"कविता किसे कहते हैं ? उसकी दिशा, दशा क्या है ?
कालिदास के समय कविता अभ्यारण्य में थी ...फिर अरण्य में आयी ...फिर कुछ लोगों ने कविता को दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद किया तो वामपंथी कविता के कांजीहाउस उग आये ...आलोचक जैसी स्वयंभू संस्थाएं कविता की तहबाजारी /ठेकेदारी करने लगे ...कविता की आढ़तों पर कविता के आढ़तियों और कविता की तहबाजारी के ठेकेदार आलोचकों से गंडा ताबीज़ बंधवाना जरूरी हो गया था .
दक्षिणपंथियों ने कविता को अपने दकियानूसी दड़बे में कैद किया ...छंद, सोरठा, मुक्तक, चौपाई आदि की विधाओं से इतर रचना को कविता की मान्यता नहीं दी गयी ...शर्त थी शब्दों की तुक और अर्थों की लयबद्धता ...विचारों की लयबद्धता जैसे कविता का सरोकार ही न हो ...इन दक्षिणपंथी कवियों की परम्परा के प्रतीक पुरुष बन कर उभरे कवि तुलसीदास . तुलसीदास उसी दौर में थे जब भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थिर हो कर अपनी जड़ें जमा रहा था और उर्दू कविता ने अपने काव्य सौष्ठव के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए थे ...मुगलकाल में लिखित रामायण में तुलसीदास ने समकालीन त्रासदी का वर्णन करना तो दूर उसे कहीं छुआ भी नहीं और प्रभु आराधना करते रहे ...सांस्कृतिक अभ्यारण्य से घसीट कर कालिदास कालीन कविता को दक्षिणपंथी दड़बे में अब ठूंसा जा रहा था ...कविता की आवश्यक शर्त थी छंद /सोरठा /चौपाई /मुक्तक और शाब्दिक तुकबंदी पर पूरा ध्यान था ...इस बीच कुछ कविता दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बे से निकल भागीं और कुछ दड़बे में घुसी ही नहीं ...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुश्किन की उंगली पकड़ कर भारत में प्रयोगवादी कवियों ने प्रवेश किया ...खलील जिब्रान और डेज़ोइटी ने दस्तक दी ...रूढ़िवादी परम्परागत कविता में प्रयोग हुए और क्रमशः कविता छंद के बंद तोड़ कर ...मुक्तक से मुक्त हो बह चली ...शब्दों की तुकबंदी छोड़ विचारों की तुकबंदी और शब्दों की लयबद्धता को वरीयता मिली ...भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता के साथ ही यह कविता भी अंकुरित हुयी और 1975 में आपातकाल आते ही यह कविता आकार लेने लगी ...यह वामपंथी तेवर और चरित्र की कविता थी ...वामपंथी कभी देश की आज़ादी के लिए नहीं लड़े ...आपातकाल में इंदिरा गांधी से भी नहीं लड़े ...भारतीय वामपंथी वस्तुतः क्रान्ति नहीं क्रान्ति मंचन करने में निपुण थे ...कुछ वामपंथी क्रान्ति का मंजन कर सत्तारुढ़ कोंग्रेस के सामने खीसें निपोरने में भी दक्ष थे ... यह लोग लड़ते नहीं थे किन्तु लड़ते हुए दिखते जरूर थे ...दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणपंथियों का गढ़ बन चुका था सो इंदिरा गांधी ने दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय शुरू किया कोंग्रेसपरस्त वामपंथी नामवर सिंह को वाराणसी से ला कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निरूपित किया गया और इस प्रकार वामपंथी कविता का एक खेमा अलग हुआ ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता "लिबरेट " हो रही थी ...उस पर डिबेट हो रही थी और बागी कविता "सेलीबरेट" ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में किशोर होती कविता को वामपंथी भगा लाये थे ... द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ग्रसित वामपंथी द्वंद्व में थे ...जो वामपंथी रूस की कृपा पर अपनी समृद्धि का समाजशास्त्र पढ़ रहें थे वह रूस की दलाली के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में लग गए बाकी वामपंथियों ने चीन के इशारे पर भारत की संघीय सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की इसके लिए क़त्ल और कविता दोनों को हथियार बनाया गया ...नक्सली हिंसा के साथ नक्सली कवि भी आये ...लाशों पर कविता का कफ़न उढाती कवितायें आयीं ...भूख पर, बेरोजगारी पर, राजसत्ता के दमन पर कविता का परचम फहराया गया ...अभिजात्य वामपंथियों ने गरीब को, सर्वहारा को अपने अभियान का टायर बनाया और घिस जाने पर बदलते रहे किन्तु वामपंथी अभियान का स्टेयरिंग सदैव अभिजात्य ही रहा ...