Tuesday, August 21, 2012

ज़रा हाथ दिखाओ, --- कहीं खंजर तो नहीं ?

"तेरी मुस्कराहट मेरी नज़रों का धोखा भी तो हो सकती है,
ज़रा हाथ दिखाओ, --- कहीं खंजर तो नहीं ?
हर बार किसी घर से निकाला है मेरे अपनों ने,
सोचता हूँ बारहा फिर वही मंजर तो नहीं ?
मैंने तो रिश्ते के पौधे भी लगाए थे यही सोच कर
इन दरख्तों के साए में कुछ अपने भी यहाँ बैठेंगे
प्यार के पौधे दरख़्त बनने से पहले ही यहाँ सूख गए ,
हौसले अब हाँफते हैं, सोचता हूँ, ---कहीं तेरे जहन की जमीन ही बंजर तो नहीं ? "
----राजीव चतुर्वेदी 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बंजर भी है, खंजर भी,
और तभी यह मंजर भी।

दिगम्बर नासवा said...

बार बार धोके खाने पे ऐसा होता है .. पर जीवन है तो विश्वास भी जरूरी है ...