"भारत की राजनीति की असमंजस का आकार देखें ... पूंजीवाद प्रवृति है
साम्यवाद /समाजवाद प्रतिक्रिया ...लोकतंत्र "लोक" की सतत इच्छा है ...समाज
के मुट्ठीभर किन्तु ताकतवर /गब्बर लोगों के विरुद्ध बहुसंख्यक कमजोरों का
सहकारिता प्रयास है जो पूर्ण तह कभी सफल नहीं होता . पूंजीवाद मानव की मूल
प्रवृति है इसके प्रतिक्रिया में जब वामपंथी साम्यवादी /समाजवादी आन्दोलन
आये तो साम्यवादी /समाजवादी नेता सड़क पर मुंह से चीखते थे --"धन और धरती
बाँट के रहेगी " और अपने अंतर्मन में आगे कहते थे -- "अपनी अपनी छोड़ कर " .
चूंकि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद /समाजवाद आया इस लिए इन आन्दोलनों के
प्रणेता भी प्रवृति और वृत्ति से पूंजीवादी जातियों से ही थे . कार्ल
मार्क्स यहूदी थे तो राममनोहर लोहिया मारवाड़ी . चूंकि वामपंथी सोच ने
क्रान्ति से तख्ता पलट का हथकंडा अपनाया तो फिर क्रान्ति जहां भी हुयी वहां
तानाशाही रही लोकतंत्र की सम्भावना भी नष्ट की जाती रही इसी लिए वामपंथी
सोच लोकतंत्र में सदैव असहज हो जाती है ...केजरीवाल की कार्य शैली और
लोकतांत्रिक व्यवस्था के पीछे यह असहजता उनके व्यक्तित्व पर वामपंथी प्रभाव
का नतीजा हैं . बहरहाल यहाँ केजरीवाल के बारे में प्रसंगवश नहीं कुसंगवश
बात हो गयी . देश की राजनीति आज़ादी से ही नहीं इसके पहले ...बहुत पहले से
ही पूंजीवाद और साम्यवाद के असमंजश में रही है ...प्लेटो की रिपब्लिक की
अवधारणाओं के पहले ...बहुत पहले महाभारत के शांतिपर्व की राजनीतिक समझ से
भी पहले ...ऋग्वेद के साम्यवाद की अवधारणा से भी पहले मानव इतिहास के सबसे
पहले गणराज्य यानी Republic के अध्यक्ष गणपति /गणेश के समय से आज़ादी तक और
आज़ादी से अब तक भारत राष्ट्र पूंजीवाद और साम्यवाद/समाजवाद के बीच असमंजस
में रहा है ...यह असमंजस लोकमान्य बालगंगाधर तिलक में नहीं दिखती पर
महात्मा गाँधी में दिखती है ...यह असमंजस संविधान के 42 वें संशोधन में साफ़
साफ़ दिखती है ...यह असमंजस वामपंथ के गर्भ में पलती है और सिंगूर में
पूंजीपति टाटा के समर्थन में प्रकट होती है ...यह असमंजस लोहिया के समाजवाद
का झंडा उठाये हर फटीचर के नवसामंत/ नवपूंजीपति संस्करण में मिलती है ...
यह असमंजस नेहरू में भी थी ,इंदिरा में भी थी अटल बिहारी बाजपेयी में भी थी
और नरेंद्र मोदी में भी दिखती है ...दिखे भी क्यों नहीं ? ...वामपंथ को
दिया दिखानेवाला चीन अमेरिका के बाद आज पूंजीवाद का सबसे बड़ा ध्रुव है .
