Monday, January 28, 2013

कविता उसके पार खडी है लुप्तप्राय सी

"प्यार के माने
हमारे और ...तेरे और हैं
इसलिए प्यार मेरे यार मैं लिखता नहीं
स्नेह यदि स्वीकार हो सत्कार कर लेना
स्नेह के उस पार देह की दहलीज पर प्यार के दीपक जो जलते हैं वहां
उस शहर से दूर
चलती हैं जो मध्यम सी हवाएँ हांफती सी
फुसफुसाती हैं स्नेह के सात्विक से संस्कारों को
प्यार वह कहते हैं यहाँ देह दर्शन के नए अविष्कारों को
चला जाता हूँ तेरे प्यार की दुनिया से अपने स्नेह की शरहद पर
प्यार की नदिया में तैरी नाव तेरी है
प्यार की कशमकश में डूबीती हर कश्ती भी तुम्हारी है
शब्दकोशों से बोझल सा तुम्हारा ज्ञान
और मैं तो आत्मा की अनुभूति का पर्याय लिखता हूँ
प्यार मेरे यार भावना की भौतिकी है
और मेरा स्नेह आत्मा का शेष सा सारांश लिखता है
शब्द सीमित हैं असीमित भावना विस्तार लेती है
कविता वह नहीं होती जो लिखी जाती है शब्दों से
कविता दूर होती है
शब्द संकेत करते हैं जहां उस ओर देखो  
अंतर्मन के कोलाहल के आर्तनाद सी
मन की पगडंडी पर शब्दों की शातिर झाड़ी से दूर 
धरा की धूल ...धुएं की लय पर शब्देतर सा आभाष जहाँ होता है
कविता उसके पार खडी है लुप्तप्राय सी ." -----राजीव चतुर्वेदी 

3 comments:

Saras said...

धुएं की लय पर शब्देतर सा आभाष जहाँ होता है
कविता उसके पार खडी है लुप्तप्राय सी ." ...वास्तव में अनकहा ही प्यार का विस्तार होता है

डॉ. जेन्नी शबनम said...

गहन अनुभूति और अभिव्यक्ति, शुभकामनाएँ.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

कविता कँटीली राह चलती है फिर भी पार नहीं पहुँचती, जाने क्यों... लुप्तप्राय-सी... सुन्दर अभिव्यक्ति, शुभकामनाएँ.