भारत में वामपंथियों की सोच राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं उसके एकदम विरूद्ध रही है।
भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता' वामपंथियों ने कहा था।
मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का भारी समर्थन वामपंथी कर रहे थे।
आजादी के क्षणों में नेहरू को 'साम्राज्यवादियों' का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया।
भारत पर चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों की भावना चीन के साथ थी।
अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र-विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे।
वामपंथियों ने गांधी को 'खलनायक' और जिन्ना को 'नायक' की उपाधि दे दी थी।
खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए पाकिस्तान में मिलाने के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की।
वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं इनके आधार पर देशवासियों को आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई। 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने
टिप्पणी लिखी कि ''भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।''
भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने
'देशद्रोही' का ठप्पा लगाया। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच कभी दोस्ताना लडाई चल चुकी हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता था। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतंत्रात्क पार्टी माक्र्सवादी काम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय काम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं।
भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड
रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धड़ों का मानना है
कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।
देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता कामरेड
प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है।
अपनी पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के एक अंक में
उन्होंने लिखा था कि देश की कारपोरेट मीडया, संयुक्त राज्य
अमेरिका, दुनिया के हथियार ऐजेंट और आरएसएस के
गठजोड़ के कारण चीन के साथ भारत का गतिरोध दिखाई दे
रहा है, वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं था।
करात के उस आलेख का कुल सारांश है कि चीन तो भारत
का सच्चा दोस्त है लेकिन आरएसएस के लोग देश के
जानी दुश्मन है।
साम्यवादियों के
सबसे बडे दुश्मन के रूप में आरएसएस चिन्हित है। गाहे
बगाहे ये उनके खिलाफ अभियान भी चलाते रहते हैं।
संत लक्ष्मणानंद
की हत्या कम्युनिस्टों और ईसाई मिशनरी गठजोड़ का प्रमाण थी।
केरल में, आंध्र प्रदेश में, उडीसा में, बिहार और झारखंड में,
छातीसगढ में, त्रिपुरा में यानी जहाँ भी साम्यवादी हावी हैं
वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं और आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है।
देश की अस्मिता की बात करने
वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर
साम्यवादी चरंपथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई
चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के
साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है।
चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये
वही ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने
दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं,
ये
वही साम्यवादी हैं जिन्होंने सन 62 की लडाई में हथियार
कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था,
ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने कारगिल की लडाई
को भाजपा का षडयंत्र बताया था,
ये वही साम्यवादी हैं
जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराया था, ये वही साम्यवादी हैं जो देश को विभिन्न संस्कृति का समूह मानते हैं,
ये वही साम्यवादी हैं जो यह मानते हैं कि आज
भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त
करा सकती है,
ये वही साम्यवादी हैं जो बाबा पशुपतिनाथ
मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे थे,
ये वही साम्यवादी हैं जो महान संत लक्ष्मणानंद
सरस्वती को आतंकवादी ठहरा रहे हैं,
ये वही साम्यवादी हैं जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर
किसानों की हत्या करा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने
महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा।
साम्यवादी प्रकाश करात को चीन नजदीक और
राष्ट्रवादी दुश्मन लगने लगे हैं। यह करात नहीं चीन
का एजेंडा भारतीय मुंह से कहलवाया जा रहा है। आलेख
की व्याख्या से साफ लगता है कि करात सरीखे
साम्यवादी चीनी सहायता से भारत के लोकतंत्र
का गला घोटना चाहते हैं।
भारत की काम्यूनिस्ट पार्टी माओवादी ने अपने एक बयान में कहा था कि हमें
किसी देश का एजेंट नहीं समझा जाये लेकिन उसके पास से
जो हथियार मिले थे और अब भी मिल रहे हैं वे चीन के बने हैं। इसका प्रमाण
विगत दिनों मध्य प्रदेश पुलिस के द्वारा चलाये गये अभियान
के दौरान मिल चुका है। चीन लगातार अरूणांचल, कश्मीर,
सिक्किम पर विवाद खडा कर रहा है, नेपाल में भारत के
खिलाफ अभियान चला रहा है, पाकिस्तान को भारत के
खिलाफ भडका रहा है, अफगानिस्तान में
तालिबानियों को सह दे रहा है फिर भी का0 करात के नजर में
चीन भारत का सच्चा दोस्त है। आज पूरी दुनियां ड्रैगन के
आतंक से भयभीत है लेकिन भारतीय साम्यवादियों को ड्रैगन
का खौफ नहीं उसकी पूंछ पर लगी कम्युनिज्म की लाल झंडी दिखई दे
रही है।
पेकिंग को साम्यवादी मक्का और चीन
को साम्यवादी शक्ति का केन्द्र मानने वाले प्रकाश करात अपने आलेख में
लिखते हैं कि पश्चिमी देश आरएसएस के माध्यम से षडयंत्र
कर भारत को चीन के साथ लड़ाना चाहता है।
करात के इस आलेख की कूटनीतिक मीमांसा की जाये तो यह
लेख केवल करात का लेख नहीं माना जाना चाहिए। इसके
पीछे आने वाले समय में चीन की रणनीति की झलक
देखी जानी चाहिए।
अगर चीनी विदेश मंत्रालय के भारत पर
दिये गये बयान को देखा जाये तो कुछ इसी प्रकार की बातें
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी विगत
दिनों कही है। चीनी विदेश मंत्रालय कहता है कि भारत