द्वितीय विश्व युद्ध में रत महाशक्तियों का प्रबंधन ढीला पड़ा और जैसे
मवेशीखाने की दीवार गिर गयी हो ...देश आज़ाद होने लगे 1947-48 में लगभग 80
देश आज़ाद हुए राजतन्त्र की राजनीति ने अपना न नाम बदला न नियत सो राजनीति
नहीं बदली राजनीति लोकनीति नहीं हो सकी इसलिए राजनीती शास्त्र के सिद्धांत
अप्रासंगिक हो गए ...इस शून्य को कभी अर्थशास्त्र कभी समाजशास्त्र के
सिद्धांतों से भरा गया तो आध्यात्म और धर्म ने भी घुसपैंठ की ...मार्क्स ने
/लेनिन ने /माओ ने राजनीती को अर्थशास्त्र से जोड़ा , चूंकि अर्थशास्त्र
की नियति थी पूंजीवादी होना इसलिए मार्क्सवाद दीर्घायु नहीं हो सका और उसकी
परिणिति नवपूंजीवाद में हुयी ...गांधी ने राजनीति को आध्यात्म से जोड़ा और
जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ा
.अम्बेडकर ने राजनीती को समाजशास्त्र के एक पहलू से जोड़ा तो दीनदयाल
उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र के दूसरे पहलू से जोड़ा. चूंकि अम्बेडकर
और दीनदयाल उपाध्याय राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ कर देखते थे इसी लिए
दोनों की विरासत बाली पार्टियों / नेताओं में समय समय पर सामंजस्य देखा जा
सकता है (बसपा और भाजपा ) .दीनदयाल उपाध्याय "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत
के प्रणेता हैं जो मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और गाँधी के
"ट्रस्टीशिप " और "कल्याणकारी गणराज्य " की अवधारणा से एक वैचारिक त्रिभुज
बनाता है ...अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक सोच इसी त्रिभुज में उलझी रही
...शायद नरेंद्र मोदी राजनीति शास्त्र की इसी असमंजस से उबरने की कोशिश में
हैं ...राजनीती के अलिखित अध्याय अब समाज शास्त्र से लिए जायेंगे न कि
अर्थ शास्त्र से ...नरेंद्र मोदी का मथुरा दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली
जा कर उनको स्मरण करना इसका द्योतक है कि राष्ट्रीय राजनीती की दिशा और दशा
"एकात्म मानववाद" के सिद्धांत से सामंजस्य बनाने की शुरूआत है ." -----
राजीव चतुर्वेदी
Tuesday, May 26, 2015
Thursday, May 14, 2015
कविता -- दक्षिणपंथी दड़बों से और वामपंथी कविता के कांजीहाउस से अब आज़ाद हो चुकी है
"कविता किसे कहते हैं ? उसकी दिशा, दशा क्या है ?
कालिदास के समय कविता अभ्यारण्य में थी ...फिर अरण्य में आयी ...फिर कुछ लोगों ने कविता को दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद किया तो वामपंथी कविता के कांजीहाउस उग आये ...आलोचक जैसी स्वयंभू संस्थाएं कविता की तहबाजारी /ठेकेदारी करने लगे ...कविता की आढ़तों पर कविता के आढ़तियों और कविता की तहबाजारी के ठेकेदार आलोचकों से गंडा ताबीज़ बंधवाना जरूरी हो गया था .
दक्षिणपंथियों ने कविता को अपने दकियानूसी दड़बे में कैद किया ...छंद, सोरठा, मुक्तक, चौपाई आदि की विधाओं से इतर रचना को कविता की मान्यता नहीं दी गयी ...शर्त थी शब्दों की तुक और अर्थों की लयबद्धता ...विचारों की लयबद्धता जैसे कविता का सरोकार ही न हो ...इन दक्षिणपंथी कवियों की परम्परा के प्रतीक पुरुष बन कर उभरे कवि तुलसीदास . तुलसीदास उसी दौर में थे जब भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थिर हो कर अपनी जड़ें जमा रहा था और उर्दू कविता ने अपने काव्य सौष्ठव के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए थे ...मुगलकाल में लिखित रामायण में तुलसीदास ने समकालीन त्रासदी का वर्णन करना तो दूर उसे कहीं छुआ भी नहीं और प्रभु आराधना करते रहे ...सांस्कृतिक अभ्यारण्य से घसीट कर कालिदास कालीन कविता को दक्षिणपंथी दड़बे में अब ठूंसा जा रहा था ...कविता की आवश्यक शर्त थी छंद /सोरठा /चौपाई /मुक्तक और शाब्दिक तुकबंदी पर पूरा ध्यान था ...इस बीच कुछ कविता दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बे से निकल भागीं और कुछ दड़बे में घुसी ही नहीं ...