Wednesday, March 20, 2013

दारू एक कालजयी,धर्म निरपेक्ष,पतित पावन पेय है

"यद्यपि मैं दारू के स्वाद से अभी तक वंचित हूँ ...यह मेरे पुरखों का संस्कार था या अभिशाप मुझे क्या मालुम ? ...लेकिन यह तय है कि दारू एक समाजवादी कालजयी पतित पावन पेय है ...देवता हों या दानव सभी इसको पी कर टुन्न रहते थे ...सुर सुरा पीते थे ...ससुरे पियक्कड़ ...मौलवी जी बताते हैं कि दारू पीना हराम है तो अपने मजहब के हरामियों की संख्या भी गिन लें वैसे उनको शायद यह नहीं पता कि "अल -कोहल" अरबी का मूल शब्द है ...ताजा शोध से पता चला है की एक व्यक्ति एक साल में 1500 किलोमीटर चल लेता है और 83 लीटर दारू पीता है यानी हम दारू पी कर 18 किलोमीटर /लिटर का माइलेज देते हैं ... अजीब तासीर है इस दिव्य पेय की कि पीने वाले के मुंह में बबासीर हो जाता है ...जो देसी पीता है वह देशी गालियाँ बकता है और जो अंगरेजी पीता है वह अंगरेजी गालियाँ बकता है ...दारू रिश्तों में रिरियाती है पर रिश्वत का सबसे कारगर उपाय है ...दारू गांधी के मद्य निषेध के नारे की कब से हवा निकाल चुकी है और सरकारी आय का बड़ा माध्यम है...दूध /जूस की दुकानों पर सन्नाटा है और दारू की दूकान पर भीड़ ...दारू की दूकान कैसी भी हो वास्तु शास्त्र इसके आगे नतमस्तक है ...उत्तर मुखी हो दक्षिण मुखी पर मालिक सुखी है और आबाद है   ...एक किस्सा है --मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक मौलवी को चुनौती दी -- "गर है हिम्मत तो मस्जिद हिला के देख ...वरना आ मेरे पास ...थोड़ी पी और हिलती हुयी मस्जिद देख ." ...ईसा के अनुयाईयों ने भी खूब दारू पी और पिलाई और तमाम मोनालिसा की रोती सूरत उन्हें मुस्कुराती नज़र आयी ...वैसे ठेके पर ठर्रा जिसने चढ़ाई उसको नाली भी संगम या आब -ए -जमजम नज़र आयी ...इसीलिए कहता हूँ दारू एक समाजवादी कालजयी धर्म निरपेक्ष पतित पावन पेय है ." -----राजीव चतुर्वेदी



1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

ठीक वैसे ही जैसे अँधेरा सबको बराबर कर देता है..