Friday, October 24, 2014

( यह महज कवितायें नहीं एक लड़की की क्रमगत वेदना के विकास का विमर्श है )

( यह महज कवितायें नहीं एक लड़की की क्रमगत वेदना के विकास का विमर्श है  )

--- मैं एक लडकी थी ...करती भी क्या ? ---

"मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
गुड़िया के बर्तन मांजे थे फिर 
घर के बर्तन भी माँजे 
करती भी क्या ?
शोषण पोषण के शब्द खदकते थे मन में
मैंने भी सब्जी के साथ उबाले हैं कितने
वह प्यार खनकते शब्दों सा खो गया कहीं खामोशी से, फिर मिला नहीं 
"ममता-समता" की बात शब्दकोषों तक से पूछी बार-बार
विश्वास नहीं होता था रिश्तों का सच कुछ सहमा, कुछ आशंकित सा
शब्दकोषों से कोसों दूर खड़ा है क्यों ? 
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
काबलियत और कातिल निगाहों की निगहबानी में
रास्ते तो थे भीड़ भरे पर उसमें मेरी राह बियावान थी
गिद्धों की निगाहें और
उससे छलकती शिकार के प्रति शुभकामना भी मेरे साथ थी
सहानुभूति का चुगा जब कभी खाया तो
बार बार लगातार उसका कर्ज भी चुकाया
और जब नहीं खाया तो  खिसियाया शिकारी सा हर रिश्ता नज़र आया
मुझे सच में नहीं पता कि मैं किसी प्रेम का उत्पाद थी 
या प्रेम के हमशक्ल प्रयाश्चित का प्रतिफल पर 
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या ?
चरित्र के वह फ्रेम जिसमें
मुझे पैदा करने वालों की तश्वीर छोटी पड़ती थी
मुझे फिट होना था
किसी को क्या पता कि मेरे मन में भी एक अपना निजी सा कोना था
सपने थे
शेष बचे कुछ सालों का समन्दर जो उछालना तो चाहता था पर था ठहरा हुआ
कुछ गुडिया थी ओझल सी
कुछ यादें थी बोझल सी
कुछ चिड़िया अभी चहकती थीं
कुछ कलियाँ अभी महकती थीं
कुछ गलियाँ अभी बुलाती हैं मुझको यादों की बस्ती में
कुछ शब्द सुनायी देते हैं जो फब्ती थे
कुछ गीत सुनायी देते हैं जो सुनती थी तो अच्छा सा लगता था
वर्तमान में जीने की जब चाह करी तो अपनों ने कुछ सपनो से गुमराह किया
कुछ सपने ऐसे भी थे जो गीत सुनाया करते थे फिर ग़ुमनाम हुए
कुछ सात्विक से जो रिश्ते थे पर हम उनमें बदनाम हुए 
बचपन में गुडिया के कपड़ों पर पैबंद लगाया करती थी
यौवन मैं अपनी बातों में पैबंद लगाया करती थी
कुछ बड़ी हुई तो संवादों में पैबंद लगाना सीख लिया
वह रिश्ते जो थे आसों के
वह रिश्ते थे विश्वासों के
वह रिश्ते नए लिबासों के
जब थकते हैं तो पैबंद लगाना पड़ता है
मैं सुन्दर सा एक कपड़ा हूँ -- कुछ बुना हुआ,कुछ काढा हुआ,
 कुछ उधड़ा सा, कुछ खोया हुआ ख्यालों में 
तुम अपनी फटी दरारों में
तुम अपने उलझे तारों में
तुम अपने बिखरे चरित्रों पर
तुम अपने निखरे चित्रों
जब भी चाहो चिपका लेना
मैं पाबंदों का दुखड़ा हूँ
मैं पैबन्दों का टुकडा हूँ
मैं एक लडकी थी
करती भी क्या  ?
"  ----- राजीव चतुर्वेदी
++++++++++++++++++++++++

---  लड़कियाँ पागल होती हैं  ---

"लड़कियाँ पागल होती हैं
बचपन में लड़कियाँ अपना बचपना भूल अपने भाइयों को माँ की तरह दुलराती हैं
बचपन में लड़कियाँ खुद अच्छी चीजें नहीं खाती अपने भाइयों को खिलाती हैं
बचपन में लड़कियाँ खिलोनों के लिए जिद नहीं करतीं
अपने भाइयों को खिलौने दिलाती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


