Sunday, August 31, 2014

प्रेम की प्रमेय



"प्यार ...इस सरल से शब्द को इतना रहस्यमय क्यों बना दिया ? प्यार सृजन का कारक है ...प्रकृति है ...प्रवृति है ...और इससे विमुख होना विकृति है ...हम जिस प्रक्रिया से पैदा हुए ...राम ,कृष्ण,नानक,ईसा, बुद्ध,मोहम्मद जिस प्रक्रिया से पैदा हुए भला वह बुरा काम कैसे हो सकती है ? सभी सम्प्रदायों के सभी भगवान् प्यार की पैदाइश थे और गृहथ आश्रम से आये थे...हमारे ऋषि /मुनि प्यार पर ऐतराज़ की चूक कर बैठे ...संसर्ग के सामाजिक सिद्धांत निह्सर्ग में प्रतिपादित करने के प्रयोग हुए ...असफल रहे ...सृजन निर्जन में जा कर स्तब्ध था ...संस्कृति में विकृति आयी...राष्ट्र गुलामी की सैकड़ों साल गहरी गुफा में घुस गया ...पतन हो गया । प्यार एक देवीय प्रसाद है ...प्यार एक आत्मिक घटना है इसलिए आध्यात्मिक घटना है ...प्यार का विकिरण होता है संक्रमण नहीं ... प्यार को विकिरण का सन्देश देना पड़ता है ...वनस्पति कीड़े मकोड़ों तितली भौरों के माध्यम से, सुगंध से, मकरंद से प्यार का इज़हार करती हैं ...पराग कणों का प्रसार करती हैं सृजन के लिए । मानव प्रकृति का चरम है ...यह अलग अलग अंगों से अलग अलग प्रकार के प्यार का इज़हार करता है ...नृत्य इसी को कहते हैं ...प्यार एक नितांत सांस्कृतिक घटना है ...मोर खुले आम नाचता है और आप छिप कर नाचते हो यहीं चूक कर जाते हो ...आत्म प्रताड़ना से गुजरते हुए विकृति का शिकार होते हो . प्यार प्रवृति है ...प्रकृति का पुरुष्कार है ।"----- राजीव चतुर्वेदी

(
  "प्रेम क्या है..?" 
लाओत्से ----------
प्रेम एक ध्यान है
जिस में केन्द्रित हो जाओ.!
"प्रेम क्या है...?"
गौतम बुध---------
प्रेम एक
साक्षी भाव है दर्पण है..!
"प्रेम क्या है...?"
सुकरात-----------
प्रेम द्वार है
नए जीवन में जाने का.!
"प्रेम क्या है...?"
हिटलर------------
प्रेम एक एसा युद्ध है
जो भाव से जीता जाये.!
"प्रेम क्या है...?"
कृष्ण-------------
प्रेम तो समर्पण है
भक्ति है रम जाओ..!
"प्रेम क्या है...?"
ज़ीज़स------------
प्रेम एक रास्ता है जो
सुख की अनुभूति देता है..!
"प्रेम क्या है...?"
नीत्से-------------
प्रेम वो रस है
जो नीरस है
पर मीठा लगता है..!
"प्रेम क्या है...?"
मीरा -------------
प्रेम तो गीत है
मधुर आत्मा से गाये जाओ.!
"प्रेम क्या है...?"
  फ्रायड ------------
प्रेम वो स्थति है
जिस में अहम् मिट जाता है.!
"प्रेम क्या है...?"
ग़ालिब-----------
वो मदिरा है
जो नशा देती है
और दीवाना बना देती है.!
"प्रेम क्या ह...?"
हिप्पी लोग--------
प्रेम तो किये जाओ बस किये जाओ
अंत नहीं...!
"प्रेम क्या है...?"
सूरदास-----------
प्रेम एक एहसास है
जो ह्रदय को
ख़ुशी से भर देता है..!
"प्रेम क्या है...?"
ओशो-------------
तुम ही प्रेम हो
तुम प्रेम ही हो जाओ
तुम प्रेम में
दो होकर भी एक हो..!
"प्रेम क्या है...?"
पंतजलि-----------
प्रेम वो योग है
जो ह्रदय से उठ कर
भाव में बदलता है..!
"प्रेम क्या है...?"
विज्ञानं भैरव-------
प्रेम तंत्र है
दो आत्माओ को
एक सूत्र में बांधता है.!
"प्रेम क्या है...?"
मायाजाल---------
प्रेम वो मायाजाल है
जो हर मोह को त्याग देता है.!
"प्रेम क्या है...?"
गीता-------------
प्रेम परिभाषा है
खुद को स्वयं को
भाषित करने की...
!! )