अब कविता वैचारिक लयबद्धता भी खो कर केवल नारेबाजी बन चुकी थी ... कविता गुलेल थी और उससे शब्दों के पत्थर प्रतिष्ठानों पर फेंके जा रहे थे ... अब कविता सुन्दर शालीन संगीतमय कविता नहीं थी ...अब कविता केबरे कर रही थी ...कविता में आक्रोश नहीं कुंठा थी ...अब कवि बनने के लिए वामपंथीयों से गंडा ताबीज़ बंधवाना बहुत जरूरी होगया था ...वामपंथी कविता के प्रकाशक /ठेकेदार , तहबाजारी करते आलोचक कविता को अपनी कानी आँख से देख रहे थे ...तुर्रा यह कि जिसकी दायीं दृष्टि नहीं हो और केवल बाईं हो तो वह वामपंथी ... हिन्दी कविता की यह वामपंथी तहबाजारी /ठेकेदारी भी उतना ही घुटन का दौर था की जितना कविता का परम्परागत दक्षिणपंथी दड़बा ... इस बीच राजनीतिक परिदृश्य बदला कोंग्रेस और वामपंथी ध्वस्त हो गए ...राजनीती के नए ध्रुव उगे ... इस वामपंथी पराभव के अवसाद से ग्रसित लोगों ने आम आदमी पार्टी की झोपड़ी में अपनी खोपड़ी ठूंस कर नरेंद्र मोदी की आंधी से अपनी अस्मत बचाई ... इस बदले परिदृश्य में कविता मुक्त हो चुकी थी ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता बाहर कब की निकल चुकी थी और वामपंथी कविता के कांजी हाउस भी राजनीतिक परिवर्तन की आंधी में तहसनहस हो गए थे ... वामपंथी कविता के कांजीहाउस के टूटने का श्यापा अब साहित्यिक गोष्ठीयो / सेमीनारों में सुनायी देता है ... "गिद्धों के कोसे ढोर नहीं मरते और सिद्धों के आशीर्वाद से सिकंदर नहीं बनते" ... यह वामपंथी रुदालियाँ कविता की सास हो सकती हैं, बहू नहीं .
बधाई ! ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद या वामपंथी कविता के कांजीहाउस में कानी आँख से क्रान्ति काँखती कविता अब तक आज़ाद हो चुकी है ...हे रचनाधर्मियो !! अब इसे किसी भी खूंटे से बंधने न देना ...खूंटे से बंधा साहित्य एक परिधि में घूमता है और उस परिधि की एक निश्चित अवधि होती है ... फिर चाहे वह दक्षिण पंथी दकियानूसी खूंटा हो या क्रान्ति काँखता वामपंथी खूंटा ... साहित्य परिधि में परिक्रमा नहीं करता साहित्य सदैव क्षेतिजिक होता है ." ----- राजीव चतुर्वेदी
कालिदास के समय कविता अभ्यारण्य में थी ...फिर अरण्य में आयी ...फिर कुछ लोगों ने कविता को दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद किया तो वामपंथी कविता के कांजीहाउस उग आये ...आलोचक जैसी स्वयंभू संस्थाएं कविता की तहबाजारी /ठेकेदारी करने लगे ...कविता की आढ़तों पर कविता के आढ़तियों और कविता की तहबाजारी के ठेकेदार आलोचकों से गंडा ताबीज़ बंधवाना जरूरी हो गया था .
दक्षिणपंथियों ने कविता को अपने दकियानूसी दड़बे में कैद किया ...छंद, सोरठा, मुक्तक, चौपाई आदि की विधाओं से इतर रचना को कविता की मान्यता नहीं दी गयी ...शर्त थी शब्दों की तुक और अर्थों की लयबद्धता ...विचारों की लयबद्धता जैसे कविता का सरोकार ही न हो ...इन दक्षिणपंथी कवियों की परम्परा के प्रतीक पुरुष बन कर उभरे कवि तुलसीदास . तुलसीदास उसी दौर में थे जब भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थिर हो कर अपनी जड़ें जमा रहा था और उर्दू कविता ने अपने काव्य सौष्ठव के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए थे ...मुगलकाल में लिखित रामायण में तुलसीदास ने समकालीन त्रासदी का वर्णन करना तो दूर उसे कहीं छुआ भी नहीं और प्रभु आराधना करते रहे ...सांस्कृतिक अभ्यारण्य से घसीट कर कालिदास कालीन कविता को दक्षिणपंथी दड़बे में अब ठूंसा जा रहा था ...कविता की आवश्यक शर्त थी छंद /सोरठा /चौपाई /मुक्तक और शाब्दिक तुकबंदी पर पूरा ध्यान था ...इस बीच कुछ कविता दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बे से निकल भागीं और कुछ दड़बे में घुसी ही नहीं ...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुश्किन की उंगली पकड़ कर भारत में प्रयोगवादी कवियों ने प्रवेश किया ...खलील जिब्रान और डेज़ोइटी ने दस्तक दी ...रूढ़िवादी परम्परागत कविता में प्रयोग हुए और क्रमशः कविता छंद के बंद तोड़ कर ...मुक्तक से मुक्त हो बह चली ...शब्दों की तुकबंदी छोड़ विचारों की तुकबंदी और शब्दों की लयबद्धता को वरीयता मिली ...भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता के साथ ही यह कविता भी अंकुरित हुयी और 1975 में आपातकाल आते ही यह कविता आकार लेने लगी ...यह वामपंथी तेवर और चरित्र की कविता थी ...वामपंथी कभी देश की आज़ादी के लिए नहीं लड़े ...आपातकाल में इंदिरा गांधी से भी नहीं लड़े ...भारतीय वामपंथी वस्तुतः क्रान्ति नहीं क्रान्ति मंचन करने में निपुण थे ...कुछ वामपंथी क्रान्ति का मंजन कर सत्तारुढ़ कोंग्रेस के सामने खीसें निपोरने में भी दक्ष थे ... यह लोग लड़ते नहीं थे किन्तु लड़ते हुए दिखते जरूर थे ...दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणपंथियों का गढ़ बन चुका था सो इंदिरा गांधी ने दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय शुरू किया कोंग्रेसपरस्त वामपंथी नामवर सिंह को वाराणसी से ला कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निरूपित किया गया और इस प्रकार वामपंथी कविता का एक खेमा अलग हुआ ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता "लिबरेट " हो रही थी ...उस पर डिबेट हो रही थी और बागी कविता "सेलीबरेट" ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में किशोर होती कविता को वामपंथी भगा लाये थे ... द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ग्रसित वामपंथी द्वंद्व में थे ...जो वामपंथी रूस की कृपा पर अपनी समृद्धि का समाजशास्त्र पढ़ रहें थे वह रूस की दलाली के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में लग गए बाकी वामपंथियों ने चीन के इशारे पर भारत की संघीय सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की इसके लिए क़त्ल और कविता दोनों को हथियार बनाया गया ...नक्सली हिंसा के साथ नक्सली कवि भी आये ...लाशों पर कविता का कफ़न उढाती कवितायें आयीं ...भूख पर, बेरोजगारी पर, राजसत्ता के दमन पर कविता का परचम फहराया गया ...अभिजात्य वामपंथियों ने गरीब को, सर्वहारा को अपने अभियान का टायर बनाया और घिस जाने पर बदलते रहे किन्तु वामपंथी अभियान का स्टेयरिंग सदैव अभिजात्य ही रहा ...अब कविता वैचारिक लयबद्धता भी खो कर केवल नारेबाजी बन चुकी थी ... कविता गुलेल थी और उससे शब्दों के पत्थर प्रतिष्ठानों पर फेंके जा रहे थे ... अब कविता सुन्दर शालीन संगीतमय कविता नहीं थी ...अब कविता केबरे कर रही थी ...कविता में आक्रोश नहीं कुंठा थी ...अब कवि बनने के लिए वामपंथीयों से गंडा ताबीज़ बंधवाना बहुत जरूरी होगया था ...वामपंथी कविता के प्रकाशक /ठेकेदार , तहबाजारी करते आलोचक कविता को अपनी कानी आँख से देख रहे थे ...तुर्रा यह कि जिसकी दायीं दृष्टि नहीं हो और केवल बाईं हो तो वह वामपंथी ... हिन्दी कविता की यह वामपंथी तहबाजारी /ठेकेदारी भी उतना ही घुटन का दौर था की जितना कविता का परम्परागत दक्षिणपंथी दड़बा ... इस बीच राजनीतिक परिदृश्य बदला कोंग्रेस और वामपंथी ध्वस्त हो गए ...राजनीती के नए ध्रुव उगे ... इस वामपंथी पराभव के अवसाद से ग्रसित लोगों ने आम आदमी पार्टी की झोपड़ी में अपनी खोपड़ी ठूंस कर नरेंद्र मोदी की आंधी से अपनी अस्मत बचाई ... इस बदले परिदृश्य में कविता मुक्त हो चुकी थी ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता बाहर कब की निकल चुकी थी और वामपंथी कविता के कांजी हाउस भी राजनीतिक परिवर्तन की आंधी में तहसनहस हो गए थे ... वामपंथी कविता के कांजीहाउस के टूटने का श्यापा अब साहित्यिक गोष्ठीयो / सेमीनारों में सुनायी देता है ... "गिद्धों के कोसे ढोर नहीं मरते और सिद्धों के आशीर्वाद से सिकंदर नहीं बनते" ... यह वामपंथी रुदालियाँ कविता की सास हो सकती हैं, बहू नहीं .
बधाई ! ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद या वामपंथी कविता के कांजीहाउस में कानी आँख से क्रान्ति काँखती कविता अब तक आज़ाद हो चुकी है ...हे रचनाधर्मियो !! अब इसे किसी भी खूंटे से बंधने न देना ...खूंटे से बंधा साहित्य एक परिधि में घूमता है और उस परिधि की एक निश्चित अवधि होती है ... फिर चाहे वह दक्षिण पंथी दकियानूसी खूंटा हो या क्रान्ति काँखता वामपंथी खूंटा ... साहित्य परिधि में परिक्रमा नहीं करता साहित्य सदैव क्षेतिजिक होता है ." ----- राजीव चतुर्वेदी
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