Tuesday, April 30, 2013

क्रान्ति का तेरा करिश्मा झूठ का सारांश था

"क्रान्ति का तेरा करिश्मा झूठ का सारांश था
तुमने जब दीवारें ढहा दीं तो छत कहाँ बाकी बची ,
वक्त की वहशी हवाएं और सर पर आसमाँ 
भूख तेरी, खेत मेरे , आढ़तें आज भी उनकी
तुमने खेतों में कॉलोनी बसा दी, रोटी कहाँ बाकी बची .
जब कभी हैरत से वह देखने लगता है तेरी समृद्धि को
तो समझ लेना क़ि उसमें गैरत कहाँ बाकी बची
." ----राजीव चतुर्वेदी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच यही है, दाग छुटाने थे, दीवार गिरा दी।