की मीडिया पूंजीपरस्तों के हाथ का खिलौना बन गयी है।
यही कारण है कि भारत और चीन के संबंधों को बिगाडने
का प्रयास किया जा रहा है। चीन ऐसा कुछ भी नहीं कर
रहा है जिससे भारत को डरना चाहिए। लेकिन कार्यरूप में
चीनी सेना ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। भारतीय
सीमा के अंदर आकर पत्थरों पर चीन लिख, भारतीय वायु
सीमा का चीनी वायु सेना ने उलंघन किया, दलाई लामा के
तवांग प्रवास पर चीन ने आपति जताई और कश्मीरियों को अलग से चीनी वीजा देने
का मामला प्रकाश में आया। ये तमाम प्रमाण भारत के
खिलाफ चीनी कूटनीतिक आक्रमण के हैं, बावजूद
साम्यवादी करात के लिए चीन भारत का सच्चा दोस्त है।
करात ने अपने आलेख से केवल अपना विचार नहीं प्रकट नहीं किया अपितु संबंधित संगठनों को धमकाया भी।
लेकिन करात को भारत में रह कर चीन की वकालत
नहीं करनी चाहिए। करात को यह समझना चाहिए कि चीन एक आक्रामक
देश है। चीन से आज दुनिया भयभीत है। चीन के साथ जिस
किसी देश की सीमा लग रही है उसके साथ चीन का गतिराध
है। चीनी दुनिया में चौधराहट स्थापित करने और
साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार के लिए लगातर प्रयत्नशील है।
कुल मिलाकर भारत के कम्युनिस्ट चाहे जितना चीन की वकालत कर लें
लेकिन चीन तो चीन है जिसके बारे में नेपोलियन ने
कहा था इस राक्षस को सोने दो अगर जगा तो यह
दुनिया के लिए खतरा उत्पन्न करेगा।
पाकिस्तान बनवाने के
आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भारतीय
कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे
वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके
प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढऩे लगती है। अत:
प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल
उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार
ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म
को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।' अन्य
कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है।
सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान
किया है कि वह कश्मीर को 'स्वतंत्र देश' बनाने के संघर्ष में
भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक
अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से
ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट
पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख
अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं,
'लेट गो आफ्फ कश्मीर'-यानी, कश्मीर को जाने दो। इसलिए
कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या में
माओवादियों की भागीदारी न भी हो, यह तथ्य तो सामने
आया ही है कि जिन ईसाई मिशनरी गिरोहों ने यह कार्य किया,
उनमें पुराने माओवादी भी हैं। पर ध्यान देने की बात यह है
कि भारतीय वामपंथियों ने इस पर कोई चिंता नहीं प्रकट की,
जबकि उसके बाद मिशनरियों के विरूद्ध हुई हिंसा पर
तीखी प्रतिक्रिया की। यह ठीक गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर
बयानबाजी का दुहराव है। तब भी साबरमती एक्सप्रेस में 59
हिन्दुओं को जिंदा जलाने वाली मूल घटना गुम कर दी गई, और
केवल उसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा की ही चर्चा की जाती रही।
ये उसी हिन्दू विरोधी मनोवृत्ति की अभिव्यक्तियां हैं
जो यहां वामपंथ की मूल पहचान हैं। पिछले दस वर्षों में कई
वामपंथी अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठनों के एजेंट बन चुके
हैं। सोवियत विघटन के बाद से वे भौतिक-वैचारिक रूप ���से अनाथ
हो गए थे। इस रिक्तता को उन्होंने साधन-सत्ता संपन्न
मिशनरियों से भर लिया है। वे
वंचितों, वनवासियों का संगठित व अवैध मतांतरण कराने का उग्र
बचाव करते हैं।
विदित है कि भारत में
सुनामी हो, गुजरात का भूकंप,केदारनाथ में तबाही या आन्ध्र में तबाही, जब भी विपदाएं
आती हैं तो दुनिया भर के मिशनरियों के मुंह से लार टपकने
लगती है, कि अब उन्हें 'आत्माओं की फसल' काटने का अवसर
मिलेगा। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए
मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ
संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख कभी नहीं होता। हिन्दू
संस्थाओं के संदर्भ में यह दोहरापन क्यों? यदि मिशनरी 'सेवा'
करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करते हैं, तो ठीक।
किंतु जब हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन घर-वापसी कार्यक्रम चलाकर
उन्हें पुन: हिन्दू धारा में वापस लाते हैं, तो गलत। यह
कैसा मानदंड है?
चूंकि कम्युनिस्ट
साम्राज्यवाद पराजित हो चुका है, इसलिए हमारे कम्युनिस्टों ने अपनी बची-खुची शक्ति ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवाद
को मदद पहुंचाने में लगा दी है। इसका सबसे भयानक परिणाम केरल में देखने को मिल रहा है। कम से कम इससे उन्हें अपने
शत्रु 'हिन्दुत्व को कमजोर करने का सुख तो मिलता है।
इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर
मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से
मतलब है, न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस
प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है।
मिशनरी एजेंसियाँ चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामक
नहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय
सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई
मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीय
हितों के विरूद्ध मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त
वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े
दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष
प्रमाण है।
वामपंथी दलों में
आंतरिक कलह, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की पराकाष्ठा,
पश्चिम बंगाल में राशन के लिए दंगा, देश की लगभग हर मुसीबत में विपरीत बातें करना,चरम पर
भ्रष्टाचार, देशविरोधी हरकतें, विरोधी राजनीतिक
कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या जैसे वाकयों को लेकर
वामपंथ बेनकाब हो चुका है।
पूरी दुनिया से धीरे-धीरे समाप्त होने के बाद अब इनका दमनकारी शासन केवल चीन में बचा रह गया है और अब यह भारत में भी अन्तिम साँसें ले रहा है।
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