"वक्त की इन सीढ़ियों पर चढ़ रही हैं
हाँफते इस दौर की दहशतज़दा सी पीढियां
रास्ते रोशन नहीं हैं आँख में
ख्वाब पलकों पे परेशान घूमते हैं रात को
सुबह के अखबार में जो दर्ज है वह दर्द किसका है ?
समेटो शब्द को,... जो पन्नो पर यों बिखरे हैं वह आंसू ही हैं मेरे
इसमें एक सहमी सी शहादत तेरी भी है,... मेरी भी
आत्मा के आकार को शरीर मत कहना
हम मर चुके हैं
जो ज़िंदा है वह शरीर है केवल
और शरीर को ज़िंदा रखने का सामान अब बिकता है दुकानों पर."
----राजीव चतुर्वेदी
1 comment:
जीवित हैं तो इतिहास का साक्षी बनना होगा..
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