"रात की तन्हाई में नदी में डूबती कश्ती देखी कभी तुमने ?
मेरी आँखों में जलते चरागों में डूबती है रात खाली हाथ
ख्वाब है कोई नहीं अब उस हकीकत का
जो लोक लाजों के भय से दफ्न है दिल में मेरे
यह हकीकत है कि इक बरात मेरे घर पे आयेगी मुझे लेने
जो सच था वह अफ़साना मुझे अफ़सोस देता है
आंसुओं को पी यहाँ मुस्का रही हूँ मैं
और हकीकत यह भी है कि देह मेरी दे दी गयी है
फ़साना छोड़ दो यह फैसला पापा का है मेरी शादी का
मैं जाती हूँ देह रख लो
सहेज कर दहेज़ रख लो
यह घर मेरा कहाँ था ?
वह घर भी तो पराया है
तुम्हारी प्रतिष्टा का हर प्राचीर
प्यार को व्यापार बना कर खुश हुआ होगा
न दहलीज मेरी थी, यहाँ न देह मेरी थी
देह पर मेरी यहाँ कभी संस्कार काबिज था, कभी परिवार काबिज था
कभी पति था मेरा उसका अधिकार काबिज था
देह तेरी हो मगर यह रूह मेरी है
विदा होती हूँ मैं ..." ---- राजीव चतुर्वेदी
2 comments:
देह ही है पाश मेरी,
दरकती है आस मेरी।
ati sundar......
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