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुश्किन की उंगली पकड़ कर भारत में प्रयोगवादी कवियों ने प्रवेश किया ...खलील जिब्रान और डेज़ोइटी ने दस्तक दी ...रूढ़िवादी परम्परागत कविता में प्रयोग हुए और क्रमशः कविता छंद के बंद तोड़ कर ...मुक्तक से मुक्त हो बह चली ...शब्दों की तुकबंदी छोड़ विचारों की तुकबंदी और शब्दों की लयबद्धता को वरीयता मिली ...भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता के साथ ही यह कविता भी अंकुरित हुयी और 1975 में आपातकाल आते ही यह कविता आकार लेने लगी ...यह वामपंथी तेवर और चरित्र की कविता थी ...वामपंथी कभी देश की आज़ादी के लिए नहीं लड़े ...आपातकाल में इंदिरा गांधी से भी नहीं लड़े ...भारतीय वामपंथी वस्तुतः क्रान्ति नहीं क्रान्ति मंचन करने में निपुण थे ...कुछ वामपंथी क्रान्ति का मंजन कर सत्तारुढ़ कोंग्रेस के सामने खीसें निपोरने में भी दक्ष थे ... यह लोग लड़ते नहीं थे किन्तु लड़ते हुए दिखते जरूर थे ...दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणपंथियों का गढ़ बन चुका था सो इंदिरा गांधी ने दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय शुरू किया कोंग्रेसपरस्त वामपंथी नामवर सिंह को वाराणसी से ला कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निरूपित किया गया और इस प्रकार वामपंथी कविता का एक खेमा अलग हुआ ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता "लिबरेट " हो रही थी ...उस पर डिबेट हो रही थी और बागी कविता "सेलीबरेट" ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में किशोर होती कविता को वामपंथी भगा लाये थे ... द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ग्रसित वामपंथी द्वंद्व में थे ...जो वामपंथी रूस की कृपा पर अपनी समृद्धि का समाजशास्त्र पढ़ रहें थे वह रूस की दलाली के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में लग गए बाकी वामपंथियों ने चीन के इशारे पर भारत की संघीय सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की इसके लिए क़त्ल और कविता दोनों को हथियार बनाया गया ...नक्सली हिंसा के साथ नक्सली कवि भी आये ...लाशों पर कविता का कफ़न उढाती कवितायें आयीं ...भूख पर, बेरोजगारी पर, राजसत्ता के दमन पर कविता का परचम फहराया गया ...अभिजात्य वामपंथियों ने गरीब को, सर्वहारा को अपने अभियान का टायर बनाया और घिस जाने पर बदलते रहे किन्तु वामपंथी अभियान का स्टेयरिंग सदैव अभिजात्य ही रहा ...अब कविता वैचारिक लयबद्धता भी खो कर केवल नारेबाजी बन चुकी थी ... कविता गुलेल थी और उससे शब्दों के पत्थर प्रतिष्ठानों पर फेंके जा रहे थे ... अब कविता सुन्दर शालीन संगीतमय कविता नहीं थी ...अब कविता केबरे कर रही थी ...कविता में आक्रोश नहीं कुंठा थी ...अब कवि बनने के लिए वामपंथीयों से गंडा ताबीज़ बंधवाना बहुत जरूरी होगया था ...वामपंथी कविता के प्रकाशक /ठेकेदार , तहबाजारी करते आलोचक कविता को अपनी कानी आँख से देख रहे थे ...तुर्रा यह कि जिसकी दायीं दृष्टि नहीं हो और केवल बाईं हो तो वह वामपंथी ... हिन्दी कविता की यह वामपंथी तहबाजारी /ठेकेदारी भी उतना ही घुटन का दौर था की जितना कविता का परम्परागत दक्षिणपंथी दड़बा ... इस बीच राजनीतिक परिदृश्य बदला कोंग्रेस और वामपंथी ध्वस्त हो गए ...राजनीती के नए ध्रुव उगे ... इस वामपंथी पराभव के अवसाद से ग्रसित लोगों ने आम आदमी पार्टी की झोपड़ी में अपनी खोपड़ी ठूंस कर नरेंद्र मोदी की आंधी से अपनी अस्मत बचाई ... इस बदले परिदृश्य में कविता मुक्त हो चुकी थी ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता बाहर कब की निकल चुकी थी और वामपंथी कविता के कांजी हाउस भी राजनीतिक परिवर्तन की आंधी में तहसनहस हो गए थे ... वामपंथी कविता के कांजीहाउस के टूटने का श्यापा अब साहित्यिक गोष्ठीयो / सेमीनारों में सुनायी देता है ... "गिद्धों के कोसे ढोर नहीं मरते और सिद्धों के आशीर्वाद से सिकंदर नहीं बनते" ... यह वामपंथी रुदालियाँ कविता की सास हो सकती हैं, बहू नहीं .
