता का पूरे जीवन तिरष्कार करके करते हैं कागज़ पर कविता में उनकी वेदना का अविष्कार
कवि मुफ्त की दारू पीकर फुफकारता है क्रान्ति
कवि बंद कमरों मैं खुली बहस करता है
कवि के किरदार होते हैं सिंथेटिक और नज़र होती है प्रेग्मैटिक
कविता अगर शिल्प है तो षड्यंत्र का सुन्दर स्वरुप है जो सच में कुरूप है
कविता अगर संवेदना है तो संघर्ष का शेषफल बताओ विभाज्य इकाई की वेदना भी सुनाओ
कविता अगर जागते समाज को सुलाती हुई लोरी है तो वह वैश्या के कोठे पर रखी पान की गिलौरी है
कवि दूसरे को खर्च कर अपनी कविता का कच्चा माल बनाता है तब एक कविता गुनगुनाता है
अगर सापेक्ष हो तो संघर्ष मैं शामिल हो जाओ और निरपेक्ष हो तो कविता सुनाओ
जब सीधी सपाट बातें भी लोगों की समझ मैं न आ रही हों तो कविता की जरूरत है भी क्या ?
बहुत सुन लीं जनवादी कविता से अवसरवादी व्यख्या
अगर समझो तो समझ लो यह भी कविता एक निर्विवाद संवाद भी है
समाज के बीच खींची दीवार का कान भी है
कविता पत्थरों की धड़कन है
कविता तारे का एकाकीपन भी है
कविता जंगल में रोने का संवाद है
कविता एक गुनगुनाया जानेवाला अवसाद है
कविता क्रान्ति की जड़ों की खाद है
अगर हो सके तो लड़ाई मैं शामिल हो जाओ और जब युद्ध मैं घायल हो तब ही कविता गुनगुनाओ." -----राजीव चतुर्वेदी


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