"संस्कृतियों में सांस्कृतिक युद्ध जब होता है तो उसे
शास्त्रार्थ कहते हैं ...संस्कृतियों में जब सतही वैचारिक युद्ध होता है तो
वह बहस होती है ...संस्कृति एक निरंतर संशोधनरत सलीके से जीने के आविष्कार
करती जीवन पद्धति है और राजनीति इसका हिस्सा होती है ...पर शातिर लोग इसका
उलटा कर राजनीति का हिस्सा संस्कृति को बना लेते है ...संस्कृति जब तक
जीवन और आचरण का व्याकरण बनी रहती है मानव कल्याण के प्रयोग होते रहते हैं
किन्तु संस्कृति जब जीवन और आचरण का व्याकरण न रह कर राजनीति का उपकरण बनती
है तो हिंसक युद्ध होते हैं ...इसका परिणाम और प्रमाण एशिया का सांस्कृतिक
/राजनीतिक पटल है ...धार्मिक या यों कहें क़ि सांस्कृतिक रूप से एशिया पूरे
विश्व पर राज्य कर रहा है फिर चाहे भारतीय भूभाग से उत्पन्न सनातन धर्म हो
या आर्य समाज या बुद्ध धर्म अथवा यरुसलम से शुरू हुआ ईसा मसीह द्वारा
प्रतिपादित ईसाई धर्म हो या इस्लाम या यहूदी ...पर विडंबना यही क़ि
संस्कृति/ धर्म जीवन का व्याकरण न हो कर राजनीति का उपकरण बन गयी ...धर्म
साधना नहीं राजनीति का साधन बन गया और फिर वही हुआ जो होना था --"युद्ध"
...प्रबुद्ध युद्ध करने लगे और प्रयोग हुआ आम आदमी ...होना चाहिए था
क़त्ल-ए-ख़ास पर हुआ क़त्ल -ए -आम ...काबुल-कंधार से कुछ सौ मुसलमान आये और
सत्ता के लिए भारतीय संस्कृत पर हमला बोल दिया . पंडितों की शिखा
/यज्ञोपवीत उखाड़ कर ले गए , ठाकुर साहब की मूंछें उखाड़ ले गए, हजारों मंदिर
तोड़ गए ...इस्लाम वह धर्म था जिसकी प्राथमिकता "दारुल हरब " यानी इस्लाम
का राज्य स्थापित करने की मंशा थी ... इसके बाद इस संस्कृति और राजनीति के
संकर संस्करण पर ईसाईयों ने हमला बोला तो वह मुल्लों की दाढी उखाड़ ले गए
...उधर येरुसलम में भी यहूदियों ने इस्लाम के मुल्लों को पीट पीट कर पीला
कर दिया ...यह धर्म को राजनीति का उपकरण बनाने की विभीषिका थी ." ----राजीव
चतुर्वेदी
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