बधाई ! ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद या वामपंथी कविता के कांजीहाउस में कानी आँख से क्रान्ति काँखती कविता अब तक आज़ाद हो चुकी है ...हे रचनाधर्मियो !! अब इसे किसी भी खूंटे से बंधने न देना ...खूंटे से बंधा साहित्य एक परिधि में घूमता है और उस परिधि की एक निश्चित अवधि होती है ... फिर चाहे वह दक्षिण पंथी दकियानूसी खूंटा हो या क्रान्ति काँखता वामपंथी खूंटा ... साहित्य परिधि में परिक्रमा नहीं करता साहित्य सदैव क्षेतिजिक होता है ." ----- राजीव चतुर्वेदी
कालिदास के समय कविता अभ्यारण्य में थी ...फिर अरण्य में आयी ...फिर कुछ लोगों ने कविता को दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद किया तो वामपंथी कविता के कांजीहाउस उग आये ...आलोचक जैसी स्वयंभू संस्थाएं कविता की तहबाजारी /ठेकेदारी करने लगे ...कविता की आढ़तों पर कविता के आढ़तियों और कविता की तहबाजारी के ठेकेदार आलोचकों से गंडा ताबीज़ बंधवाना जरूरी हो गया था .
दक्षिणपंथियों ने कविता को अपने दकियानूसी दड़बे में कैद किया ...छंद, सोरठा, मुक्तक, चौपाई आदि की विधाओं से इतर रचना को कविता की मान्यता नहीं दी गयी ...शर्त थी शब्दों की तुक और अर्थों की लयबद्धता ...विचारों की लयबद्धता जैसे कविता का सरोकार ही न हो ...इन दक्षिणपंथी कवियों की परम्परा के प्रतीक पुरुष बन कर उभरे कवि तुलसीदास . तुलसीदास उसी दौर में थे जब भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थिर हो कर अपनी जड़ें जमा रहा था और उर्दू कविता ने अपने काव्य सौष्ठव के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए थे ...मुगलकाल में लिखित रामायण में तुलसीदास ने समकालीन त्रासदी का वर्णन करना तो दूर उसे कहीं छुआ भी नहीं और प्रभु आराधना करते रहे ...सांस्कृतिक अभ्यारण्य से घसीट कर कालिदास कालीन कविता को दक्षिणपंथी दड़बे में अब ठूंसा जा रहा था ...कविता की आवश्यक शर्त थी छंद /सोरठा /चौपाई /मुक्तक और शाब्दिक तुकबंदी पर पूरा ध्यान था ...इस बीच कुछ कविता दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बे से निकल भागीं और कुछ दड़बे में घुसी ही नहीं ...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुश्किन की उंगली पकड़ कर भारत में प्रयोगवादी कवियों ने प्रवेश किया ...खलील जिब्रान और डेज़ोइटी ने दस्तक दी ...रूढ़िवादी परम्परागत कविता में प्रयोग हुए और क्रमशः कविता छंद के बंद तोड़ कर ...मुक्तक से मुक्त हो बह चली ...शब्दों की तुकबंदी छोड़ विचारों की तुकबंदी और शब्दों की लयबद्धता को वरीयता मिली ...भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता के साथ ही यह कविता भी अंकुरित हुयी और 1975 में आपातकाल आते ही यह कविता आकार लेने लगी ...यह वामपंथी तेवर और चरित्र की कविता थी ...वामपंथी कभी देश की आज़ादी के लिए नहीं लड़े ...आपातकाल में इंदिरा गांधी से भी नहीं लड़े ...भारतीय वामपंथी वस्तुतः क्रान्ति नहीं क्रान्ति मंचन करने में निपुण थे ...कुछ वामपंथी क्रान्ति का मंजन कर सत्तारुढ़ कोंग्रेस के सामने खीसें निपोरने में भी दक्ष थे ... यह लोग लड़ते नहीं थे किन्तु लड़ते हुए दिखते जरूर थे ...दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणपंथियों का गढ़ बन चुका था सो इंदिरा गांधी ने दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय शुरू किया कोंग्रेसपरस्त वामपंथी नामवर सिंह को वाराणसी से ला कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निरूपित किया गया और इस प्रकार वामपंथी कविता का एक खेमा अलग हुआ ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता "लिबरेट " हो रही थी ...उस पर डिबेट हो रही थी और बागी कविता "सेलीबरेट" ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में किशोर होती कविता को वामपंथी भगा लाये थे ... द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ग्रसित वामपंथी द्वंद्व में थे ...जो वामपंथी रूस की कृपा पर अपनी समृद्धि का समाजशास्त्र पढ़ रहें थे वह रूस की दलाली के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में लग गए बाकी वामपंथियों ने चीन के इशारे पर भारत की संघीय सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की इसके लिए क़त्ल और कविता दोनों को हथियार बनाया गया ...नक्सली हिंसा के साथ नक्सली कवि भी आये ...लाशों पर कविता का कफ़न उढाती कवितायें आयीं ...भूख पर, बेरोजगारी पर, राजसत्ता के दमन पर कविता का परचम फहराया गया ...अभिजात्य वामपंथियों ने गरीब को, सर्वहारा को अपने अभियान का टायर बनाया और घिस जाने पर बदलते रहे किन्तु वामपंथी अभियान का स्टेयरिंग सदैव अभिजात्य ही रहा ...अब कविता वैचारिक लयबद्धता भी खो कर केवल नारेबाजी बन चुकी थी ... कविता गुलेल थी और उससे शब्दों के पत्थर प्रतिष्ठानों पर फेंके जा रहे थे ... अब कविता सुन्दर शालीन संगीतमय कविता नहीं थी ...अब कविता केबरे कर रही थी ...कविता में आक्रोश नहीं कुंठा थी ...अब कवि बनने के लिए वामपंथीयों से गंडा ताबीज़ बंधवाना बहुत जरूरी होगया था ...वामपंथी कविता के प्रकाशक /ठेकेदार , तहबाजारी करते आलोचक कविता को अपनी कानी आँख से देख रहे थे ...तुर्रा यह कि जिसकी दायीं दृष्टि नहीं हो और केवल बाईं हो तो वह वामपंथी ... हिन्दी कविता की यह वामपंथी तहबाजारी /ठेकेदारी भी उतना ही घुटन का दौर था की जितना कविता का परम्परागत दक्षिणपंथी दड़बा ... इस बीच राजनीतिक परिदृश्य बदला कोंग्रेस और वामपंथी ध्वस्त हो गए ...राजनीती के नए ध्रुव उगे ... इस वामपंथी पराभव के अवसाद से ग्रसित लोगों ने आम आदमी पार्टी की झोपड़ी में अपनी खोपड़ी ठूंस कर नरेंद्र मोदी की आंधी से अपनी अस्मत बचाई ... इस बदले परिदृश्य में कविता मुक्त हो चुकी थी ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों से कविता बाहर कब की निकल चुकी थी और वामपंथी कविता के कांजी हाउस भी राजनीतिक परिवर्तन की आंधी में तहसनहस हो गए थे ... वामपंथी कविता के कांजीहाउस के टूटने का श्यापा अब साहित्यिक गोष्ठीयो / सेमीनारों में सुनायी देता है ... "गिद्धों के कोसे ढोर नहीं मरते और सिद्धों के आशीर्वाद से सिकंदर नहीं बनते" ... यह वामपंथी रुदालियाँ कविता की सास हो सकती हैं, बहू नहीं .