"प्यार करना सबसे बड़ा गुनाह है" --- यह समझाया जाता है लड़कियों को बार-बार
इसलिए प्यार करना चाह कर भी किसी लड़के से प्यार नहीं करतीं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
फिर एक दिन लड़कियाँ न चाह कर भी प्यार कर लेती हैं
और फिर उससे पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियाँ जिससे कभी प्यार नहीं करतीं
उससे भी घरवालों के शादी कर देने पर प्यार करने लगती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

लड़कियाँ एक दिन माँ बनती हैं
फिर अपने बच्चों से पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
एक-एक कर उनको सभी छोड़-छोड़ कर जाते रहते हैं
माता -पिता -भाई बताते हैं तुम परायेघर की हो
लड़कियाँ फिर भी उन्हें अपना मानती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

फिर ससुराल में बताया जाता है कि तुम पराये घर की हो
फिर भी वह ससुराल को अपना ही घर मान लेती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं


लड़कियों को तो बचपन में ही बताया गया था
कि प्यार इस दुनियाँ का सबसे बड़ा गुनाह है
फिर भी लड़कियाँ प्यार करती हैं
बेटी बहन प्रेमिका पत्नी नानी और दादी के बदलते रूपों में भी प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

मनोवैज्ञानिक विद्वान् भावनाओं की बाढ़ को पागलपन कहते हैं
हानि -लाभ तो भौतिक घटना हैं
लड़कियाँ भावनाओं की पटरी पर दौड़ती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
अंत में लड़कियाँ पछताती हैं कि उन्होंने प्यार क्यों किया
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

+++++++++++++++++++

                                        ------    विस्मृत करूंगी पहले  -----

"विस्मृत करूंगी पहले,
तुम्हारे साथ बिताए पलों को
आधीर रातों को,
यादों में जलते दिनों को,
अरुण के साथ स्वांग रचाती
अलस भरी भोर को,
फिर भूलूँगी तुम्हें!
सब कुछ सतत होगा।

तुम योग्य नहीं थे मेरे प्रेम के!
फिर भी तुम्हारी अयोग्यताओं को आलिंगन किया
भुला दूँगी उन समस्त संभावनाओं को,
भावनाओं के उतेजित पलों को
उन तटस्थ पथ को,
जिनमे चले थे कभी दो जोड़ी कदम हमारे,
फिर भूलूँगी तुम्हारी अयोग्यताओं को
सब कुछ सतत होगा।

भूलना पड़ेगा मुझे
जीवित रहने की आदतों को!
उस सहमे स्पर्श को,
असपष्ट बातों को,
निषिद्ध गलियों को
जहां मिलते थे कभी बेखौफ हम!!
फिर भूलूँगी तुम्हारे जीवित प्रेम को!!
सब कुछ सतत होगा।

सीखूंगी अग्नि में जलने की तरकीबें
बादलों के लक्ष्य को भेदूंगी,
करूंगी विरह के रंगो पर शोध!
अनायास याद करूंगी तुम्हें
और मुक्त हो जाऊँगी....
मेरे जीवन के संकोच से तुम्हें भुला पाना मुश्किल है
मृत्यु की बेधड़क प्रवृति से ही भूल पाऊँगी तुमको।
अचानक भूल पाना संभव नहीं,
सब कुछ सतत होगा।
" ----सोनिया गौड़
+++++++++++++++++++++++++++

---- स्त्री हूँ मैं ---



"स्त्री हूँ मैं।
गर्व है मुझे खुद पर।
अपने आप को पहचानती हूँ मैं।
अपनी धुन में रहती हूँ पर लक्ष्य पूरा करती हूँ।
मेरी बहुत सारी बातें बेवकूफियों में गिनी जाती हैं , पर

मैं शर्मिन्दा नहीं होती।

मैं शर्मिन्दा नहीं होती हूँ जब ……
मैं कुछ जरूरी सामान रख कर भूल जाती हूँ।
मैं एक ही कमरे में दसियों बार चक्कर लगाती हूँ
पर नहीं याद कर पाती कि वहाँ क्यों आई हूँ।
मैं बहुत ज्यादा और बेवजह हँसती हूँ।
मैं अपना दर्द अपने सबसे प्रिय दोस्तों से भी सफलतापूर्वक छिपा लेती हूँ।
मैं बहुत रोती हूँ। आँसू मेरी पलकों पर भरे रहते हैं।
मैं दोस्तों का अनकहा भी सुन लेती हूँ।
मैं उनकी भी परवाह करती हूँ जो मुझे सिरे से नापसन्द करते हैं।
मैं हर किसी की बात सुनती और उसे पूरा करने की कोशिश करती हूँ
भले वे मेरी सबसे जरुरी बात को भी न सुनें।