"कृष्ण उस प्यार की समग्र परिभाषा है जिसमें मोह भी शामिल है ...नेह भी शामिल है ,स्नेह भी शामिल है और देह भी शामिल है ...कृष्ण का अर्थ है कर्षण यानी खीचना यानी आकर्षण और मोह तथा सम्मोहन का मोहन भी तो कृष्ण है ...वह प्रवृति से प्यार करता है ...वह प्राकृत से प्यार करता है ...गाय से ..पहाड़ से ..मोर से ...नदियों के छोर से प्यार करता है ...वह भौतिक चीजो से प्यार नहीं करता ...वह जननी (देवकी ) को छोड़ता है ...जमीन छोड़ता है ...जरूरत छोड़ता है ...जागीर छोड़ता है ...जिन्दगी छोड़ता है ...पर भावना के पटल पर उसकी अटलता देखिये --- वह माँ यशोदा को नहीं छोड़ता ...देवकी को विपत्ति में नहीं छोड़ता ...सुदामा को गरीबी में नहीं छोड़ता ...युद्ध में अर्जुन को नहीं छोड़ता ...वह शर्तों के परे सत्य के साथ खडा हो जाता है टूटे रथ का पहिया उठाये आख़िरी और पहले हथियार की तरह ...उसके प्यार में मोह है ,स्नेह है,संकल्प है, साधना है, आराधना है, उपासना है पर वासना नहीं है . वह अपनी प्रेमिका को आराध्य मानता है और इसी लिए "राध्य" (अपभ्रंश में हम राधा कहते हैं ) कह कर पुकारता है ...उसके प्यार में सत्य है सत्यभामा का ...उसके प्यार में संगीत है ...उसके प्यार में प्रीति है ...उसके प्यार में देह दहलीज पर टिकी हुई वासना नहीं है ...प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति इसी लिए वासना वैश्यावृत्ति है . जो इस बात को समझते हैं उनके लिए वेलेंटाइन डे के क्या माने ? अपनी माँ से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपने मित्र से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी बहन से प्यार करो कृष्ण की तरह ...अपनी प्रेमिका से प्यार करो कृष्ण की तरह ... .प्यार उपासना है वासना नहीं ...उपासना प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति है और वासना देह की भौतिक अनुभूति ." ----राजीव चतुर्वेदी

( एक परिकल्पना यह भी ----
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स्वर्ग में विचरण करते हुए अचानक एक दूसरे के सामने आ गए विचलित से कृष्ण और प्रसन्नचित सी राधा...
कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्कुराई
इससे पहले कृष्ण कुछ कहते राधा बोल उठीं --- "कैसे हो द्वारकाधीश ??"
… जो राधा उन्हें कान्हा-कान्हा कह के बुलाती थी.. उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया.. फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया और बोले राधा से ... "मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ तुम तो द्वारकाधीश मत कहो! आओ बैठते हैं .... कुछ मैं अपनी कहता हूँ कुछ तुम अपनी कहो... सच कहूँ राधा जब-जब भी तुम्हारी याद आती थी इन आँखों से आँसुओं की बूंदे निकल आती थीं..."
बोली राधा - "मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा, क्यूंकि हम तुम्हें कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते ?... इन आँखों में सदा तुम रहते थे … कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ... इसलिए रोते भी नहीं थे.. प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया... इसका एक आइना दिखाऊं आपको ? कुछ कड़वे सच, प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊं? कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए ?... यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुंच गए ? एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया और दसों उँगलियों पर चलने वाली बांसुरी को भूल गए ? कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो .... जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी... प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली क्या-क्या रंग दिखाने लगी ? सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी... कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ ? कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता... युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं .. कान्हा के प्रेम में डूबा हुआ आदमी दुखी तो रह सकता है पर किसी को दुःख नहीं देता.. आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा हो गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो.. पर आपने क्या निर्णय किया अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी? और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ? सेना तो आपकी प्रजा थी राजा तो पालक होता है उसका रक्षक होता है आप जैसा महाज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था … अपनी प्रजा को मरते देख आपमें करूणा नहीं जगी ? क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे आज भी धरती पर जाकर देखो अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को ढूंढते रह जाओगे हर घर हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे आज भी मै मानती हूँ लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं उनके महत्व की बात करते है मगर धरती के लोग युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं गीता में मेरा दूर- दूर तक नाम भी नहीं है, पर आज भी लोग उसके समापन पर "राधे राधे" करते हैं
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"मीरा ...जब भी सोचने लगता हूँ बेहद भटकने लगता हूँ ...मीरा प्रेम की व्याख्या है प्रेम से शुरू और प्रेम पर ही ख़त्म ...प्रेम के सिवा और कहीं जाती ही नहीं. वह कृष्ण से प्यार करती है तो करती है ...ऐलानिया ...औरों की तरह छिपाती नहीं घोषणा करती है ...चीख चीख कर ...गा -गा कर ...उस पर देने को कुछ भी नहीं है सिवा निष्ठां के और पाना कुछ चाहती ही नहीं उसके लिए प्यार अर्पण है , प्यार तर्पण है , प्यार समर्पण है , प्यार संकल्प है ...प्यार विकल्प नहीं ...मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं है वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह , न सुविधा , न वैभव , न देह , न वासना केवल उपासना ...उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए ...मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए .मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है . मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता . वह भी मीरा की भावना . मीरा को कृष्ण से कुछ भी नहीं चाहिए ...न भौतिकता और न भावना , न देह ,न स्नेह , न वासना ...मीरा के प्रेम में देना ही देना है पाना कुछ भी नहीं . मीरा के प्यार की परिधि में न राजनीती है, न अर्थशास्त्र न समाज शास्त्र . मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण . मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है ...मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं . जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे ... वह लोग भौतिक हैं ...दहेज़ ,गहने , वैभव , देह सभी कुछ भौतिक है इसमें भावना कहाँ ? प्यार कहाँ ? वासना भरपूर है पर परस्पर उपासना कहाँ ? देह के मामले में Give & Take के रिश्ते हैं ...तुझसे मुझे और मुझसे तुझे क्या मिला ? --- बस इसके रिश्ते हैं और मीरा व्यापार नहीं जानती उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए ...कृष्ण से भी नहीं ...कृष्ण अपना वैभव , राजपाठ , ऐश्वर्य , भाग्वाद्ता , धन दौलत , ख्याति , कृपा ,प्यार, देह सब अपने पास रख लें ...कृष्ण पर मीरा को देने को कुछ नहीं है और मीरा पर देने को बहुत कुछ है विशुद्ध, बिना किसी योग क्षेम के शर्त रहित शुद्ध प्यार ...मीरा दे रही है , कृष्ण ले रहा है .--- याद रहे देने वाला सदैव बड़ा और लेने वाला सदैव छोटा होता है ....कृष्ण प्यार ले रहे हैं इस लिए इस प्रसंग में मीरा से छोटे हैं और मीरा दे रही है इस लिए इस प्रसंग में कृष्ण से बड़ी है . उपभोक्ता को कृतग्य होना ही होगा ...उपभोक्ता को ऋणी होना ही होगा कृष्ण मीरा के प्यार के उपभोक्ता है उपभोक्ता छोटा होता है और मीरा "प्यार" की उत्पादक है . मीरा को जानते ही समझ में आ जाएगा कि "प्यार " भौतिक नहीं विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है . यह तुम्हारे हीरे के नेकलेस , यह हार , यह अंगूठी , यह कार , यह उपहार सब बेकार यह प्यार की मरीचिका है . भौतिक है और प्यार भौतिक हो ही नहीं सकता ...प्यार केवल देना है ...देना है ...और देना है ...पाना कुछ भी नहीं . ---मीरा को प्रणाम !!" ----- राजीव चतुर्वेदी

"शरद पूर्णिमा ... कृष्ण की महारास लीला ...शरद ऋतु का प्रारम्भ होते ही प्रकृति परमेश्वर के साथ नृत्य कर उठाती है एक निर्धारित लय और ताल से ...त्रेता यानी राम के युग की मर्यादा रीति और परम्पराओं में द्वापर में परिमार्जन होता है ...स्त्री उपेक्षा से बाहर निकलती है ...द्वापर में कृष्ण सामाजिक क्रान्ति करते हैं फलस्वरूप स्त्री -पुरुष के समान्तर कंधे से कन्धा मिला कर खड़ी हो जाती है ...स्त्री पुरुष के बीच शोषण के नहीं आकर्षण के रिश्ते शुरू होते है ..."कृष" का अर्थ है खींचना कर्षण का आकर्षणजनित अपनी और खिंचाव ...द्वापर में जिस नायक पर सामाजिक शक्तियों का ध्रुवीकरण होता है ...जो व्यक्ति कभी सयास और कभी अनायास स्त्री और पुरुषों को अपनी और खींचता है ...सामाजिक शक्तियों का कर्षण करता है कृष्ण कहलाता है ....शरद पूर्णिमा पर खगोल के नक्षत्र नाच उठते हैं ...राशियाँ नाच उठती है और राशियों के इस लयात्मक परिवर्तन को ...राशियों के इस नृत्य को "रास " कहते हैं ...खगोल में राशियों का नृत्य अनायास यानी "रास" और भूगोल में इन राशियों के प्रभाव से प्रकृति का आकर्षण और परमेश्वर का अतिक्रमण वह संकर संक्रमण है जो सृजन करता है ...दुर्गाष्टमी के विसृजन के बाद पुनः नवनिर्माण नव सृजन का संयोग . कृष्ण स्त्री -पुरुष संबंधों को शोषणविहीन सहज सामान और भोग के स्तर पर भी सम यानी सम्भोग (सम +भोग ) मानते थे ...जब खगोल में राशियाँ नृत्य करती हैं और रास होता है ...जब भूगोल में प्रकृति परमेश्वर से मिलने को उद्यत होती है ...जब फूल खिल उठते हैं ...जब तितलियाँ नज़र आने लगती हैं ...जब रात से सुबह तक समीर शरीर को छू कर सिहरन पैदा करता है ...जब युवाओं की तरुणाई अंगड़ाई लेती है तब कृष्ण का समाज भी आह्लाद में नृत्य कर उठता है ...खगोल में राशियों के रास यानी कक्षा में नृत्य के साथ भूगोल भी नृत्य करता है और उस भूगोल की त्वरा को आत्मसात करने की आकांक्षा लिए समाज भी नृत्य करता है ...खगोल में राशियों के नृत्य को रास कहते हैं ...राशियाँ नृत्य करती हैं धरती नृत्य करती है ...अपने अक्ष पर घूमती भी है ...चंद्रमा , शुक्र ,मंगल , बुध शनि ,बृहस्पति आदि राशियाँ घूमती हैं , नृत्य करती हैं ...धरती घूमती है और नाचती भी ...खगोल और भूगोल नृत्य करता है ...और उससे प्रभावित प्रकृति भी ...खगोल ,भूगोल और भूगोल पर प्रकृति नृत्य करती है राशियों की त्वरा (फ्रिक्येंसी ) पर नृत यानी रास करती है ...सभी राशियों के अपने अपने ध्रुव हैं ...ध्रुवीकरण हैं ...भौगोलिक ही नहीं सामाजिक ध्रुवीकरण भी हैं ...द्वापर में यह ध्रुवीकरण जिस नायक पर होता है उसे कृष्ण कहते हैं ...और खगोल से भूगोल तक राशियों से प्रभावित लोग कृष्ण को केंद्र मान कर रास करते हैं ." ------- राजीव चतुर्वेदी



"प्रेम क्या है ? क्या प्रेम एक दैहिक अभिव्यक्ति है या इसमें कुछ आत्मिक भी है ? क्या प्रेम भावनाओं की भौतिक अभिव्यक्ति को कहते हैं ? क्या प्रेम के लिए देह जरूरी है ? क्या हैं इसकी परिधियाँ और प्रकार ? यह सवाल किसी न किसी रूप में सभ्यता के आड़े आते ही रहे हैं .
प्रेम एक नितांत दैहिक गतिविधि है ...इसकी प्रकारांतर में पराकाष्ठा आत्मिक होती है ...आपको प्यार करने के लिए एक देह की जरूरत होती है वह देह कभी बेटे /बेटी की होती है ...कभी माता /पिता की ...कभी बहन /भाई की ...कभी दो बहनों /दो भाई की ...कभी पति /पत्नी की ...कभी प्रेमी /प्रेमिका की ....सभी रिश्तों का पता कोई देह ही तो होती है . दरअसल देह ही तो आत्मा के निवास स्थल का पता है ...प्रायः प्यार पंहुचना तो आत्मा तक चाहता है पर आत्मा के निवास देह तक आते आते इतना दुरूह रास्ता तय कर चुका होता है कि देह पर पंहुच कर ठहर जाता है ...सुस्ताने लगता है . निश्चित ही प्रेम भावनाओं की भौतिक अभिव्यक्ति है . प्यार की अभिव्यक्ति के लिए शारीरिक हाव-भाव और गतिविधि होती ही है ....शरीर भावनाओं पर नृत्य करता है ....पिता बेटी के सिर पर हाथ फेरता है और प्रेमी प्रेमिका के सिर पर भी हाथ फेरता है ...प्रेम की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति नितांत शारीरिक है ...स्पर्श की इच्छा आकान्क्षा होना स्वाभाविक शर्त है
प्रेम में आप अपने आपको दे देते हैं और पाते भी हैं ...पाते हैं अपने ही प्यार का प्रतिविम्ब ...जब वह मिलता है तो उसे प्रेम का प्रसाद समझते हैं और जब नहीं मिलता तो अवसाद . इस प्रेम के प्रसाद और अवसाद के बीच प्रेम का पूरा इंद्र धनुष है . प्रेम उभय पक्षीय होता है तो विनिमय होता है भावनाओं का विनिमय होता है और तदनुसार देह आकार लेती है अभिव्यक्ति देती है . जननांगों से उपजे और चले रिश्ते जैसे माँ /पिता -बेटे/बेटी ,भाई /बहन आदि चूंकि जननांगों से यात्रा प्रारम्भ करते हैं अतः भावनाओं की ओर चलते हैं और पति /पत्नी /प्रेमी /प्रेमिका के रिश्ते भावनाओं से यात्रा प्रारंभ करते है अतः जननागों तक पंहुचते हैं . प्रेम की यह यात्रा पूरी ही करनी होती है या तो जननांगों से शुरू कर भावना के छोर तक पंहुचें या फिर भावना से शुरू कर जननांगों के छोर तक पंहुचें ...सभी सांसारिक रिश्तों की यही यात्रा है ...जो करनी ही होती है ...सभी रिश्ते जननांगों के रिश्ते है उसके रस्ते जो भी हों ...आप भावना से चल कर जननांगों तक पंहुचे हों जैसे पति /पत्नी /प्रेमी /प्रेमिका /सास /बहू /देवर /भाभी या फिर जननांगों से चल कर भावना की यात्रा पर माँ /बेटे /बेटी /भाई/बहन के परस्पर रिश्ते .
"सोच कर तो रूह के रस्ते पर चला था ,
देह की दीवार से टकरा गया मैं ." ---- राजीव चतुर्वेदी