बधाई ! ... दक्षिणपंथी दकियानूसी दड़बों में कैद या वामपंथी कविता के कांजीहाउस में कानी आँख से क्रान्ति काँखती कविता अब तक आज़ाद हो चुकी है ...हे रचनाधर्मियो !! अब इसे किसी भी खूंटे से बंधने न देना ...खूंटे से बंधा साहित्य एक परिधि में घूमता है और उस परिधि की एक निश्चित अवधि होती है ... फिर चाहे वह दक्षिण पंथी दकियानूसी खूंटा हो या क्रान्ति काँखता वामपंथी खूंटा ... साहित्य परिधि में परिक्रमा नहीं करता साहित्य सदैव क्षेतिजिक होता है ." ----- राजीव चतुर्वेदी
Monday, May 11, 2015
कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने
"कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने
स्वार्थ में बँट चुके खुदगर्ज खुदा थे अपने
खुद को रिश्तों और फरिश्तों में हमने बाँट लिया
हर्फ़ तो एक पर ज़र्फ़ जुदा थे अपने
यह इत्तफाक था कि हम एक ही रास्ते के राहगीर हुए
यह हकीकत थी कि सराय एक थी स्वभाव जुदा थे अपने
प्यार रिश्तों में अहम था पर वहम ही निकला
मुहब्बत की इबारत में तिजारत झाँकती थी
अंदाज़ एक सा पर अहसास जुदा थे अपने
जब जरूरत पड़ी तो जज्वात भी हमने बाँट लिए
जरिया और नजरिया जुदा होता तो चल भी जाता
समंदर एक था साहिल ही जुदा थे अपने
तू भी एक रोज कश्ती सी कहीं डूब गयी
मैं भी लहूलुहान सूरज सा समंदर में हर शाम डूबता ही रहा
कहानी एक अंजाम जुदा थे अपने ."
------- राजीव चतुर्वेदी
स्वार्थ में बँट चुके खुदगर्ज खुदा थे अपने
खुद को रिश्तों और फरिश्तों में हमने बाँट लिया
हर्फ़ तो एक पर ज़र्फ़ जुदा थे अपने
यह इत्तफाक था कि हम एक ही रास्ते के राहगीर हुए
यह हकीकत थी कि सराय एक थी स्वभाव जुदा थे अपने
प्यार रिश्तों में अहम था पर वहम ही निकला
मुहब्बत की इबारत में तिजारत झाँकती थी
अंदाज़ एक सा पर अहसास जुदा थे अपने
जब जरूरत पड़ी तो जज्वात भी हमने बाँट लिए
जरिया और नजरिया जुदा होता तो चल भी जाता
समंदर एक था साहिल ही जुदा थे अपने
तू भी एक रोज कश्ती सी कहीं डूब गयी
मैं भी लहूलुहान सूरज सा समंदर में हर शाम डूबता ही रहा
कहानी एक अंजाम जुदा थे अपने ."
------- राजीव चतुर्वेदी
Monday, May 4, 2015
सौंदर्य ...बड़ा सुन्दर सा शब्द है ...और रहस्यमयी भी ...हो भी क्यों नहीं ?
"सौंदर्य ...बड़ा सुन्दर सा शब्द है ...और रहस्यमयी भी ...हो भी क्यों नहीं ?
