"तवायफ के होंठ पर तबस्सुम तलाशते लोगों,
धूप बादल से गुजर कर धरतियों पर आ गई.
चांदनी के चरित्रों पर अब दोपहर की सनद चस्पा है,
शाम को सहमा हुआ सा उजाला रात से राहत की उम्मीद क्यों करता है ?
सहमे हुए से शहर में सोचती है सभ्यता,
वक्त की यह वेदना
आँखों से टपक कर गाल पर क्यों आ गयी ?"----राजीव चतुर्वेदी
धूप बादल से गुजर कर धरतियों पर आ गई.
चांदनी के चरित्रों पर अब दोपहर की सनद चस्पा है,
शाम को सहमा हुआ सा उजाला रात से राहत की उम्मीद क्यों करता है ?
सहमे हुए से शहर में सोचती है सभ्यता,
वक्त की यह वेदना
आँखों से टपक कर गाल पर क्यों आ गयी ?"----राजीव चतुर्वेदी
1 comment:
सन्नाट, झंकृत करता..
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