"आज विश्व मानवाधिकार दिवस है ...इस रस्म की
भस्म आज जगह -जगह गोष्ठी -सैमीनार में चाटी जायेगी ...वैसे भी मानवाधिकार
की दुकान चला कर कई NGO मोटे हो गए हैं ...हम कब तक बाजे सा अपनी अंतरआत्मा
को बजाते रहेंगे ? ...गाँव के टाट -पट्टी वाले स्कूल और शहर के अभिजात्य पब्लिक स्कूलों के बीच सामान शिक्षा का नारा मुंह बाए खडा
है ...भूख भयावह हो चुकी है ...गरीबी की रेखा की अवधारणा तो है पर परिभाषा
नदारद है ...न्याय बिकाऊ माल है पर टिकाऊ नहीं ...एक अदालत का फैसला दूसरी
अदालत पलट देती है और तीसरी अदालत में उम्र बीत जाती है . पेशकार पैरोकारी
के नाम से जो पैसा लेता है उस से तो मेम साहब तरकारी मंगवाती हैं बाकी
वफादारी करने के लिए उसको और भी मैच फिक्सिंग करनी पड़ती है ... दहेज़ ले कर
शादी करने वाली पुरुष वेश्याओं की भीड़ है ...यह हरामखोर दहेज़खोर उस पुलिस
में दरोगा / क्षेत्राधिकारी होते है जो दहेज़ उत्पीडन/ हत्याओं की जांच
करती है और एक दहेज़खोर जज उस पर कथित इन्साफ करता है ...भला यह दहेज़खोर
हरामखोर किस नैतिक अधिकार से दहेज़ के विवादों में दखल देते हैं ? --- इस
वर्ष अब तक देश में 87 हजार से अधिक दहेज़ हत्याएं हो चुकी हैं ...घरेलू
हिंसा की बात कुछ महिलाओं ने उठाई जरूर पर उनका जमीर साफ़ नहीं था वह चिल्ल
-पों करती थीं कि उनको पति से पिटना पड़ता है ...बात दुखद है पर अधूरी
...अगर घरेलू हिंसा गलत है तो निश्चय ही पति द्वारा पत्नी को पीता जाना भी
गलत है और पति -पत्नी दोनों के द्वारा बच्चों को पीटा जाना भी गलत है ...पर
घरेलू हिंसा के नाम पर पिट रहे बच्चों की वेदना कोई नहीं सुनता क्योंकि
उनका कोई वोट बेंक नहीं है ....बाल मजदूर आज भी मजबूर हैं ...असंगठित
क्षेत्र के श्रमिकों का कोई संगठन ही नहीं ....विश्व की हर सातवीं बाल
वैश्या भारत की बेटी है ...रोशनी ,रास्ते ,राशन और रोजगार पर शहरों का
कब्जा है ...कृषि प्रधान देश में कृषि अब घाटे का व्यवसाय हो गया है . कृषि
उत्पाद का मूल्य तभी बढ़ता है जब वह खलिहान से आढ़तिये के गोदाम में पहुँच
जाता है ...और, ...और ...एक बात कहूँ ? ----हिजड़ों के मानवाधिकार की बात
कोई क्यों नहीं करता ? ---इसीलिए न क्योंकि उनका कोई वोट बेंक नहीं है
दूसरे नंबर के बहुसंख्यक यानी मुसलमानों को भी अल्पसंख्यक इसलिए कहा जाता
है क्योंकि उनका वोट बैंक है और वास्तविक अल्प संख्यक पारसीयों का कोई वोट
बैंक नहीं ...और इस पूरे परिदृश्य को संदेहास्पद तथा अविस्वस्नीय बना दिया
है उन मानवाधिकार संगठनों ने जो मानवाधिकारों की केवल इस्लामिक या नक्सली
आतंकियों के लिए ही लड़ते है उनके द्वारा मारे गए लोगों के लिए नहीं परिणाम
कि आज मानवाधिकार की लड़ाई "दानवाधिकार की लड़ाई में बदल गयी है ...पर याद
रहे अभी मासूमियत के गालों पर आंसू सूखे नहीं है और मानवाधिकार के सवाल भी
अभी नम हैं सूखे नहीं हैं ... हर तहरीर में तश्वीर देखो इस तरक्की की ."- राजीव चतुर्वेदी
3 comments:
ध्यान बहुत दिया जा रहा है, काम नहीं हो पा रहा है।
यह केवल सच ही नहीं ,इसे मैं नंगा सच कहूँगा . ऐसे स्पष्ट लिखने वाले बहुत कम होते है ,चुतुर्वेदी जी आपको बधाई
मेरी नई पोस्ट में आपका स्वागत है
साल में एक दिन ढोल पीट लेने से कुछ नहीं होता -वह भावना सच में जागे, तभी मानवाधिकार की रक्षा संभव है !
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