"नैसर्गिक सौंदर्य" एक तरफ है ...देवत्व की ओर जाता ...विकिरित होता ...आवरण नहीं आत्मा का ओज लिए ...और दूसरी तरफ ब्यूटी पार्लर के दरवाजे में घुसता निकलता ...किसी भूतनी सी शहनाज़ हुसैन को सुन्दर समझता "संसर्गिक सौंदर्य" है ... यह सौंदर्य विकिरित नहीं संक्रमित होता है ... बाहर से खींच कर अंदर ले जाना चाहता है ...संसर्ग की आकांक्षा का सौंदर्य । ... आस्था चैनल पर प्रस्तुति देने वाली शिवानी मुझे शहनाज़ हुसैन से कई गुना सुन्दर लगती है ... शिवानी नैसर्गिक सौंदर्य का एक उदाहरण है और कोई करीना कपूर संसर्गिक सौंदर्य का ।...नैसर्गिक सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ बढ़ती जाती है और संसर्ग के सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ घटती जाती है ...दिन में भी घटती है और रात को और ज्यादा घटती है ...फिर आत्मा के गड्ढे आवरण यानी चमड़ी पर भी उभर आते हैं ...चमड़ी में सौंदर्य प्रसाधन कई तरह की पुट्टी भरते हैं रंग भरते हैं ...सौंदर्य अंदर से नहीं आ रहा बाहर से थोपा जा रहा है ।...सौंदर्य का उद्देश्य क्या है ? ...अँधेरे से प्रकाश की और ले जाना । वह कथित सौंदर्य जो प्रकाश से अँधेरे की ओर ले जाता हो .... लाइट ऑफ़ करने को उत्प्रेरित करता हो ...दिमाग की भी बत्ती गुल कर देता हो वह सौंदर्य नहीं छल है ...मरीचिका है ... संसर्गिक है ।...सावधान !...आगे ख़तरनाक मोड़ है ।"----- राजीव चतुर्वेदी
"नैसर्गिक सौंदर्य" एक तरफ है ...देवत्व की ओर जाता ...विकिरित होता ...आवरण नहीं आत्मा का ओज लिए ...और दूसरी तरफ ब्यूटी पार्लर के दरवाजे में घुसता निकलता ...किसी भूतनी सी शहनाज़ हुसैन को सुन्दर समझता "संसर्गिक सौंदर्य" है ... यह सौंदर्य विकिरित नहीं संक्रमित होता है ... बाहर से खींच कर अंदर ले जाना चाहता है ...संसर्ग की आकांक्षा का सौंदर्य । ... आस्था चैनल पर प्रस्तुति देने वाली शिवानी मुझे शहनाज़ हुसैन से कई गुना सुन्दर लगती है ... शिवानी नैसर्गिक सौंदर्य का एक उदाहरण है और कोई करीना कपूर संसर्गिक सौंदर्य का ।...नैसर्गिक सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ बढ़ती जाती है और संसर्ग के सौंदर्य की गरिमा उम्र के साथ घटती जाती है ...दिन में भी घटती है और रात को और ज्यादा घटती है ...फिर आत्मा के गड्ढे आवरण यानी चमड़ी पर भी उभर आते हैं ...चमड़ी में सौंदर्य प्रसाधन कई तरह की पुट्टी भरते हैं रंग भरते हैं ...सौंदर्य अंदर से नहीं आ रहा बाहर से थोपा जा रहा है ।...सौंदर्य का उद्देश्य क्या है ? ...अँधेरे से प्रकाश की और ले जाना । वह कथित सौंदर्य जो प्रकाश से अँधेरे की ओर ले जाता हो .... लाइट ऑफ़ करने को उत्प्रेरित करता हो ...दिमाग की भी बत्ती गुल कर देता हो वह सौंदर्य नहीं छल है ...मरीचिका है ... संसर्गिक है ।...सावधान !...आगे ख़तरनाक मोड़ है ।"----- राजीव चतुर्वेदी
Saturday, May 2, 2015
"शूद्र" कौन ?
"शूद्र" कौन ?
स्कन्द पुराण और मनुस्मृति के अनुसार --
"जन्मनाजायते शूद्रः
संस्कारत द्विजोच्चते ।"
यानी जन्म से सभी शूद्र होते हैं प्रकारान्तर में संस्कारों से या यों कहें कि शिक्षा साहित्य श्रेष्ठ जनों की संगत से व्यजतित्व परिमार्जित हो कर "द्विज " (twice born या double refined ) हो जाता है ।
नारायण स्मृति में "शूद्र" का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है ।.
--- राजीव चतुर्वेदी
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