"स्त्री और पुरुष के बीच परस्पर प्राकृतिक आकर्षण के सम्बन्ध रहे हैं . आदिम युग में आकर्षण नहीं एक पक्षीय अतिक्रमण होता था ...देवता सुन्दर कन्याओं को देख कर और कुछ नहीं बस पुत्रवती होने का आशीर्वाद ही देते थे...वर्जन मैरी कुमारी (अविवाहित ) माँ थीं तो मोहम्मद की महिलाओं के प्रति हरकतें ठीक नहीं थीं . ...सभ्यता का क्रमशः विकास हुआ ...धार्मिक कानूनों की जगह सभी समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप समतावादी क़ानून आये ....स्त्री पुरुष के उपभोग की चीज यानी "भोग्या" नहीं रही ...अब स्त्री पुरुष के परस्पर आकर्षणजन्य दैहिक सम्बन्धों को "उपभोग " या "विषय भोग " नहीं "सम्भोग" कहा जाने लगा यानी "भोग की समता" ...यानी राग इधर भी हो उधर भी ...आग इधर भी हो उधर भी . इसके लिए जरूरी थे स्त्री -पुरुष के सामंजस्यपूर्ण रिश्ते ...आकर्षण पैदा करने के नैतिक और भौतिक अवसर .---- क्या हैं ? आज स्त्री और पुरुष परस्पर आकर्षण के अवसरों की तलाश में नहीं एक द्वंद्व में शामिल हैं .... देश के कथित बुद्धिजीवियों ने , व्यथित महिला आंदोलनों ने और पतित पत्रकारों ने स्त्री -पुरुष सामंजस्य और स्वाभाविक आकर्षण की जगह "लिंग युद्ध " यानी Gender War शुरू कर दी . ...स्त्री -पुरुष के बीच परस्पर आकर्षण का वातावरण असंतुलित होने लगा ...."सम्भोग " के लिए आवश्यक स्त्री -पुरुष "समता " जाती रही आदिम युग का स्त्री "उपभोग" चालू हुआ ...स्त्री -पुरुष के बीच लिंग युद्ध यानी gender war की शुरूआत हो चुकी थी ...परस्पर आकर्षण की जगह परस्पर आक्रामकता आ चुकी थी ...समाज में प्रणय निवेदन की जगह प्रणय अतिक्रमण होने लगे " ...आ मेरी गाडी में बैठ जा ..." हन्नी सिंह और टेम्पू -टेक्सी में चीखते भोजपुरी गाने प्रणय निवेदन की जगह प्रणय अतिक्रमण का प्रचार कर रहे थे ...वातावरण बन चुका था ...लिंग युद्ध यानी gender war की रणभेरी गली-गली पूरी गलाजत से गूँज रही थी ...परस्पर आकर्षण और 'सम्भोग' के समीकरण बदल चुके थे अब फिरसे अतिक्रमण और 'उपभोग' की शुरूआत थी . ---- हर बलात्कार की घटना इसका शुरूआती सामाजिक संकेत है . याद रहे पुलिस की भूमिका बलात्कार के बाद शुरू होती है और समाज की भूमिका बलात्कार के पहले, बहुत पहले शुरू हो जाती है . पुलिस को कोसने के पहले हम समाज को क्यों नहीं कोसते ? हम बलात्कार की इन घटनाओं की आड़ में लिंग युद्ध को बढ़ावा न दें ...लिंग युद्ध यानी gender war के कारण ही पुरुष अतिक्रमण बढ़ रहा है जिसका संकेत हैं बलात्कार की बढ़ती वीभत्स घटनाएं ...हमको स्त्री -पुरुष के बीच परस्पर आकर्षण के अवसर और वातावरण को बढ़ाना होगा ताकि प्रणय अतिक्रमण नहीं प्रणय आग्रह हो ." ------ राजीव चतुर्वेदी


3 comments:

Vansh Mishra said...

प्रेम के प्रमेय...रूहानी..अद्भुत...मर्मस्पर्शी..!!!

Priyanka said...

अद्भुत

Unknown said...

बहुत सुंदर, अद्भुत । धन्यवाद 🙏