Wednesday, October 3, 2012

हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?

"हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं
युद्ध जारी है प्रबुद्धों में यहाँ
बुद्ध गिद्ध में अंतर करना बहुत कठिन है
शातिरों ने शान्ति के स्कूल खोले हैं
शौर्य की आँखों में खून नहीं
हूर की आँखों में अब वह नूर नहीं
साहित्यकारों का नहीं शब्द हलवाईयों का यह दौर है
अनुप्राश के च्यवनप्राश पर निर्भर है संस्कृति की जीवन रेखा
हर तारा जो टूट रहा है नक्षत्रों से छूट रहा है
उस से पूछो प्रलय विलय का अंतर क्या है ?
शब्द जलेबी बन जाए तो मुझे बताना कविता की परिभाषा क्या है ?
राग-द्वेष से उबारो तो फिर यह बतलाना राजनीति की भाषा क्या है ?हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं."
----राजीव चतुर्वेदी

2 comments:

k p singh , journlist said...

राग-द्वेष से उबारो तो फिर यह बतलाना राजनीति की भाषा क्या है ?हाथ में खंजर लिए तहजीब के मंजर नज़र आते किसे हैं ?
यह अजीब दौर है
खूंरेज़ आँखों में खूबसूरत से ख्वाब सिमटे हैं
यह अजीब दौर है
सभ्यता के सवालों को लिए सलीब सा
हर किसी के हाथ में ढाल तो है तलवार नहीं

अत्यंत सुंदर,

वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत करती हुई रचना।...बधाई

प्रवीण पाण्डेय said...

शोषण शोषित राग चल रहा।