" एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है,
जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,
पर कुछ नहीं होता टूटता रहता है
सभ्यता की निहाई पर हथोडा चलता है सवाल बन कर
उगता रहता है सरेआम कोई सूरज भी रोज
मेरी कलेजा फाड़ कर निकली चीख सुन
मौसम भी बस करवट ही बदलता है
बदल जाता है साल दर साल कलेंडर का फड़फडाता पन्ना
इस बीच टूटता हुआ आदमी पूछता है एक ही सवाल
कब तक तोड़ोगे मुझे ?
और तोड़ो मुझे जितना तोड़ सकते हो उतना तोड़ो
टूटता हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
टूट रहा हूँ मैं , टूटने की इंतहा पर एक दिन
टूटते टूटते अणु बनूंगा, परमाणु बनूंगा
इससे ज्यादा तोड़ भी तो नहीं सकते हो तुम मुझे
अणु और परमाणु बनने के बाद
मैं तोड़ दूंगा इस तोड़ने वालों की दुनिया को
बस एक ...बस एक ही धमाके से
एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है,
जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,"
-- राजीव चतुर्वेदी ( 25Nov.1998 को "हिन्दुस्तान" में प्रकाशित अपनी तीन कविताओं से एक)
जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,
पर कुछ नहीं होता टूटता रहता है
सभ्यता की निहाई पर हथोडा चलता है सवाल बन कर
उगता रहता है सरेआम कोई सूरज भी रोज
मेरी कलेजा फाड़ कर निकली चीख सुन
मौसम भी बस करवट ही बदलता है
बदल जाता है साल दर साल कलेंडर का फड़फडाता पन्ना
इस बीच टूटता हुआ आदमी पूछता है एक ही सवाल
कब तक तोड़ोगे मुझे ?
और तोड़ो मुझे जितना तोड़ सकते हो उतना तोड़ो
टूटता हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
टूट रहा हूँ मैं , टूटने की इंतहा पर एक दिन
टूटते टूटते अणु बनूंगा, परमाणु बनूंगा
इससे ज्यादा तोड़ भी तो नहीं सकते हो तुम मुझे
अणु और परमाणु बनने के बाद
मैं तोड़ दूंगा इस तोड़ने वालों की दुनिया को
बस एक ...बस एक ही धमाके से
एक टूटते हुए इंसान में दरअसल सारा संसार ही टूटता है,
जाने कहाँ से इस बीच आड़े आजाती हैं भूमध्य, देशांतर और अक्षांश रेखाएं,"
-- राजीव चतुर्वेदी ( 25Nov.1998 को "हिन्दुस्तान" में प्रकाशित अपनी तीन कविताओं से एक)
2 comments:
"और तोड़ो मुझे जितना तोड़ सकते हो उतना तोड़ो
टूटता हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है "-----लगता है मेरा ही मन इस रचना में पूरी तरह प्रतिबिंबित हो रहा है , कभी , बहुत पहले लिखा था --
'चाहता हूँ स्नेह के धोखे मुझे तुम और छल लो,
चाहता हूँ दर्द, असफलता , निराशा और भर दो ,
अरे ! जितना है गरल, कम है, मैं ज्यादा चाहता हूँ
------ और तब भी संबोधन मेरा, किसी एक व्यक्ति को नहीं, बल्कि एक समाज को, एक संस्कृति को, एक सभ्यता को था .
"और तोड़ो मुझे जितना तोड़ सकते हो उतना तोड़ो
टूटता हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है "-----लगता है मेरा ही मन इस रचना में पूरी तरह प्रतिबिंबित हो रहा है , कभी , बहुत पहले लिखा था --
'चाहता हूँ स्नेह के धोखे मुझे तुम और छल लो,
चाहता हूँ दर्द, असफलता , निराशा और भर दो ,
अरे ! जितना है गरल, कम है, मैं ज्यादा चाहता हूँ
------ और तब भी संबोधन मेरा, किसी एक व्यक्ति को नहीं, बल्कि एक समाज को, एक संस्कृति को, एक सभ्यता को था .
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