Friday, September 4, 2015

और अबोधों की ये भीड़ ...



"सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?


सुना है शब्द रहते थे यहाँ पर
और उन शब्दों में पूरा एक शहर बसता था
दिन में कोलाहल सा था
कहकशाँ था शाम को
चांदनी चर्चित सी थी
मेरे हाथों का तकिया सा लगा कर रात जगती थी
सुबह सकपकाई सी सूरज की उंगली को थामे छोटे बच्चे सी
मेरे आँगन में आती थी
नादानियां शब्दों को ओढ़े फक्र करती थीं

वही अब शब्द सारे हैं
जो रहस्यों को गुनगुनाते सूनी इमारत से खामोश बैठे हैं
जिन शब्दों में सारा संसार रहता था वहीं अब सन्नाटा सिमटा है
अब शब्द बीरान से हैं ...खोखले खामोश से हैं
खोखले शब्द खनकते हैं बहुत


सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?"
----- राजीव चतुर्वेदी