"बुद्धिजीवी और बुद्धिखोर का अंतर ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की अंतरकथा है.
इसके बीच से जाती है पत्रकारिता की पगडंडी. चूंकि पत्रकारिता बाजार है सो
बाजार का आचरण और बाजार का व्याकरण लागू होना ही था, सो होगया. जब
पत्रकारिता बाजार में है तो बिकाऊ होगी ही. ऐसे में सच दो प्रकार का हो
जाता है, एक --बिकाऊ सच और दूसरा टिकाऊ सच . टिकाऊ सच वाले बुद्धिजीवी कहे
जाने के हकदार हैं और बिकाऊ सच गढ़ने और मढने वाले बुद्धिखोर. आज राजनीति
और नौकरशाही में हरामखोर तथा पत्रकारिता में बुद्धिखोर
प्रचुर मात्रा में हैं--एक खोजो हजार मिलते हैं. मांग से ज्यादा आपूर्ति
है इसलिए इन हरामखोरों और बुद्धिखोरों का बाजार भाव गिर गया है. पत्रकारिता
में किसी विचारधारा को चिन्हित कर प्रसार संख्या बढाने का हथकंडा उतना ही
पुराना है जितनी हमारी आजादी. जैसे ही देश में समाजवादी विचारधारा का उदय
हुआ याद करें पत्रकारिता के क्षेत्र में "दिनमान" नामक समाचार पत्रिका ने
दस्तक दी. अनजाने में समाजवादी विचारधारा ने दिनमान के होकर का काम किया और
दोनों ही खूब चलीं. फिर समाजवादी विचारधारा का लोहिया की मृत्यु के बाद
पराभव हुआ तो दिनमान भी बंद हो गयी. १९७७ में कोंग्रेस विरोधी लहर पर सवार
हो कर ई समाचार पत्रिका "माया" को याद करें. ग़ैर कोंग्रेसवाद के प्रथम दौर
का खात्मा वीपी सिंह से मोहभंग के साथ ही हो गया सो माया भी बंद हो गयी.
इस बीच अंग्रेजी में सन्डे और हिन्दी में रविवार आयीं किन्तु ग़ैर
कोग्रेसवाद की नकारात्मक विचारधारा के पतन के साथ इनका भी प्रकाशन बंद हो
गया किन्तु इस बीच इंडियन एक्सप्रेस प्रकाशन ने हिन्दी में जनसत्ता का
प्रकाशन किया यह उस कालखंड की घटना थी जब इन्द्रा गांधी की ह्त्या हुई थी
और फिर राजीव गांधी विराट बहुमत हासिल कर प्रधानमंत्री बने थे लेकिन दिल्ली
की नाक के नीचे हरियाणा में देवीलाल ने ग़ैर कोंग्रेसवाद का झंडा फहरा कर
सरकार बना ली. जब जनता दल की सरकार बनने जा रही थी तब वीपीसिंह और चन्द्र
शेखर के बीच कौन प्रधानमंत्री बनेगा यह द्वंद्व हुआ. ऐसे में शक्ति संतुलन
के पासंग देवी लाल थे और देवी लाल को रहस्यमय तरीके से चन्द्र शेखर से
विश्वासघात करके वीपी सिंह की तरफ करने का मायाबी काम किसी राजनैतिक
व्यक्ति ने नहीं किया था बल्कि जनसत्ता के प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी ने
किया था. क्या यह राजनैतिक धड़ेबाजी पत्रकारिता का काम था या पत्रकारिता
में लाइजनिंग जैसी विधाओं का घालमेल ? खैर ग़ैर कोंग्रेसवाद के अवसान के
साथ ही जनसत्ता भी ख़त्म होगया और प्रभाष जोशी राज्य सभा में येन केन
प्रकारेण पहुँचने की अभिलाषा लिए प्रखर और प्रतापी पत्रकार का संतापी
स्वरूप लेकर दिवंगत हो गए. आपातकाल की प्रेस सेंसरशिप (१९७५-७७ ), फिर
राजीव गांधी का मानहानि विधेयक (१९८४-८५) और अब मन मोहन सिंह का सोसल साईट
सेंसर का प्रयास लोगों को यह दलील देता है कि प्रेस की स्वतंत्रता पर तीनो
बार कोंग्रेस के समय ही हमला किया गया पर यह अर्ध सत्य है. क्या समाजवादी
मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश में प्रेस पर हल्लाबोल नहीं किया था ?
