Sunday, August 19, 2012

ईद को कैसे कहूं मैं अब मुबारक ?



"ईद को कैसे कहूं मैं अब मुबारक ?
खून जो फैला है सड़क पर वह भी तो मेरा ही है
जिस वतन में हो रहा है यह रमजान की रस्मों की तरह
उस देश का गुनाह है यह महज़
कि हज़रत मुहम्मद महफूज थे इस देश में उस दौर में जब यजीदी कारवाँ कोहराम करता था 

फातिमा के आंसुओं में अक्स है इंसानियत का
सूफियानो की यहाँ औलाद सुन लें और सोचें
कातिलों की यह कतारें कर रही अब अलविदा हैं
अलविदा नावाजों को...मुहम्मद के नवासों को ...अमन की हर रिवाजों को
और यह भी तो बताओ तुम हमें
होली और दीपावली की बधाई तुम कभी भी क्यों नहीं देते ?
और जब हमने आदाब कह कर अदब तुमको दिया
"जय राम जी की"... तुम्हारी जुबान से भी क्यों नहीं फूटा ?
यह माना कि तुम बन्दे हो खुदा के पर कभी बन्दे मातरम क्यों नहीं कहते ?
खौफ खाओ खुदा का, सूफियानो के न तुम वारिस बनो
जो मरे हैं माँ तो उनकी फातिमा भी है
जिन्दगी की इस कर्बला में तुम किधर हो ?
सूफियों के इस वतन में सूफियानो के सिपाही या यजीदी काफिले यह ?
ईद की कैसे कहूं मैं अब मुबारक ?
ईद की किसको कहूं मैं अब मुबारक ?
फातिमा मेरी थी तो सीता उसके पहले तेरी थी यह याद रख
इस धरा पर "गोधरा" तैने किया कह दे याजीदों से
तेरे पुरखे यहीं इस देश के ही थे, यहाँ के ख्वाब तेरे हैं, यहाँ की ख़ाक तेरी है
तू चूम ले इस देश की धरती को,--- यही है फ़र्ज़ अब तेरा
तुम कहो एक बार बन्दे मातरम मैं कहूंगा ईद तुमको हो मुबारक !!
" -----राजीव चतुर्वेदी

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी पंक्तियाँ..

विवेक मणि त्रिपाठी said...

सत्य को दर्शाती आपकी ईस कविता के लिए आपको हृदय से प्रणाम !

Shriram Tiwary said...

सर इस पोस्ट के आगे हम नतमस्तक हैं ,ज्ञानवर्धक के साथ हमें सही स्पष्ट बात भी पता चलती है जो हमारा मार्गदर्शन एक पुराने जामने के एक गुरु की तरह सही रूप से करता है|
यहाँ जो व्यंग्य किया गया है अपने आप मुख्य धरा से विमुक्त एक यथार्थ सत्य है ,जिसे हम आँख मूंदकर समझाना नहीं चाहते हैं |