"जनतंत्र की नहीं है यह लड़ाई...जनतंत्र के अपने अपने मन्त्र की भी नहीं है
यह लड़ाई...यह लड़ाई है एनार्की ( Anarchy ) यानी अराजकता से उत्पन्न
स्वेच्छाचारिता की और द्वंद्व यह कि किसकी स्वेच्छाचारिता देश को हांके.
यही वजह है कि व्यवस्था के विभिन्न अंग गुजरे कुछ सालों से एक दूसरे से
टकराते नज़र आ रहे हैं. न्यायपालिका न्याय करने की कम विधायिका की अधिक
भूमिका में नज़र आ रही है और टुकड़े -टुकड़े क़ानून बना रही है तथा क़ानून बनाने
के निर्देश जारी कर रही है. मुकदमों की विवेचना करवा रही है और शेष समय
व्यवस्था के अन्य अंगों की मुक्त कंठ से आलोचना कर रही है. इनसे कौन पूछे
कि न्याय करने की जिम्मेदारी निभा नहीं पा रहे लाखों मुकदमें लंबित हैं तो
"अपनी फजीहत, दूसरे को नसीहत" क्यों दिए जा रहे हो ? विधायिका की अपनी
स्वेच्छाचारिता है और वह इस हद तक कि एक व्यक्ति जो लोक सभा का चुनाव ही
नहीं लड़ता है वह बिना जनादेश के गुजरे आठ सालों से प्रधानमंत्री बना बैठा
है जिसके हर मंत्रालय पर गंभीर घोटालों की आरोप हैं पर हम उसका कुछ भी नहीं
बिगाड़ पा रहे. ऐसे लोग एक दूसरे से लड़ते दिखने की कला में पारंगत हैं . यह
लड़ते तो दिखते हैं पर दरअसल लड़ते कभी नहीं,--देखलो --लालू ,मुलायम , ममता ,
शिबू सोरेन , मायाबाती. यह सभी घोटाला केसरी मन मोहन सरकार बचाने के लिए
एक हैं. इस बीच मन्थराओं के समाज यानी नौकरशाही को भी देख लें जो हर
भ्रष्टाचार की नाभिकीय शक्ति है. स्वेच्छाचारिता सदीव से इसका चरित्र है और
घूसखोरी इसका जन्म सिद्ध अधिकार है. याद रहे जहाँ मंथरा (नौकरशाही) की
चलती है वहां राम (अच्छे लोगों ) को बनवास हो ही जाता है. व्यवस्था के चौथे
खम्बे यानी प्रेस की भूमिका नीरा राडिया के बाद उनकी विश्वसनीयता की सड़ी
लास सी उतरा रही है और बदबू दे रही है. पत्रकारिता में कुछ चुलबुल पांडे
और कई गुपचुप पांडे हैं. ऐसे माहौल में जनआन्दोलन के नाम पर जनतंत्र का
जनाजा निकालते NGO के वैभव से स्वयंभू नेता बने चेहरों पर भी गौर करें.
राष्ट्रीय प्रतीक भंजन का जो सिलसिला औरंगजेब के समय में हिन्दू मूर्ति
भंजन से चला था वह अभी थमा नहीं है और यह लोग थमने देना भी नहीं चाहते
क्योंकि जब राष्ट्रीय प्रतीक ही टूट जायेंगे तो राष्ट्र का ध्रुवीकरण कैसे
होगा और जब राष्ट्र का ध्रुवीकरण ही नहीं होगा तो राष्ट्र बिखर जाएगा. NGO
के माध्यम से भारत राष्ट्र को तोड़ने की यही साजिश है इसी लिए इनको अपार
विदेशी फंडिंग हो रही है. देखिये औरंगजेब ने भारत के राष्ट्रवाद को तोड़ने
के लिए हिन्दू मंदिर तोड़े....अंग्रेजों ने सभ्यता तोड़ी ...समाज को जातियों
में तोड़ा ...देश को मजहब में तोड़ा ...भाषा तोडी ....फिर भी किसी तरह जब हम
आज़ाद हो ही गए तो देश को भारत -पाकिस्तान में तोड़ा. अंग्रेज गए तो सोवियत
रूस और चीन के टुकड़ों पर पल रहे कम्यूनिस्टों के माध्यम से भारत राष्ट्र के
प्रतीक और प्रतिमान तोड़े. कम्यूनिस्टों पर अपना तो कोई देश का देसी प्रतीक
व्यक्तित्व था नहीं सो उन्होंने भगत सिंह के व्यक्तित्व को गांधी पर दे
मारा...आंबेडकर को दोनों पर दे मारा...सुभाष चन्द्र बोस को तीनो पर दे
मारा. निरर्थक की बहसों से सिर फुटौअल हुयी और देश बांटता गया परिणाम सामने
है कि आज हमारे पास देश का कोई सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व शेष ही नहीं
बचा ...न चित्र न चरित्र ...वह यही चाहते थे और आज हमारी नयी पीढी फिल्म के
रंडी -भडुओं को या खेल के लोगों को अपना हीरो मां बैठी है. जो समाज खेल को
गंभीरता में लेता है वह गंभीर चीजों को खेल में लेने को अभिशिप्त हो जाता
है. अब आज जब कोई राष्ट्रीय सर्वमान्य प्रतीक व्यक्तित्व हमारे पास शेष ही
नहीं बचा तो अब राष्ट्रीय मूर्ति भंजक अभियान की निगाहें राष्ट्रीय
प्रतीकों जैसे अशोक की लाट और भारत माता जैसी काल्पनिक किन्तु राष्ट्रवादी
अवधारणाओं को विकृत / विद्रूप करने लगीं. इसी अपनी-अपनी स्वेच्छाचारिता की
आकांक्षा का आग्रह है जनतंत्र को लोकपाल के बहाने अपनी फ़ुटबाल बनाते
केजरीबाल के आन्दोलन की. औरंगजेब के समय से चला मूर्ति भंजक अभियान अभी
जारी है...कोई कभी मुम्बई में आज़ाद मैदान में शहीद जवानो के स्मृत स्मारक
को तोड़ रहा है तो कोई अशोक की लाट के सर्वमान्य राष्ट्रीय सम्प्रभु प्रतीक
की विकृत प्रस्तुति को अपनी स्वतंत्रता बता रहा है. सावधान, आगे लोकतंत्र
का खतरनाक मोड़ है...जो लोग आज राष्ट्रीय प्रतीक तोड़
रहे हैं या उनको विकृत/ विद्रूप कर रहे हैं कल अगर उनको मौक़ा मिला तो
राष्ट्र को भी ऐसा ही विकृत /विद्रूप बना देंगे."-----राजीव चतुर्वेदी
2 comments:
saarthak aur saamayik post, aabhar.
कुछ सार्थक होने के पहले ही श्रेय न लिया जाना चाहिये।
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