क्या कांसी राम ने लखनऊ में दैनिक जागरण पर हमला नहीं किया था ? क्या ममता
बनर्जी प्अभिव्यक्ति की आजादी बर्दाश्त करती हैं ? क्या कारगिल युद्ध के
बाद ताबूत घोटाले के आक्षेपों से क्षुब्ध अटल सरकार ने प्रेस पर दबाव नहीं
बनाया था ? इस परिदृश्य में पत्रकारिता में बुद्धिजीवी लुप्तप्राय प्रजाति
है और बुद्धिखोर उपलब्धप्राय प्रजाति. यह बुद्धिखोर पत्रकार ख्याति पाने
के लिए विवाद का मवाद बनने की जुगत लगा ही लेते हैं. अन्ना आन्दोलन इसका
ताजा उदाहरण है. कई बुद्धिखोर अपने बिलों से निलाल पड़े और देश में क्रान्ति
के कुटीर उद्योग ही चल पड़े. प्यार की ईलू -ईलू कवितायें लिखने वाले कुमार
विश्वास क्रान्ति के स्वयंभू प्रवक्ता हो गए और कवि सम्मलेन में उनकी
दिहाड़ी बढ़ गयी इस प्रकार एक विचारधारा पर चढ़ कर वह बाजार के कीमती कवि और
सफल बुद्धिखोर हो गए. असीम त्रिवेदी भी छः माह पहले तक देश में ढंग से
नहीं जाने जाते थे पर आज वह चर्चा की गुलेल पर सवार हैं. पर सवाल है क्या
बाजारू हथकंडे से राष्ट्रीय प्रतीकों से खेला जा सकता है ? क्या राष्ट्रीय
प्रतीक हमारा खिलौना हैं या उनका सार्वभौमिक सम्मान हम सभी की संवैधानिक
वाध्यता है ? क्या सपा नेता आज़म खान द्वारा भारत माता को डायन कहना जायज
था ? ...क्या कश्मीर में तिरंगा झंडा अलगावबादीयों द्वारा सडक पर जूतों से
कुचला जाना जायज था ? क्या कहीं भारतीय संविधान को जलाया जाना जायज है ?
--अगर नहीं तो फिर किसी कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी द्वारा भारतीय
सम्प्र्क़भुता के प्रतीक चिन्ह अशोक की लाट के शेरों के मुह को कुत्ते का
मुह बना कर प्रस्तुत करना भला कैसे जायज है ? आप राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों
को कुरूप भला कैसे कर सकते हैं ? यह सही है कि अन्ना के आन्दोलन को उकेरते
हुए असीम अच्छे सम्प्र्षित करने वाले कार्टून बना रहे थे पर यह भी सही है
कि इसी अतिरेक में उन्हें अपनी सीमाओं का ध्यान नहीं रहा और मर्यादा का
उलंघन कर बैठे. स्वतन्त्रता और स्वच्छंदता में अंतर होता है. व्यंग
व्यवस्था पर होना चाहिए अव्यवस्था का प्रतिपादक नहीं. यहाँ Facebook पर
अभिषेक तिवारी (राजस्थान पत्रिका ) ,श्याम जगोटा और श्री कुरील बहुत ही
पैनी अभिव्यक्ति के व्यंग चित्र बना रहे हैं. व्यंग व्यवस्था के स्वरुप को
बरकरार रखने के लिए हो तो आग्रह है और व्यवस्था को कुरूप बनाता तो तो
दुराग्रह .व्यंगों की भी एक आचार संहिता तो है ही." ----राजीव चतुर्वेदी
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