" मां न बनने का सामान जब मिलता हो दुकानों पर
तख्तियां भी टंग गयी हों गली कूचे और मकानों पर
उसी तेरी बदनाम बस्ती में तब से रोज आया हूँ
जहां मुझको फेंक गयी थी मां मैं तुझको खोज आया हूँ
कभी कातिल लोक लाजों का तकाजा मुझसे मत करना
जहां से लोग जाते हैं वो रस्ते छोड़ आया हूँ."-------- राजीव चतुर्वेदी
4 comments:
राजीव जी बस पढ़ के अत्मसाद करने योग्य है आप की रचना....पंक्तियों में छुपे अवारावंशियों के दर्द को महसूस किया...और क्या कहूँ...कुछ कहने योग्य हूँ भी कहाँ....!
राजीव जी बस पढ़ के अत्मसाद करने योग्य है आप की रचना....पंक्तियों में छुपे अवारावंशियों के दर्द को महसूस किया...और क्या कहूँ...कुछ कहने योग्य हूँ भी कहाँ....!
"जहां मुझको फेंक गयी थी मां मैं तुझको खोज आया हूँ..."
ओह! बहुत मार्मिक... अच्छी बात है कि पहल हो रही है, एक नए कल में ये कुरीतियाँ शायद न हो!
बहुत ही मार्मिक ... जबरदस्त.... अभिव्यक्ति....
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