Thursday, October 25, 2012

मैं एक कविता सी बहती रही

"मैं एक कविता सी बहती रही,
तू मौजूद था काव्य का उनवान बन कर
जैसे दरवाजे पर रंगोली
जैसे माथे पर रोली
जैसे आती हो मेरी कल्पनाओं में डोली
मैं नदी थी, तू गुजरता था तूफ़ान बन कर
मैं हकीकत से हार जाती थी
तू खडा रहता था अरमान बन कर
मै तो सर खोल कर चली घर से
तैने सर ढक दिया पल्लू बन कर
मैं सोचती थी पर वह दिन दूर था
मेरी कल्पनाओं में सिन्दूर था
हकीकत एक दिन हांफती सी मेरे द्वार पर थी
तू नहीं था
वहम था मेरा
मेरे अफ़सोस के अफ़साने का उनवान पढ़ा क्या तुमने ?
बारिशों की बूँद बेबस हैं --ये रेगिस्तान है
और इस बीराने में
झकझोरती हवाओं के बीच झांकते तारों की भीड़ 
उस भीड़ में मैं अब भी तुम्हें पहचान लेती हूँ
एक एकाकी समंदर मेरे अन्दर सत्य का
इस प्यार को जुबान मैं दे चुकी हूँ
हो सके उनवान इसको दे सको तो दे ही देना
जानती हूँ में ही हूँ ...हमसफर मेरी परछाईं है
और कोई भी नहीं." ----राजीव चतुर्वेदी

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।

प्रवीण पाण्डेय said...

बहना और स्थिर रहना...रीति यही है...