मैं और भी बहुत कुछ ऐसा करती हूँ जो आप सबकी नज़र में पागलपन है।
मुझे खुद पर विश्वास है।
मेरी नज़र में ये सब पागलपन मेरे लिए बहुत जरुरी है।
पागलपन ही तो ऑक्सीजन है एक स्त्री का।

बातें बेवज़ह मेरी …
" --- नीता मेहरोत्रा
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

-----' स्त्री' -- नहीं निकल पायी कभी, 'देह' के दायरे से बाहर ----

' स्त्री'
नहीं निकल पायी कभी,
'देह' के दायरे से बाहर
चाहे वो सलवार कुर्ते में,
शरमाती, सकुचाती सी हो
चाहे, इस सो कॉल्ड
मॉडर्न सोसाइटी की
खुले विचारों वाली,कुछ नजरें बेंध ही देती हैं
उनके जिस्म का पोर पोर,भरी भीड़ में भी.

'कभी देखना'
किसी गश खा कर गिरती हुई
लड़की को,
'देखना'
कैसे टूटते हैं, 'मर्द'
उसकी मदद को,
और टटोलते हैं,
'उसके' जिस्म का 'कोना - कोना' ।

'देखना'
किसी बस या ट्रेन में
भरी भीड़ में चढ़ती हुई
'स्त्री' को,
और ये भी देखना,
'कैसे' अचानक दो हाथ
उसके उभारों पर दबाव बना,
गायब हो जाते हैं.

देखना बगल की सीट पर बैठे
मुसाफिर के हाथ नींद में कैसे
अपनी महिला सहयात्री के
नितम्बों पर गिरते हैं।

जवान होती लड़कियों को
गले लगा कर
उनके उभारों पर हाथ फेरते
रिश्तेदारों को देखना,

और फिर कहना,
क्या अब भी है 'स्त्री'
देह के दायरे से बाहर।
"---- गौतमी पाण्डेय
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

बुरे लड़के से प्यार करते हुए सोचती है अच्छी लड़की...


"तुम इतना खुबसूरत कैसे लिख लेती हो "पूजा"
बुरे लड़के से प्यार करते हुए सोचती है अच्छी लड़की...
कहाँ थे तुम अब तक?
कि गाली सी लगती है
जब मुझे कहते हो 'अच्छी लड़की'
कि सारा दोष तुम्हारा है

तुमने मुझे उस उम्र में
क्यूँ दिए गुलाब के फूल
जबकि तुम्हें पढ़ानी थीं मुझे
अवतार सिंधु पाश की कविताएं

तुमने क्यूँ नहीं बताया
कि बना जा सकता है
धधकता हुआ ज्वालामुखी
मैं बना रही होती थी जली हुयी रोटियां

जब तुम जाते थे क्लास से भाग कर
दोस्त के यहाँ वन डे मैच देखने
मैं सीखती थी फ्रेम लगा कर काढ़ना
तुम्हारे नाम के पहले अक्षर का बूटा

जब तुम हो रहे थे बागी
मैं सीख रही थी सर झुका कर चलना
जोर से नहीं हँसना और
बड़ों को जवाब नहीं देना

तुम्हें सिखाना चाहिए था मुझे
कोलेज की ऊँची दीवार फांदना
दिखानी थीं मुझे वायलेंट फिल्में
पिलानी थी दरबान से मांगी हुयी बीड़ी

तुम्हें चूमना था मुझे अँधेरे गलियारों में
और मुझे मारना था तुम्हें थप्पड़
हमें करना था प्यार
खुले आसमान के नीचे

तुम्हें लेकर चलना था मुझे
इन्किलाबी जलसों में
हमें एक दूसरे के हाथों पर बांधनी थी
विरोध की काली पट्टी

मुझे भी होना था मुंहजोर
मुझे भी बनना था आवारा
मुझे भी कहना था समाज से कि
ठोकरों पर रखती हूँ तुम्हें

तुम्हारी गलती है लड़के
तुम अकेले हो गए...बुरे
जबकि हम उस उम्र में मिले थे
कि हमें साथ साथ बिगड़ना चाहिए था.
" ----पूजा किसलय उपाध्याय 
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++



No comments: